कठिन है ठीक से,
समझ पाना तुम्हे.
कितने आवरण हैं,
नेह के तुम्हारे?
आवृत्ति और पुनरावृत्ति,
के ठीक बीचों-बीच.
कहाँ-कहाँ और क्यूँ,
रुकते ठिठकते हो?
'होने' और 'लुप्त होने',
के बीच का,
तुम्हारा अजनबी प्रेम.
मृतप्राय पर हठी,
तुम्हारा आभास.
वहीँ खडा मिलता है,
लिए उद्दात असीम,
लेकिन संकुचित अपनापन.
पत्तों सी तितलियाँ,
या तितलियों से पत्तों,
के बीच का यह,
दृष्टिभ्रम अथ सौंदर्य.
तुमसे ही है या,
रचा है तुम्हारा?
मेरे पारे की चुपचाप बूंदों,
या नमकीन काँच के शरबत.
और तुम्हारी बासाख्ता,
चिल्लाती ख़ामोशी को,
जोड़ने वाले तार क्या हैं?
तुम्हारी गर्माहट से,
पिघली सलाखें या,
ठन्डे हाथों से जम चुकी,
कड़ियों वाली जंजीर?
घबराओ मत!
उत्तर की अपेक्षा नहीं है.
यूँ भी तुम्हारे,
क्रमबद्ध, संगीतमय, कवितामय,
रंगीन उत्तर मुझे,
समझ नहीं आत़े.
हाँ!
कभी मिलो क्षितिज के पार,
जहाँ तुम्हारा रंगीन,
धनुष ना हो.
काला हो सूरज,
पिघल चुकी हो चाँदनी.
उस दिन उत्तर देना.
कितना बचा था प्रेम,
तुम्हारी हर क्षण की महानता में?
19 टिप्पणियाँ:
शुद्ध-ए-खालिस, वर्णन-ए-बारीक !
लफ्ज़-ए-दफ़न, करूँ क्या तारीफ़ ?!
बहुत उम्दा!
bahut hi umdaah...
behtareen....
लिखने की शैली बहुत उत्तम-
विभिन्न सी-
अति उत्तम सोच है -
शुभकामनाएं.
महानता के रास्ते में कई जगह प्रेम के पुष्प कुचले देखे हैं।
"घबराओ मत!
उत्तर की अपेक्षा नहीं है.
यूँ भी तुम्हारे,
क्रमबद्ध, संगीतमय, कवितामय,
रंगीन उत्तर मुझे,
समझ नहीं आत़े.
.........
.........
उस दिन उत्तर देना.
कितना बचा था प्रेम,
तुम्हारी हर क्षण कि महानता में?"
कुछ कहने लायक छोड़ा है इतना खूबसूरत लिखने के बाद? आज तुम्हें एक मेल करने का मन था, लेकिन देखा तो ईमेल ऑप्शन ही नहीं रखा है तुमने अपनी प्रोफ़ाईल में। नैवर माईंड।
अदभुत लिखते हो।
आभार, बधाई, शुभकामनायें सब कुछ।
शिक्षा का दीप जलाएं-ज्ञान प्रकाश फ़ैलाएं
शिक्षक दिवस की बधाई
संडे की ब्लाग4वार्ता--यशवंत की चाय के साथ--आमंत्रण है…।
उस दिन उत्तर देना.
कितना बचा था प्रेम,
तुम्हारी हर क्षण कि महानता में?"
....bahut sundar bhavabhivykti....
पत्तों सी तितलियाँ,
या तितलियों से पत्तों,
के बीच का यह,
दृष्टिभ्रम अथ सौंदर्य.
तुमसे ही है या,
रचा है तुम्हारा? ...
इसे दृष्टि भ्रम कहें या प्रेम का आवरण ....
बहुत ही मधुर रचना है ....
लाजवाब और क्या कहूँ शब्द ही नहीं बचते मेरे कोष में
अविनास बाबू,
आज तो मजा आ गया... सब्दों का फेर बदल और अर्थ का नबीनता, कल्पना का ऊँचाई और भाबना का गहराई, और एक अनोखा सम्बाद... हमरा त बरसों से बोलचाल बंद है उनसे, त सम्बाद का त सवाले पैदा नहीं होता है... कहे कि ऊ सात रंग वाला धनुस से हमरे करेजा पर एतना आघात किए हैं ऊ कि जिसका हिसाबो हम भुला गए हैं...
एक दम खो गए हम कबिता में..
बहुत सुंदर अबिनास बाबू!
आप कविता लेखन के क्षेत्र में नित नए आयाम गढ़ रहें हैं.शुभकामनायें.
.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। हमेशा की तरह !
शुभकामनाएं।
.
बेहतरीन कविता................
आप सभी का ह्रदय से आभार...
@संजय जी,
आप इतनी तारीफ़ कर देते हैं, मैं ज्यादा ही अघा न जाऊं कहीं...
ईमेल ऑप्शन नहीं रखने कि अपनी वजहें हैं...: avinash.8894@gmail.com
@सलिल जी,
नेह है आपका, क्या कहूँ?
@संध्या जी...
आपसे ऐसा सुनना अच्छा तो लगता है...पर शायद मैं इतना योग्य नहीं पाता खुद को...
avinash ji ..i m surprised...lekhan mein itni jyada maturity hai ki aage aage to aap kya hi likhengen :)
शुक्रिया पारुल जी
इस युग का जीवंत चित्रण कहूँ या सच में संत्रास .. पलाश को अम्ल , इन्द्रधनुष का छितराना .. एक वेदना युग की घनीभूत होती गयी है जो ममता में त्राण पाती है l सुन्दर रचना !
fir se padhi ye waali kavita..utni hi freash hai....
:)
bahut khoobsoorat......
(main Dabangg ka review dhoondh rahi thi..Neon pe nahin mila to yahan dekh rahi thi...)
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