योद्धा का हठ...



हठ बिन केवल तप करने से, 
है कौन भला बलवान बना?
जो शीश लगाए रेणु को, 
वो मनु-पुत्र महिपाल बना.

शलभ-शलभ, ज्योति-वर्ति,
किस-किस की है कितनी कीर्ति?
बिन आँख लड़ाए नित तम से,
है कौन मिहिर उत्ताल बना?

जब पाँव छुए रत्नाकर के,
किष्किन्धा में हा मित्र!, कहा.
उस तक को भला सुना किसने,
था म्लान राम का भाल बना.

सन्नाटे को गुनते-गुनते,
चुपचाप को चुप सुनते-सुनते.
और दुबका पूस की रातों में,
है कौन पुरुष विकराल बना?

नील व्योम और हरित वृंत,
किस दृग को नहीं लुभाते हैं?
किन्तु बिन श्रमस्वेद की बूँदों के,
कब कहो कौन सा ताल बना?

हैं स्नेहिल से शब्दों के जाले,
मधु से मीठे वचनीय प्याले.
किन्तु यूथी वल्लरियों से,
रे सदा ही बस जंजाल बना.

पीत पाँव और स्वर्ण नुपुर,
चन्दन देह, लिपटा दुकूल.
जो ह्रदय इन्ही में रम पाया,
फिर वज्र का कहाँ कपाल बना?

दृग-पुलिनों पर जो रोष न हो,
भृकुटी-भृकुटी आक्रोश न हो.
तो वचन तुम्हारा क्षमा का भी,
था मरा हुआ, बेताल बना.

कल रात गिरा वो किसलय था,
बिन संरक्षण, बिन आलय था.
किन्तु जो रहा घिरा कंकड़,
वो कभी कहाँ भूचाल बना?

जो रण में दंभ दिखाता है,
ले ओज पवन से आता है.
वह शूरवीर वह तेजस्वी,
वही शत्रुहंता, काल बना.

19 टिप्पणियाँ:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अविनाश जी! ऐतिहासिक और पौराणिक बिम्बों से कॉन्ट्रास्ट उठाकर वर्त्तमान पीढी को एक जीवन दर्शन सिखाती कालजयी रचना! साधुवाद!

सु-मन (Suman Kapoor) said...

सच में लग रहा है कि ऐतिहासिक काल में पहुँच गये.........बहुत खूब..

Anonymous said...

अरे वाह कहीं दूर खीच ले गए आप...
बहुत ही बेहतरीन रचना,,...

संजय @ मो सम कौन... said...

अविनाश,
पिछली पोस्ट पर कमेंट कर दिया था लेकिन पूरा नहीं। अब किसी रोज वीर रस पर या रौद्र रस पर कुछ हो जाये, ये लिखते लिखते रह गया था। कसम से।
ये पोस्ट अभी पढ़ी नहीं, सोचा पहले तुम से पूछ लूँ, टैलीपैथी में यकीन है क्या>

संजय @ मो सम कौन... said...

बन्धु, मन नहीं भरा। अतृप्ति भी कितना सुख देती है, है न?
कहीं किसी कमेंट में एक बार कहा था मैंने कि प्रेम मात्र करने वाले या सिर्फ़ शान्ति पाठ करने वाले चरित्रों से ज्यादा पसंद अपने को तापस राम का चरित्र है। सांसारिक सुखों से निस्पृह लेकिन दुष्ट दलन के लिये सदा सन्नद्ध! शरणागत के लिये शरणवत्सल लेकिन शत्रु के लिये काल।
मेरा बहकना वाजिब ही है, इतना खूबसूरत चित्र और ऐसी सुन्दर प्रस्तुति - हठी यौद्धा हो तुम भी, दिल जीत लिया।

प्रवीण पाण्डेय said...

हठ करने से ही प्राप्ति होती है, लक्ष्य की।

उस्ताद जी said...

7/10

पठनीय / स्मरणीय / विलक्षण पोस्ट
वीर रस से ओत-प्रोत लयात्मक कविता
ऐतिहासिक बिम्बों और सुन्दर शब्दों से सजी मौलिक रचना

POOJA... said...

jeetne ka hath to karna hi hoga... shabdon ka upyog, veer ras me samaahit uttam rachna... aisa lekhan yada-kada hi padhne ko milta hai... dhanyawaad...

S.M.Masoom said...

पसंद आया

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

क्षात्र धर्म और पौरुष का गान करती कविता. दिनकर और निराला जैसे एक व्यक्ति में गूंथ दिए गए हों.
ब्लॉग जगत में एक दीप्त नक्षत्र का उदय हुआ है जिससे भाषा सीखी जा सकती है. प्रयोगों पर कहने वाले कहेंगे ...लोगों का काम है कहना. अनुरोध है की अपना काव्य स्वभाव बनाए रखियेगा.

तप की पंक्तियाँ याद आई हैं
जप के स्वर लगा कांपने अम्बर थर थर थर

Majaal said...

ओझ तेज से ओंत प्रोत ,
ये काव्य मानो महाकाल बना !

बहुत खतनाक रूप से भयंकर कविताई.. लिखते रहिये ...

Anonymous said...

dinkar sahab ki yaad aati hai....solid kavita hai...!

maaf karna..itne saare qaabil lekhakon kaviyon ke beech, main kabhi fit na ho sakoon shayad....ek to dhang ke comment dene ki tehzeeb mujhe kabhi nahin aayegi. bas itna samajh lena ke awesome, amazing, beautiful, too good etc....aise hi shabd hote hain mere paas..zada loaded tareef ki kala nahin aati mujhe...to inhi ko kubool karna please ;)

kavita bohot kamaal ki hai...sach...perfect dose for an early morning, its like an energy drink

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जब पाँव छुए रत्नाकर के,
किष्किन्धा में हा मित्र!, कहा.
उस तक को भला सुना किसने,
था म्लान राम का भाल बना.

इन पंक्तियों को पढ़ कर दिनकर जी कि रचना याद आ गयी ...कुरुक्षेत्र में लिखी है उन्होंने ..

दृग-पुलिनों पर जो रोष न हो,
भृकुटी-भृकुटी आक्रोश न हो.
तो वचन तुम्हारा क्षमा का भी,
था मरा हुआ, बेताल बना.

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ...

बिना हठ के या लगन के कोई काम पूर्ण नहीं होता ...बहुत अच्छी प्रस्तुति ....

अरुण चन्द्र रॉय said...

"जो रण में दंभ दिखाता है,
ले ओज पवन से आता है.
वह शूरवीर वह तेजस्वी,
वही शत्रुहंता, काल बना."...दिनकर सी कविता लग रही... परशुराम की प्रतीक्षा की कुछ पन्क्तियां याद आ रही हैं...
"तलवारें सोती जहां बन्द म्यान में
किस्मतें वहां सडती है तह्खानों में
वलिवेदि पर बालिया नथें चढती हैं
सोने की ईंटें, मगर, नही कढ्ती है "
सुन्दर कविता..

Taarkeshwar Giri said...

kaya bat hai, puri veer ras se bhari ye kavit.

ashish said...

वाह वाह , गिरिजेश जी पूर्णतः सहमत .

Ravi Shankar said...

पढा तब था इसे जब कोइ कौमेन्ट नहीं था इस पर… लेकिन तब शब्द नहीं थे कुछ कहने को… लेकिन इतनी प्रतीक्षा के बाद भी इसके लिये उपयुक्त शब्द नहीं जुटा पाया हूँ।

नमन आर्य।

Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत आभार!

@संजय जी,
संभव है टैलीपैथी हुई ही हो :)
@गिरिजेश जी,
प्रयत्न रहेगा सदैव, आप आए आभार.
@साँझ,
चलेगा, सब चलेगा, लिखे शब्द, अनलिखे शब्द...सब :)
@रवि भाई,
शब्द बहुत महत्व नहीं रखते, आपका आना बहुत है.

Rajesh Kumar 'Nachiketa' said...

वास्तव में छायावाद-कालीन दिनकर कि याद आती है भाव के मामले में और प्रसाद कि याद आती है शब्दों के चयन में....
बहुत दिन बाद मज़ा आया कुछ पढ़ के...आह
राजेश नचिकेता
http://swarnakshar.blogspot.com/