मत खोलना किवाड़....

मत खोलना ना,
आज किवाड़ अपने।

तुम्हारी तो भोली है,
नन्ही सी छागली।
तुम तो बाँध दोगी,
हिलते खूंटे से उसे।

वो सयानी मान,
भी जायेगी चुपचाप।
पर मेरा क्या होगा,
ये भी तो सोचो?

मैं तो देखता ही,
रह जाऊँगा ना।
तुम्हारी दरक पीली,
फहरती चुन्नी को।

और मेरा निपट,
नालायाक बछडा।
भाग जाएगा फिर,
अपनी अम्मा तक।

फिर नहीं दुह ,
पायेंगे मामा।
क्या पाओगी तुम,
मुझे यूँ सता के?

माना ललक है,
तुम्हे देखने की।
पर कुछ बातें,
ना बढें तो अच्छा।

इतना तो समझती,
हो तुम भी बावली।
तैरता नहीं धेला,
नदी में घुलता है।

यूँ हक़ नहीं मुझे,
पर अरज सुनो।
मत खोलना ना,
आ़ज किवाड़ अपने.....

टुकड़े यूँ ही कुछ...

मैं सांप नहीं....

शर्मा जी का लड़का,
अरे अपने दिलीप भैया।
अलग रहने लगे हैं।
अंकल जी आधी बांह की,
कमीज पहनते हैं अब।
पापा आप मत कटवाना,
कभी आस्तीनें अपनी।

कोसूँ किसे?

परेशान बहुत हैं,
बुद्धजीवी यहाँ पर।
ख़तरा बहुत है उनकी,
संस्कृति को पाश्चात्य से।
पर हमारी जड़ें,
बहुत गहरी हैं।
हर ड्यूड होता है कुमार,
लेते वक़्त दहेज़।



वचन अपना अपना....

संभव नहीं हर रात,
तुम छत पर आओ।
मास में एक दिन तो,
चाँद भी नहीं आता।
मैं फिर भी इन्तजार,
तो कर ही सकता हूँ।
आसमान को तो वहीँ,
रहना है ना प्रियम्वदे?



रमजान मुबारक...

बहुत आह्लादित मैं हूँ,
तुम भी तो खुश हो ना?
काश सबको पाक-पाक,
कर जाए रमजान महीना।



सुनो विषाददेव............

मैं गीत हूँ उन पाषाणों का,
जिनको गुनना भी आंधी है।
हर एक सपने को बैर हुआ,
मुझसे ही गांठें बांधी हैं।
लेकिन इतना इतराओ मत,
समझो ना तुम्हारी चांदी है।
आशीष पिता की है छतरी,
दी माँ ने धीर की हांडी है।




मेरे शब्द.....

मेरे शब्दों में आपलोग,
शिल्प सौंदर्य मत ढूँढना।
ये तो घास-फूस है बस,
माँ ने बगीचे से बटोरी।
मैंने आपको दिए हैं किसी,
गिलहरी का आशियाँ बनाने को.

छोड़ दो....

अब कहूं लड़ जाओ,
सात आसमानों से।
मेरे लिए तूफानों का,
पकड़ रुख मोड़ दो।

कहने दो लोगों को,
जो कहते हैं हमें।
ये सारी बूढी,
रूढियां तोड़ दो।

हो जाओ ना बस,
मेरे ही अरमान।
बनो न मेरे ही,
अलबेले चतर सुजान।

रखा क्या है लोगों,
की बेतुकी बातों में।
घर की ऊहापोह को,
कान देना छोड़ दो।

पर जानते हो न,
लुढ़क न जायेगी।
अगर तुम प्रीत की,
मेरी मटकी छोड़ दो।

संभव नहीं है बनना,
रांझा तुम्हारे लिए।
ऐसा भी नहीं,
कहती कभी मैं।

पर पिता को,
सदा ही शीश नवाओ।
माँ कहें जिससे,
नाता उसी से जोड़ दो।

नहीं नहीं ये मेरा,
त्याग नहीं है।
यकीन मानो मन में,
कोई व्याध नहीं है।

पर यूँ ही कहीं,
रेवती बनने से तो।
अच्छा है पग,
आज ही मोड़ दो।

बन जाओ न,
श्रवण कुमार तुम।
मैंने तुममे कान्हा को,
तो माँगा नहीं कभी।

रहती तुम्हारी तो,
खुश रहती बहुत।
पर एक सुखी माँ-बाप,
को जानना भी अच्छा है।

दो आंसू डालो,
आँचल में मेरे।
और बस ये,
गाँठ तोड़ दो।

कमजोर बहुत हूँ वरना,
छोड़ देती मैं ही।
बनो बहादुर सांवरे,
तुम ही मुझे अब छोड़ दो

क्षणिकाएं फ़िर से.....

माँ सब जानती है...

सोचा इस बार,
अचानक माँ को,
सरप्राईज़ विजिट दूँ।
घर पंहुचा तो,
माँ मंदिर गयी थी।
खुशबू आ रही थी,
कटहल के कोफ्तों की।
जो पूरे घर में बस,
मुझे ही पसंद हैं।



अंतर....

दाल के पकने पर,
ढक्कन खनकता है।
तुम जल जाते हो जो,
नीचे वाला तरक्की करे।
तभी अंतर है,
नाम रूप एक ही,
धातु रूप अनेक है।


सच कहो....

मैं तैयार हूँ,
बनने को विषधर भी।
अगर तुम हो,
जाओ विषहीन।
मुझे आस्तीन का,
सांप कहने से।


समझो....

व्यर्थ है प्रिय,
लावण्य तुम्हारा।
ये कीर्ति भी,
मिट जानी है।
अगर नहीं है,
धीरज तुममे।
और ना आंखों,
में पानी है.



गलती किसकी?

कितनी आसानी से,
कह दिया न।
"चिकने घडे पर,
कितना ही पानी डालो..."
बनाया तो तुम्हारे ही,
किसी भाई ने होगा।
और तुम्हारी ही,
कोई बहन लाई,
होगी पका उसे,
फिर मांज के भी।



झूठ....

कोई नहीं मानेगा,
सनकी-फेंकू भी कहे।
पर सबसे सुन्दर,
क्या पूछने पर।
हर बार लेता हूँ,
नई अभिनेत्री का नाम।
कैसे कहूँ?
"पापा के पैरों की,
हसीन बिवाइयां"



माँ की सब्जी...

अम्मा ये ठीक नहीं,
तुम इतनी अच्छी,
सब्जी ना बनाओ।
दो दिन बाद ये,
कहाँ मिलेगी मुझे?
" इसीलिए बनाई रे,
दो दिन बाद तो,
मुझसे भी नहीं,
बन पाएगी ना?"



चुन लो अपना.....

अकाल में भाव,
दाल के सौ और,
चावल के चालीस।
पर सरकार ने भी,
कीटनाशक और,
इम्पोर्टेड चीज़ के,
दाम घटाए हैं।
देख लो हरिया,
चुन लो अपना....



मित्र.....

वजन तो है कुछ,
बात में तुम्हारी।
और फिर मेरी भी।
तभी तो बघार,
रहे हैं विशेषताएं।
तराजू के अलग,
अलग पलडों से।
लो मैंने वजन,
त्याग दिया।
तुम भी उड़ो ना,
बनके रुई के फाहे।
आओ हवा में,
दोस्ती कर लें.....

युद्ध तिमिर से....

हे बलशाली तिमिर के योद्धा,
इतरा ना श्रिन्गिभाल पर।
सात अरुण दौदिप्य हैं मेरी,
जिजीविषा के कपाल पर।

माना तेरी रात बड़ी है,
विजय तेरे ही साथ खड़ी है।
किन्तु मेरी मुट्ठी अभी भी,
पावक सम तलवार जडी है।

या तो शीश तेरा बांधूंगा,
इर्ष्या-ठूंठ की डाल पर।
या फिर मेरा लहू बहेगा,
ना रोएगी धरा इस लाल पर।

शत सहस्त्र की सेना माना,
हर क्षण मेरी घात खड़ी है।
किन्तु मैं हूँ बाण-खिलाडी,
मैंने गिनती नहीं पढ़ी है।

मुझे डरा मत रात के राजा,
लोभ दंभ की बात कर।
प्रपात नहीं रुका करते हैं,
पाषाणों के आघात पर।

बुला ले कूकर-शृगाल सब,
निर्णय की ये ब्रम्ह घडी है।
नहीं कोई भी एक बचेगा,
शार्दूल ने शपथ धरी है.

मन ये कहे....

स्तब्ध साए हो गए जब,
स्वप्न सारे सो गए जब।
अश्रु छलके फिर यूँ बरबस।
जब नहीं रोई धरा,
आसमान भी ना फटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं क्रंदन....

मिली कभी दुत्कार थी,
और ह्रदय की नदी,
मांगती विस्तार थी।
सामने चट्टान के,
मैं अकड़ता जा .
देख मन ये कह उठा,
मैं मंथन....

कभी कोई बात ऐसी,
घटना काली घात जैसी,
बीती जाने रात कैसी।
अंतर से इक हूक जागी,
रात आधी जाग बैठा।
देख मन ये कह उठा,
मैं चिंतन.....

जीत डाली जब धरा तो,
सब मुझे ही देखते थे।
गृह था पदकों से भरा तो,
पिता जी के भाल पर,
गर्व का उन्माद था।
देख मन ये कह उठा,
मैं अभिनन्दन....

घोर चिंता बात दुर्गम,
पिता जिसमे डूबे हरदम।
देख मुझको खिलखिलाए।
आँख में इक चमक आई,
पिता को ख़ुशी से अटा,
देख मन ये कह उठा,
मैं चन्दन....

देख थाली प्यार वाली,
चावल रोरी लाल वाली,
बहन ने थी जो सजाई।
हल्दी के उबटने में,
कपास जैसे जा सटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं वंदन...

बरखा गिरी जब धरा पर,
सोंधी बयार ने छुए नयन,
चूमने माटी थिरके अधर।
मेढकों की टर्र-टर्र और,
इन्द्रधनुष की छटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं नंदन.....

देखता हूँ माँ की पलकें,
विदा देते भीगती हैं,
जैसे दो ब्रम्हांड छलकें।
डोरी पावों बांध गयी,
ह्रदय हुलस सा उठा।
देख मन ये कह उठा,
मैं बंधन....

सबने जब जब स्नेह वारा,
कोई भी था प्रश्न आगे,
नाम मेरा ही पुकारा।
अग्निपथ पर भी मैं आया,
मार्ग से कंटक हटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं संबोधन....

हार कर या जीत कर,
या के जीवन की डगर में,
मृत्यु को भयभीत कर।
पुरुषार्थ से कंधा मिला,
दिन रात तन जब ये खटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं आरोहण.....

छोटी दी...

यूँ तो साल भर,
पीछे पड़ी रहती है।
मेरे निरीह बटुए के,
ऊपर खड़ी रहती है।

साड़ी जरदोजी के,
महीन काम वाली।
पायल जिसमे,
नथे हों सच्चे मोती।

चुन्नी लखनवी ही हो,
सबसे ऊँचे दाम वाली।
मुझसे घर बैठे ही,
अलफांसो आम मांगती है।

मगर जब नहीं,
कर पाता न पूरे।
इनमे से कोई भी,
छोटे बड़े अरमान।

जाने कैसे खुद ही,
बिस्तर की सलवटों से,
निकालती है एक,
रेशमी धागा।

देने की कोशिश,
भी करूँ कुछ तो।
बस मुझसे सदा,
साथ रहने का,
वरदान मांगती है।

है तो छोटी मुझसे,
पर 'दी' कहता हूँ उसे।
जो इस भाई से ,
केवल ईमान मांगती है.