चुक गए सब द्वंद ऐसे,
टूटते हों बंध जैसे।
मुक्ति का उच्छ्वास भर के,
गीत फिर से मन रचो।
रोर वाली या अबोली,
तुमने क्रीड़ा द्युत खेली।
प्राण में ज्योति जगा के,
गीत फिर से मन रचो।
लौह का पथ, लौह कंटक,
गोत्र इस्पाती रहे।
खींच दो वल्गा समय की,
वो जो उत्पाती रहे।
श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
आस की वातास का तुम,
गीत फिर से मन रचो।
तुमने सौ-सौ बाण मारे,
सिंह मारे श्वान मारे।
मार्ग किन्तु यह नहीं वो,
जहाँ पग धर घर चलो।
टेरना बिन लक्ष्य बेमन,
बिन दिशा किस काम का?
आँख का पानी गिरा कर,
गीत फिर से मन रचो।
श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
लुंठित औ भरमाये मन का,
स्थान कोई है नहीं।
तोड़ के कारा सभी अब,
आगे ही आगे बढ़ो।
श्वास क्षीण ही सही,
गीत फिर से मन रचो।
देह चटकती रही है,
ताप से संताप से।
वीणा रुक्म लाल है,
स्वेद के आलाप से।
सूर्य चन्द्र श्वेत हैं,
और सभी श्वेत श्याम हैं।
दिन वही रात्रि वही,
भूत वर्तमान है।
स्नेह के दो क्षण मिलें,
वह नेत्र में धंस जाएँगे।
स्वयं को क्षमा कर सकें,
वह वचन न बोले जाएँगे।
एक ही विमा रहे,
अकेले ही विजन पर चलो।
श्राप मन के धुल सकें,
गीत फिर से मन रचो।
चिर प्रणय का स्पर्श था,
नित अधर पर डोलता।
अँगुलियों का पोर,
अभीप्सित लालसा टटोलता।
थे सुमन अनुराग के,
हर वृन्त पर सजे हुए।
पुष्प-रेणु और अलि,
निकुंज स्वत सहेजता।
मुदित वह जो नीड़ था,
अस्पर्श्य है, अतिदूर है।
पुरातन बंधन, तुम्हारे
मद से चूर-चूर है।
ग्लानि फेफड़ों में भर,
आगे ही आगे बढ़ो।
श्वास क्षीण ही सही,
गीत फिर से मन रचो।
अनल तुम, समिधा तुम्ही,
तुम ही अग्निधान हो।
यज्ञ में स्व के स्वयं को,
स्वयं होम तुम करो।
श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
आस की वातास का तुम,
गीत फिर से मन रचो।
#The Weary Kind (Crazy Heart) सुनने के बाद ये है, जो है।
19 टिप्पणियाँ:
सबके मन को प्रफुल्लित करने वाला गीत रचा है मन ने... आज तो अपने असंगीतकार होने पर बहुत क्रोध हो रहा है!! कोई तो संगीतबद्ध करे इस गीत को!!
चिर प्रणय का स्पर्श था,
नित अधर पर डोलता।
अँगुलियों का पोर,
अभीप्सित लालसा टटोलता।
वैलेंटाइन डे पर प्रणय का सुंदर सन्देश....
अनल तुम, समिधा तुम्ही,
तुम ही अग्निधान हो।
यज्ञ में स्व के स्वयं को,
स्वयं होम तुम करो।
फिर से मन को गीत रचने का आग्रह ...बहुत सुंदर शब्दों मेन भावों को उतारा है ...
जोश भर भर दे रहा है ये गीत...
नव गीत रच डालने का उद्घोष गीत...अनुपम..
टेरना बिन लक्ष्य बेमन,
बिन दिशा किस काम का?
आँख का पानी गिरा कर,
गीत फिर से मन रचो।
बड़ा मनमोहक गीत लिखा है...
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 16-02-2012 को यहाँ भी है
...नयी पुरानी हलचल में आज...हम भी गुजरे जमाने हुये .
बढ़िया ! 'अबोले ही' का ऑडियो ?
सुरों में ढाली जाये, सच में ऐसी रचना।
बहुत खूब ही कहने लयक है।
साधु-साधु
इतने फूल है कि माला पिरो लीजिए...
और बिना नमक के भोजन की आदत डाल लें...
लाजवाब लेखन..
शुभकामनाएँ..
कितना सुन्दर गीत...!! वाह!
सादर बधाई...
ati sundar.
अभिषेक जी,
करता हूँ कुछ सर! निराश ही होंगे आप, लेकिन करता हूँ। :)
समय दीजिये २-३ दिन।
बहुत सुन्दर !
ऑडियो की प्रतीक्षा है.
बीच के दिनों में टिप्पणीवाला भाग कहीं ग़ायब रहा था .
ऑडियो लगा दिया है अभिषेक जी, उसी नियत स्थान पर।
अति सुन्दर!
अविनाश जी आप भी न कहाँ कहाँ से शब्द ढूढ़ कर लाते हैं ....
अब ये 'रोर' शब्द बहुत ही कम इस्तेमाल होता होगा ...
आपको तो शब्द प्रयोग का पुरस्कार मिलना चाहिए .....:))
उत्कृष्ट कृति।
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