प्रात की पहली किरण पर,
शब्द उग आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ पत्र में लिख दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
मन के वन की वीथियों में,
पुष्प झर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ इत्र में गढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
रेत पर फेनिल लहर से,
रंग भर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ चित्र में भर दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
भेंट कर दूँ मौन को,
मैं गंध को, हर रंग को।
सोचता हूँ सामने पढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
शब्द उग आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ पत्र में लिख दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
मन के वन की वीथियों में,
पुष्प झर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ इत्र में गढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
रेत पर फेनिल लहर से,
रंग भर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ चित्र में भर दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
भेंट कर दूँ मौन को,
मैं गंध को, हर रंग को।
सोचता हूँ सामने पढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।
17 टिप्पणियाँ:
:)
जो भी करोगे अच्छा ही होगा।
मन चंगा तो कठौती में गंगा ...
आपकी रचना का ये
माधुर्य क्यों इतना विलंबित
चक्षु उन्मीलित इन्हें स्वीकार लूँ
या मैं प्रभु को भेंट कर दूं!!
अलौकिक सुख.. स्वयं ऐसा न लिख पाने का दुःख और ऐसे लोगों को पढ़ने का पुण्य.. बस अद्भुत!!
बहुत प्यारी और कोमल भाव लिए सुंदर रचना
बोझ लगता जो मिला,
मैं भेंट करने का चला।
मन के वन की वीथियों मे
पुष्प झर आत़े स्वयं जो...
खूबसूरत कविता....सादर।
भेंट कर दूँ मौन को,
मैं गंध को, हर रंग को।
सोचता हूँ सामने पढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।.....
हम तो यहीं मर-मिटे भैया! गज़ब!
अति सुन्दर !
nice
उत्कृष्ट ...कोमल ...अत्यंत मनोहारी ...
मौन हैं मेरे शब्द ...कुछ नहीं लिख पा रहे हैं ....!!
अभी सलिल जी के ब्लॉग पर उत्साही जी की कविताओं की मात्रा पर कमेंट करके आया हूँ, जिसमें क्वालिटी को क्वांटिटी से श्रेयस्कर बताया था और इस पोस्ट के लिये अपनी ही बात से फ़िरने को मन कर रहा है। 'quantity counts'
सभी कमेंट्स से सहमत, विशेष रूप से 1, 2 और 6 से मूल से भी ज्यादा सहमत।
और भी यश प्राप्त हो दोस्त।
या यूँ ही भेंट कर दूं !!
लाजवाब !
अब इससे ज्यादा कहना आया नहीं :)
मन के वन की वीथियों में,
पुष्प झर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ इत्र में गढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ ...
मधुर काव्य ... पुष्प जैसे भी हों अच्छे ही लगते हैं ...
इस ऊहापोस से बाहर निकल कर भेंट कर ही दीजिए।
अविनाश बाबू,
अटेंडेंस लगा लो भाई.
हमें तो एज़ युज़ुयल कम ही समझ में आयी!!!
हा हा हा...
पर तुमने लिखी है.... अच्छी ही होगी! अरे होगी क्या? हम कहते हैं: है!!!
आशीष
--
द नेम इज़ शंख, ढ़पोरशंख !!!
छुट्टियों (ऑफलाइन) रहने के बाद आज लौटा हूँ...
अद्भुत !
अविनाश जी आपकी रचना पहली बार पढी है ।अब बार-बार पढनी ही होगी यही महसूस हुआ
अविनाश जी आपकी रचना पहली बार पढी है ।अब बार-बार पढनी ही होगी यही महसूस हुआ
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