जैसे घृत लोबान पँजीरी,
पुरइन संपुट में भरते हों।
यज्ञ हुताशन में उसी मिस से,
कृशकाय तुम्हारे शब्द झरते हों।
किंशुक रस से लिखो शब्द अब,
वही गीत का प्राण बनेंगे।
तप-तप बड़वानल में अनुदिन,
साक्षात ही अग्निधान बनेंगे।
चटुल विपुल केसरी कुसुमासव,
शब्दों से धरणी लब्ध रहेगी।
हरित-श्वेत वानीर-कुटज के,
अइपन से नित प्रात सजेगी।
गभुआरे मन, लुंठित होकर,
द्रुत विदीर्ण यदि गान करेंगे।
त्रय-तेज धरे यह शब्द तुम्हारे,
नाम मुक्ति अभिधान धरेंगे।
अमा-निशा-सोम-आरुषी पर।
दिनकर की दिप-दिप आभा पर।
छंद कोकिला की कुहुकों पर,
गीत रचेंगे कवि पुहुपों पर।
छायें तुमुल के तम घन किंचित।
हो अनिल सरणी से विमुख प्रकम्पित।
रच का अक्षय तूणीर उठाना,
शब्द-शब्द शर-बाण बनेंगे।
उर्मिल उदीप, सुशांत कि उदधि।
सरि तट उत्पल दल खिलते हों।
जीव बनैले, अथाह खग राशि,
शाद्वल वन किलोल करते हों।
इनकी मुग्ध केलि रक्षा में,
निशि वासर पद-ताल करेंगे।
ऋतुओं का अहिवात बचाने,
सुभट शब्द निष्काम लड़ेंगे।
रिपु दुर्धर वैषम्य स्थितियों सम,
डाकिनी सी हों रोर उठाते।
वाधर्क्य से श्लथ नभ घन-दल,
वातास शुष्क, गिरि झिंपे झँवाते।
कहना ज्योतिर्मय शब्दों से,
बन स्फुल्लिंग नभ दीप्त करेंगे।
प्रश्नों से उत्तप्त प्रकृष्ट स्वर,
प्रत्येक निकष पर स्वयं कसेंगे।
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पुरइन= कमल का पत्ता
संपुट= दोना
हुताशन= अग्नि
किंशुक= पलाश
अग्निधान=अग्नि पात्र
चटुल= चंचल
अइपन= अल्पना
गभुआरे= कोमल
तुमुल= कोलाहल
सरणी= मार्ग
निशि वासर= रात-दिन
अहिवात= सुहाग
वाधर्क्य= वृद्धावस्था
निकष= कसौटी