झुण्ड से छूटा, साथ से रूठा,
एक था बिचड़ा गिरा यहाँ।
गीति के नवजात शिशु को,
मरने देती क्षिति कहाँ।
पावस में घिर आते शत घन,
बाकि दिव सुथराई के कण।
धमनी-धमनी स्थान रुधिर के,
माँ का संचित नेह बहा।
सूर्य रश्मियाँ पुष्ट बनाती,
विधु की किरणे थीं दुलरातीं।
और मृदुल नभ के तारागण,
हर अठखेली पर मुस्काते।
तृण के नोक ललाट चूमते,
अलि धावन के बाद घूमते।
वल्लरियाँ थीं दीठ बचातीं,
गिरते पर्णों ने मीत कहा।
दिवस बीतते, रात बीतती,
शीतलता औ घाम बीतती।
बालक ने आशीष मान कर,
सबको दे सम्मान सहा।
बारी-बारी सब ऋतुओं ने,
भांति-भांति के पाठ सिखाये।
पराक्रमी कर्ष-मर्ष कौशल पर,
वानीर झुण्ड ने हाथ उठाये।
गभुआरे नन्हे कोमल तन,
को सालस थपकाती गन्धवह।
चीं-चीं मर्मर क्षिप्र ही गढ़ कर,
खग कीटों ने गीत कहा।
खेचर नित आशीष वारते,
गहते हाथ, औ मूंज बाँधते।
"रागों में तुम वीतराग हो!"
"हो अलोल!"- यह बोल उचारते।
मौलसिरी ने आसव छिडका,
नीप-तमाल ने नेह से झिड़का।
आम छोड़ के उतरी कोयल,
कान में गुपचुप प्रीत कहा।
नियति-नटी अपनी गति खेली,
सुभट शाख किंकिणियाँ फूलीं।
जिसने देखा वही अघाया,
"उत्तरीय तुम्हारा स्वर्ण!"- कहा।
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बिचड़ा - नन्हा पौधा ;सुथराई - ओस ;रुधिर - रक्त ;विधु - चंद्रमा ;तृण - घास ;गन्धवह - वायु ;खेचर - पक्षी ;किंकिणियाँ - घुंघरू
16 टिप्पणियाँ:
आयु भर आशीष तो हमेशा से ही है, सुपात्र के लिये क्या अप्राप्य होगा?
वो थोड़ा सा कठिन शब्दों का सरलार्थ भी मिल जाता तो और लाभान्वित होते:)
अति सुन्दर!
अति सुंदर।
कठिन शब्दों के अर्थ भी लिख देते तो पाठकों को सहुलिय होती शब्द सम्राट।
बहुत सुंदर गीत. भाषा की मिठास अतुलनीय है.
बधाई और शुभकामनाएं.
शब्द-कोष की मदद लेनी पड़ी।
अच्छे भाव -
बधाई एक उत्कृष्ट रचना के लिए ।।
सादर ।।
अद्भुत यात्रा... आशीष शतायुष्य होने का!!
बिचड़ा को मैं बीच समझ रहा था। ..धन्यवाद।
बार बार पढ़ा, नहीं अघाया..
बहुत ही प्यारी सी कविता है...
बिचड़ा के अर्थ मुझे भी नहीं मालूम थे .
प्रकृति सर्वमंगला है !
बीज को बीच लिख दिया था..(:-(
बहुत अच्छी रचना लगी।
कुछ कहते नहीं बनता. सहेज लेने का सा मन होता है...
बहुत ही बेहतरीन रचना....
मेरे ब्लॉग
विचार बोध पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत दिनो से कुछ लिखे नहीं। लगता है शब्द सम्राट गूढ़ शब्दों की खोज में लगे हैं।:)
ऐसा नहीं है सर!
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