बेहतर खुदा..



अमुक तारीख को,
भरनी है फीस.
लानी हैं चप्पलें,
नई एक कमीज.

अमुक इंसान से,
पूछना है कहीं,
मिल रही हो साइकिल,
कम दाम में.

अमुक स्कूल जा,
करना है पता.
छठवीं का फॉर्म,
कब निकलता है?

अमुक सड़क से हो,
जाना है घर.
व्याकरण पढ़ाने को,
वक़्त बचता है.

अमुक दुकान से,
खरीदने हैं पटाखें.
परिचित है अहमद,
अच्छे पटाखे देगा.

अमुक दुकान से,
खरीदने हैं लड्डू.
चश्मा फिर कभी,
आज दिवाली है.

असीम स्नेह में,
ऐसे कितने ही,
दिन-हफ्ते-साल,
अमुक कह कर,
मूक रह कर,
काट दिए तुमने.

जाने कहाँ-कहाँ से,
चुने जीवन पुष्प.
निहारे बिना ही,
एक क्षण भी,
हममें बाँट दिए तुमने.

सुनो अब्बा!
मिले किसी मस्जिद,
तुम्हारा अमुक खुदा.
तो कहना फ़क्र से,
तुम बेहतर खुदा हो.

40 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय said...

पिताओं के प्रेम तले कितनों को भगवत-आत्मीयता मिली है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

पिता कि सारी जिम्मेदारियों को बखूबी लिखा है ...और सच ही पिता खुदा से भी बड़ा लगता है

रश्मि प्रभा... said...

jiske sajde me maine bhi sar jhukaya hai........
are yah rachna mail to karo mujhe
rasprabha@gmail.com per

vandana gupta said...

वाह! क्या बात कही है।

सुनो अब्बा!
मिले किसी मस्जिद,
तुम्हारा अमुक खुदा.
तो कहना फ़क्र से,
तुम बेहतर खुदा हो.

सच कह दिया …………ज़िन्दगी और पिता के स्नेह दोनो को परिभाषित कर दिया।

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (1/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com

आपका अख्तर खान अकेला said...

duniyaa ka aek kduva sch jise bkhaan krne men sbhi pedhon ki thniyaa kaat kr agr qlm bnaa li jaaye or smundr ko syahi bna daalen tb likhe tb bhi itnaa nhin likha jaa skta jo aapne sirf chnd ginti ke alfaazon men hi saari zindgi kaa sch bhr diya he bhut khub andaaz he mubark ho. kahtar khan akela kota rajsthan

उस्ताद जी said...

7.5/10

अति-पठनीय पोस्ट
आज पहली बार किसी कविता ने
मुझे खामोश कर दिया

प्रतुल वशिष्ठ said...
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प्रतुल वशिष्ठ said...
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उस्ताद जी said...

@ प्रतुल जी भौतिकी के प्रोफेसर की तरह कविता की व्याख्या न करिए, बस मानवीय दृष्टिकोण से ही पढ़िए न.
आपकी तकनीकी व्याख्या तब कहाँ जाती है जब महबूबा की तुलना गुलाब या चाँद से की जाती है :))

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

निशब्द कर दिया आपकी इस कविता ने.....और क्या कहूँ?

अनामिका की सदायें ...... said...

पिता से बढ़ कर किसी का हृदय विशाल नहीं.
माता के बाद पिता ही पूजनीय है खुदा तीसरे नंबर पर ही आयेंगे न.

Avinash Chandra said...

धन्यवाद प्रतुल जी,

सर्वप्रथम धयवाद इसलिए की आपने हमेशा की तरह इतने जतन से पढ़ा, व्याख्या की....विसंगतियाँ पकड़ीं जो अपनी जगह सही हैं, बिलकुल सही.
मुझे संकोच नहीं होगा स्वीकारने में, ऐसा मैं पहले भी कह चुका हूँ.

अब जरा सफाई देने की कोशिश करूँ......

मैं बोलता हूँ पिता को अब्बा-पापा-डैड-बाबूजी......धर्म से परे हैं पिता मेरे, वैसे भी मेरा धर्म नहीं है कोई (मेरा मानना है सिर्फ)


बाकी मेरे बेहतर खुदा (पिता/अब्बा)...किसे बेहतर मानते हैं ये उनकी निजी राय है, मैं अपने खुदा की बंदगी और उसकी राय से नाइत्तेफाकी रखने के लिए आज़ाद हूँ.... खुदा ने इतनी आज़ादी बक्शी है अपने बेटे को.. :)

मैं सौहार्द पर नहीं लिखता...उतना ऊपर उठ नहीं पाया हूँ, आप समझते ही होंगे...

इन सबके ऊपर भी कुछ गलतियाँ हुई हैं, जैसे हिंदी-उर्दू शब्दों का घालमेल...जो मैं अक्सर नहीं करता....पर इसमें संभाल नहीं पाया...
आप जैसे गुणीजन कान खींचते रहेंगे तो आगे से अच्छी होंगी कोशिशें......

आपका आत्मा के तल से आभार!!!

Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत आभार!

@रश्मि मौसी,
पहली फुर्सत में भेजता हूँ. :)


@उस्ताद जी,
आप अपनी गणना के लिए स्वतंत्र है तो किसी और को अपनी व्याख्या करने दें न!
मुझे वैसे भी अतिसुन्दर, विलक्षण, अद्भुत, निःशब्द, वाह, ....... नहीं बटोरने हैं,
मेहनत करके पढने वाले और टिप्पणी करने वाले का ऋणी होता है लिखने वाला.. प्रतुल जी उस धर्म से मेरे गुरु हो गए स्वयमेव, तो आलोचना शिरोधार्य है.....

आभार जो आपने पढ़ा!

@अनामिका दी,

आपका ब्लॉग नहीं खुलता कई दिनों से मुझसे.....कोई दिक्कत है वहाँ?

प्रतुल वशिष्ठ said...
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प्रतुल वशिष्ठ said...
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उस्ताद जी said...

@ प्रतुल जी आपने कहा - "अंक देने में ऐसा रिस्क नहीं होता"
चलिए मुझे मंजूर
कुछ दिन के लिए आप मेरा काम संभाल लीजिये. दिया चुनैती आपको. आईये स्वागत है.
बस अब पीछे न हटियेगा आम हिन्दुस्तानी की तरह जो सिर्फ भौकाल ठेलना जानता है.

Ravi Shankar said...

@ Avi...

आर्य !

ये माना कि आपको भूख नहीं प्रशंसा की…… पर जो जो वाकई स्तब्ध हो जाये वो क्या करे ?

मेरा खुदा तो वाकई ना जाने कितनी मर्तबा अपने खुदा से भिडा होगा मेरी पेशानी पर दुनिया की तमाम खुशियाँ उकेर देने के लिये!पर मेरी तो इतनी भी काबिलियत नहीं कि अपने भाव उन तक प्रेषित कर पाऊँ।

आँखें नम कर दीं ! नमन !

प्रतुल वशिष्ठ said...

..

अविनाश जी
आदरणीय उस्ताद जी मुझसे खफा हो गये.
अपनी जॉब मुझे थमाकर दफा हो गये.
अब आपको दस में से अंक दिए देता हूँ.
अंक देने के बाद इस उस्तादी से हमेशा को इस्तीफा दिए देता हूँ.

सामान्य दृष्टि से :
भाषा : बोधगम्य ............ 1
भाव : सौहार्दपूर्ण ............ 1
कथ्य : दमदार ..............1
प्रयुक्त वस्तु : सामाजिक ....... 1
वर्तनी : ठीकठाक ............ ½ ...... [साईकिल की जगह साइकिल करें]

विशेष दृष्टि से :
भाषा : मिश्रित/ संकर ....... 0
भाव : बनावटी ...............0
कथ्य : खोखला ............. 0
प्रयुक्त वस्तु : अशुद्ध धार्मिक/सामाजिक ........ 0
वर्तनी : अक्षम्य ............. 0
भूलवश हुई वर्तनी की गलतियाँ गलतियाँ नहीं मानी जातीं. लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ है.
और बड़े रचनाकारों से अपेक्षाएँ अधिक होती हैं.

..........

कुल अंक :
4.5 / 10

भविष्य में अंक नहीं दूँगा.
मुझे यह अंक निर्धारण की जॉब नहीं करनी.
कृपया उस्ताद जी अपने इस पद को वापस ग्रहण करें.
मैं चरण पकड़ कर माफी माँगता हूँ.
मैं आइन्दा गुस्ताखी नहीं करूँगा.
उस्ताद उस्ताद होते हैं, चेले चेले
मुझे अपना शरारती शागिर्द जान माफ़ कर दें.
मुझे आलोचना में सुख मिलता है,
बचपन से कमियाँ निकालने के शौक ने इस अवगुण को मेरे भीतर जगह बनाने दी.
इसे ध्यान में रखते हुए मुझे माफ़ कर दीजिये.

..

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अविनाश जी! अरे वाह! साहित्य पर की गई किसी की टिप्पणी को किसी ने भौतिकी की व्याख्या बता दिया और फिर हो गई शुरू गणित की क्लास! हम तो आज तक सही आकलन ही नहीं कर पाए आप्की कविता का.. अतिसुंदर और अद्भुत जैसे शब्द भी लुटाने के योग्य नहीं हम..क्योंकि जिस कविता को पढकर मन भावों से भर जाए उसपर लुटाने को शब्द बौने लगने लगते हैं.
इस कविता के लिए बस यही कहना चाहूँगा कि परमेश्वर को परमपिता कहा जाता है, गॉड को फ़ादर यानि बाप और ख़ुदा को भी मुक़द्दस बाप कहते हैं. गोया हर मजहब ने उस भगवान को पिता माना है. लेकिन आपकी कविता ने जतला दिया कि “वो” पिता नहीं है, “ये” भगवान है! बहुत ख़ूब! (यह दिल से निकला है)

संजय @ मो सम कौन... said...

अविनाश,
कविता में भाव अच्छे लगे।
कमेंट्स के ऊपर तुम्हारे जवाब और भी अच्छे लगे। जानता हूं तुम्हें - keep it up.
शुभकामनायें।

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति,अविनाश जी को बधाई।

Avinash Chandra said...

@प्रतुल जी,
अक्षम्य है यदि कुछ तो वैसा ही सही, श्राप स्वीकार हैं मुझे आपके, निःसंकोच.
किन्तु 'बड़े रचनाकार' की पदवी नहीं लेता मैं. 'रचनाकार' तक की नहीं.... इस पर क्षमा करेंगे.

@संजय जी और सलिल जी,
आभार.

प्रतुल वशिष्ठ said...

..

अविनाश G,

श्राप भी है तुमको वरदान.
लूट लें तो कहते हो दान.
.........
______________
आप निर्धारित नहीं करेंगे आप कैसे रचनाकार हैं. पाठक करेंगे.
आपकी विनम्रता आपकी प्रतिभा से न्याय नहीं करती.
मैंने जब कविता पढ़ी तो केवल अपना कमेन्ट किया, बाद में देखा कि उस्ताद जी ने आपको अंक अच्छे दिए हैं तो
सोचा था कि अपना कमेन्ट डिलिट कर दूँ. फिर सोचा नहीं. अविनाश मेच्योर है.
उस्ताद जी ने अपनी बात किसी आधार पर तो जरूर रखी होगी. वैसे ही मैंने भी कही थी. और आपने प्रतिउत्तर भी अच्छे दिए.
लेकिन बाद में मुझे विवश किया गया कि मैं मूल्य-अंक निर्धारित करूँ. आपके लिये तो मेरे पास एक ही अंक है. वह मैं तभी दे सकता हूँ जब आप साक्षात उपस्थित हों.

आपकी कोपी एक नकली अध्यापक [प्रतुल] ने जाँची जिस पर अध्यापन की कोई डिग्री नहीं है. वह स्वयं बीएड परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ है तो वह क्या आपकी रचना को आँकेगा.

क्षमा चाहता हूँ कि अनजाने ही आपके चाहने वालों के मन में खटास भरने की चेष्टा की.

..

Avinash Chandra said...

प्रतुल जी,

कितनी कठिनाई से तो कोई मिलता है जो कमियाँ गिन कर निकालता है, अपने उदाहरण स्थापित करके कुछ सिखाता है.
आपका आना खुराक है मेरी कविताई के लिए, आपकी टिप्पणी अमूल्य निधि.
शाबाशी ली है आपसे तो डांट ना सुनूँ, यह कहाँ का धर्म हुआ?
और आपको या किसी को भी पूरा अधिकार है मेरा लिखा नहीं पसंद करने, उसकी आलोचना करने का.
तो क्षमा जैसा तो कोई शब्द निकलता ही नहीं यहाँ.....मैं सच में आभारी हूँ आपका.
इससे इतर कोई लोभ नहीं.

अनुपमा पाठक said...

kaha bhi gaya hai...
"pita dharmah pita swargah pita hi parmam tapam!pitri pritimapanne priyante sarvdevta!!"
sundar rachna!

सुज्ञ said...

कविता तो निश्चित ही भावपूर्ण है

मूल्यांकन चर्चा तो सुखप्रद बन पडी।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

इसे कहते हैं एक दमदार और वजनदार कविता।


---------
मन की गति से चलें...
बूझो मेरे भाई, वृक्ष पहेली आई।

Anupama Tripathi said...

पिता से बढ़कर खुदा नहीं -
बहुत भावना प्रधान
सशक्त अभिव्यक्ति -
शुभकामनाएं

Parul kanani said...

antim teen pahre bahut bariki se bahut kuch keh gaye..beautiful!

दिपाली "आब" said...

sach kahun avi..
Ab tak jitna padha tumhe, ye un sabse different hai,
shuru mein kavita acchi hai, lyk is tarha ki kavitaayein aajkal chalan mein hain, maslan bikhre hue se khayal... Fir beech tak aate aate kavita jhoolne lagti hai, kamjor hone lagti hai, aur ant aate aate kavita ne jo hit kiya to padhne wala shock reh jata hai.. Its a beautiful piece of work.. Great job. Bless u

Dorothy said...

एक खूबसूरत, संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

Dorothy said...
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mridula pradhan said...

bemisaal.wah.

सागर said...

जलन, घोर जलन हुई पढ़ कर.. कमबख्त २ साल से अधिक हो गए ऐसे किसी ने कहां पढ़ा और विवेचना और बहस हुई... बहुत खुशनसीब हो दोस्त जो ऐसे पाठक मिले हैं.... आलोचना को बुरा बिलकुल मत मानियेगा... (और आप मान भी नहीं रहे यह देख कर और अच्छा लगा) लिखिए ऐसे ही जबरदस्त .. जितनी जानदार कविता वैसी ही पाठक के कमेंट्स .. जय हो !

आपको पहले भी पढ़ा है, सरसरी तौर पर ... सम्भावना तब भी जागी थी... शुभकामनाएं

अरुण अवध said...

कितना सच लिखा आपने ,
हमारे माता-पिता ही हमारे जीवित ईश्वर हैं,
किसी काल्पनिक ईश्वर की हमें क्या ज़रुरत ..........

अरुण अवध said...
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Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत बहुत आभार!

सागर भाई, विशेष धन्यवाद मूल का ध्यान करने का...यत्न करूँगा की वहीँ मिलूं हमेशा आपको.

वर्तिका said...

:) maa-papa-ghar-gaanv pe to aap humesha hi bahut pyaara likhte hain...

Anonymous said...

;)

wut can i say....hihi

pata hai, dash board ko scroll karte karte dekha ke ye behtar khuda kaise reh gaya mujhse, aakar kavita padhi, to pagal ho gayi, wah bohot khoob, too good, killer, yahi sab chillana chahti thi main bhi....par shayad ye sab aap khoob sun chuke...haina...hihihihi

to meri taraf se bas....

:)

keep smiling