यह युग है,
लिख देने का,
सुलगती कविताएँ.
उड़ेलने का संत्रास.
यह काल है,
जहाँ समय नहीं रहता.
नहीं दौड़ता, दौडाता है,
बन कर महाकाल.
चुह्चुहाई बूंदों से सने गाल,
और कई रात जागी,
भक्क आँखों से उठते,
भकुआए धुंएँ का.
सामीप्य के अवश्यम्भावी,
अलगाव को मानने का.
यह युग है सीपीयों से,
स्वाति छीन लाने का.
लेकर आस्तीन में,
गर्म भक्क तारकोल.
समय है रंगने का आसमान.
इन्द्रधनुष छिन्न-भिन्न करने का.
चुन-चुन के पलाश,
खांडव वन जलाने का.
वर्तमान है कपास को,
शिरा-द्रव्य से नहलाने का.
कोयलों पर टोना कर,
उन्हें मूक बनाने का.
गुलमोहर को छुटपने से,
अम्ल पिलाने का.
युग है बनने का बुद्धजीवी,
काम से समय निकाल,
मनन करने का बाईस घंटे.
स्वयं को छोड़,
प्रत्येक को कोसने का.
किन्तु इन सबसे परे,
तुम नहीं बदली तनिक.
तुम्हारा बेटा ही रहूँ माँ,
मैं यह युग, कविताई छोड़ दूँ.
19 टिप्पणियाँ:
avinash ji...shbd nahi mere pass..superb!
ना रे बालक, पलायन युवाओं का रास्ता नहीं है। ऐसे युग में तुम जैसों की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है।
keep writing, of course give due weightage to your studies and carreer, लेकिन इस युग में रहो भी और लिखो भी, ऐसा ही अच्छा अच्छा।
शुभकामनायें।
.
माँ पर भरोसा है न ?...फिर क्यूँ बातें छोड़ देने की ?
शुभकामनायें।
..
टूटती हुई मान्याताओं का बात ठीक है... लेकिन दूसरों को कोसने में चार उँगली त अपने तरफ होता है... अऊर समाज का हिस्सा होने के कारन सबको कोसते हुए भी हम खुद को कोसते रहते हैं... हाँ ई बात त बिल्कुल सच है कि माँ का बेटा होने से अच्छा कुछ भी नहीं बुद्धिजीवी होना भी नहीं… अच्छा है अबिनास जी!
निःशब्द हूँ, जिस करह आपने इस युग की परतें दर परतें खोल कर नग्नता दिखा दी है।
बहुत सुन्दर और गहरे भाव भरी रचना ...शुभकामनायें
वेदना और पीड़ा से भरा मन -
वाकई आजकल के हालात ऐसे ही हैं
की मन को खुश रख पाना मुश्किल है -
बहुत सुंदर लिखा है ..!
शुभकामनाएं .
कुछ भी कर लो, कितने ही संकल्प कर लो स्वभाव जो एक बार बन गया सो बन गया, बदलेगा नहीं.
कविताई छोड़ना मतलब साँसे लेना छोड़ना.
अरे, आपको उपाय पता चले तो मुझे भी जीमेल पर भेज देना.
बहुत अच्छी कविता।
आपको और आपके परिवार को तीज, गणेश चतुर्थी और ईद की हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत से फ़ुरसत में … अमृता प्रीतम जी की आत्मकथा, “मनोज” पर, मनोज कुमार की प्रस्तुति पढिए!
हमेशा की तरह जानदार............
समय है बुद्धिजीवी बनने का...
बहुत कुछ कह दिया इसमें आपने..
हमेशा की तरह गहरे भाव भरी अच्छी प्रस्तुति।
आभार आप सभी का...:)
किन्तु इन सबसे परे,
तुम नहीं बदली तनिक.
तुम्हारा बेटा ही रहूँ माँ,
मैं यह युग, कविताई छोड़ दूँ.
गहरे भाव छिपे हैं इस रचना में ... बहुत खूब ...
भक्क आँखें, भकुआए धुंए में सामीप्य के अवश्यम्भावी अलगाव को मानना... पसंद आया..
और पसंदा आयी ये मासूम ख्वाहिश या कहें तो मन की आवाज -
"कोयलों पर टोना कर,
उन्हें मूक बनाने का.
गुलमोहर को छुटपने से,
अम्ल पिलाने का."
बेहद सुंदर!!
अधूत ......!!
आप आने वाले समय के युगपुरुष हैं .....!!
@पंकज
शुक्रिया, लेकिन यह कोई ख्वाहिश या आवाज नहीं है..आक्रान्त उचाट क्रंदन है दोस्त.
@हरकीरत जी, इतना योग्य नहीं पाता मैं खुद को, आपके शब्दों का आभारी
अविनाशजी, कविता के मामले में मंदबुद्धी ही हूँ और खुद को उसके प्रवाह में छोड़ कर उम्मीद करता हूँ कि किसी पार मैं भी लग ही जाऊंगा. आपकी इस कविता के मीठे पानी में तिरता अचानक से इन पंक्तियों ने खारे पानी में ढकेल दिया :
युग है बनने का बुद्धजीवी,
काम से समय निकाल,
मनन करने का बाईस घंटे.
स्वयं को छोड़,
प्रत्येक को कोसने का.
किन्तु इन सबसे परे,
तुम नहीं बदली तनिक.
तुम्हारा बेटा ही रहूँ माँ,
मैं यह युग, कविताई छोड़ दूँ
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इनके बगैर या वैसा ही मीठे पानी सा अन्त भी, आज के समाज की कड़वी सच्चाईयों का लेखा पूर्ण कर सकता था.अन्यथा न लें,बहुत थोड़ी समझ है मेरी, पर फ़िर भी मैं अगर किसी को recommend करूंगा तो अन्त की उपरोक्त पंक्तियों को छोड़ कर पढ्ने की राय दूंगा. बाकी की कविता लाजवाब है इसलिये पढ़्ना recommend जरूर करूंगा.
संभवतः आप सही कह रहे हों, पाठक ही न्याय करता है.
किन्तु यदि में अंतिम चार पंक्तियाँ ना लिखूँ तो वह कविता कि आत्मा छीन लेना है....यह समाज पर ऊँगली उठाने का आलेख नहीं, यह माँ कि महिमा का उद्घोष है.
और उसके लिए मेरी समझ से अंतिम से पहले का कर्कश छंद आवश्यक लगा...
आपका बहुत धन्यवाद इतना मनन करके के लिए....
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