प्रिय ऋतु में...





नियम से नित प्रात!
कौन जाता है छींट?
स्वर्ण भस्म भर शत घट,
व्योम के पूर्वी छोर सुदूर।

कौन टेकता है छड़ी,
ध्रुवनंदा की पीठ पर?
और छिटक आती हैं बूँदें,
चंचल निष्छल स्वछंद।


कौन देता है फूंक,
किंशुक किंकिणियों में प्राण?
धर देता है शुचित मेखला,
बनैली धरती पर निचेष्ट।

कौन बजाता है वीणा,
विहंगो के कलरव की?
औ खोल देता है अनायास,
उनींदे गभुआरे उत्पल दल।

कौन खींचता है नियम से,
मारूति के नव परिपथ?
वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।


कौन पुरइन पर दधि का,
लेप देता है लगा नित?
ओस की बूँदें छुड़ाती,
जागती हैं रश्मियाँ भी।

कौन गढ़ता अल्पनायें,
पुष्प ला गुलदाउदी के?
किलोल करती वल्लरियाँ हैं,
ठठाती वृन्त-वृन्त, निकुंज भर।

कौन जलाता है हिम बिनौले,
छाजते है ग्राम-घर जो?
कि महि को देखने भर,
ढूंढता है छेद दिनकर।


कौन निश-दिन के यमल को,
प्रेम का जड़ता दिठौना?
बकुचियों के फूलते तन,
आरती में जागते हैं।

कौन करता है विदा दे,
दान-सीधा बादलों को?
कि रजत दल कांपते हैं,
मंदाकिनी की हर लहर पर।



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किंशुक= पलाश
किंकिणियाँ= घुंघरू
मेखला= एक प्रकार का वस्त्र
गभुआरे= कोमल
उत्पल= कमल
पुरइन= कमल का पत्ता
दधि= दही
दिठौना= नज़र से बचने वाला काजल का टीका
बकुचियाँ= औषधीय पौधे

16 टिप्पणियाँ:

Anupama Tripathi said...

kripaya kuchh kathin shabdon ke arth bhi den ....

vandana gupta said...

बहुत खूबसूरत रचना।

रश्मि प्रभा... said...

कौन बजाता है वीणा,
विहंगो के कलरव की?
औ खोल देता है अनायास,
उनींदे गभुआरे उत्पल दल।
tumhari kalam

नीरज गोस्वामी said...

बेमिसाल शब्द और लाजवाब भाव...उत्कृष्ट रचना

नीरज

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बहुत दिनों बाद, आपकी कोई रचना पढ़ने को मिली.. भूल चुका था स्वाद.. आज आनंदित हुआ!!

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर शब्द संचरना, भावपूर्ण।

Arvind Mishra said...

वाह रे शब्द शिल्पी :)

Smart Indian said...

अति सुन्दर!

प्रतिभा सक्सेना said...

शब्दों के शिल्पकार हैं आप !बहुत सुन्दर चित्रण .मनोरम प्रकृति में निहित रहस्य की अनुभूति को प्रभावी ढंग से व्यक्त किया है .साधुवाद !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर प्रकृति का वर्णन ..सुन्दर रचना

Anupama Tripathi said...

कौन बजाता है वीणा,
विहंगो के कलरव की?
औ खोल देता है अनायास,
उनींदे गभुआरे उत्पल दल।
मेरी कल्पना उड़ गयी है आसमान में और लग रहा है ...ये वीणा प्रभु बजा रहे हैं और मैं निशब्द उनका गान सुन रही हूँ ...जड़वत ....गाने की चेष्टा कर रही हूँ पर मेरी आवाज़ ही नहीं निकल रही है .....
अद्भुत लिखा है .....शत शत नमन आपकी कलम को ....

संजय @ मो सम कौन... said...

कौन(?)
एक आम इंसान की मानें तो सूर्य, विज्ञान की मानें तो एक तारा, एक आस्तिक की मानें तो एक रचनाकार जो हर घटित अघटित के लिये जिम्मेवार-जिम्मेदार है, एक नास्तिक के लिये एक साधारण सी घटना जो लाखों-करोड़ों आकाशगंगाओं में से एक में अनायास ही पुनरावृत्त हो रही है। एक कवि हृदय की सोच इस पोस्ट से झलक ही रही है।
जैसी जिसके पास नजर है, वैसा ही नजारा उसे दिखता है।
अद्भुत अविनाशी कलम...।

rashmi ravija said...

बहुत ही सुमधुर रचना...प्रातः का ऐसा निर्मल चित्र खींचा ... है कि वो उजली सुबह आँखों के आगे साकार हो उठी.
कितने ही भूले बिसरे शब्दों से पुनः साक्षात्कार हुआ.

Himanshu Pandey said...

महीनों बाद आज ब्लॉग देखा. पहली देहरी गिरिजेश भईया की, वहाँ से अनायास खिंचा यहाँ चला आया.
आनंदमय ! अद्भुत !

SANDEEP PANWAR said...

अच्छा है

रश्मि प्रभा... said...

ब्लॉग बुलेटिन की इस ख़ास पेशकश :- २०११ के इस अवलोकन को मैं एक पुस्तक का रूप दूंगी , लिंकवाली पूरी रचना होगी ... यदि आप में से किसी को आपत्ति हो तो यहाँ या फिर मेरी ईमेल पर स्पष्ट कर दें ... और हाँ किसी को यह पुस्तक उपहार स्वरुप नहीं दी जाएगी ....अतः इस आधार पर निर्णय लें ... मेरा ईमेल है :- rasprabha@gmail.com .