सब समर्थ हैं....

माना तुझमे कर्ण नहीं है,
ना तू शिवी सा दानी है।
लेकिन क्यूँ तू शोक करे रे?
तू भी ब्रम्ह की ही वाणी है।

नीर बहा मत, हे मनु।
सलिल नहीं, वो अमित शांतनु।
व्यर्थ निधि क्यूँ आज करे रे?
कुलपति की कुल निशानी है।

चाक कुम्हार का भले सही है,
मधुरिम कोई मधुरिमा नहीं है।
पर नर क्यूँ संताप धरे रे?
भले न तू चक्रपाणी है।

अलि नहीं है, कली नहीं है।
कंटक क्यारी फली नहीं है।
हा कंटक! क्यूँ जाप करे रे?
महाव्याल भी अनुगामी है।

महाबली तेरी भुजा नहीं है,
ना है शिव, शैलजा नहीं है।
इनके क्यूँ तू ताप जरे रे?
हिमाद्री भी सुमेरु से अनजानी है।

अनय नहीं है, विनय नहीं है।
किसी को तुझसे प्रणय नहीं है।
क्यूँ हर क्षण आलाप करे रे?
सत्य प्रेम तो बलिदानी है।

अश्रु एक दिवस सिन्धु लेगा,
कृष्ण कभी पहिया धरेगा।
सर्पों को दुत्कारे कंटक,
पौरुष का परिचायक सुमेरु।
निंदा भी तो अभिमानी है।
दान का नो हो सामर्थ्य जिसको,
ऐसा कहाँ कोई प्राणी है?

1 टिप्पणियाँ:

वर्तिका said...

so true nd so beautiful... antar ki shakti se aalokit hoti hui rachnaa.............