मत जलो!
ना रखो रोष-आक्रोश.
सच कहूँ?
नहीं जंचता क्षोभ तुम्हारे,
दीप्त रुक्म ललाट पर.
आओ!
पवन की पालकी पर,
चीर आओ शत वितान.
अगणित पुलकित स्नेह के,
लौटा दें दिये-पाये,
श्वास-मौन-हास-परिहास.
मिलो!
उदीप जलराशि में,
या जलधि के किनारे सही.
उडेल दूँ तुम्हारी,
हर स्वाति की बूँद.
तुम चटका दो मेरे,
पगे प्रेम का घड़ा.
चलो!
महि पूछती रहे,
कहाँ हैं अब वो,
दायें-दायें, बायें-बायें,
जोड़े पाँवों के?
करके अनसुना सब,
बाँट लें स्मृतियाँ.
आम पर लगे बेर,
बेर से आम की बौरें,
बेमेल हैं, काट लें.
किन्तु यदि उसके बाद,
कुछ त्रुटी-पर्व-कल्प,
तक रहूँ मैं निश्चेट.
न रुकना!
ग्लानिहत, कांतिहीन,
आत्मदोषी न बनना.
उत्ताल रखना ललाट,
गुंजायमान ध्वनि,
हर्ष की रेखाएँ हेमाभ.
कोई यदि मिले उस लोक,
और पूछे तो कह सकूँ.
मिहिर से जो प्रदीप्त है,
वो मित्र था मेरा कभी.
21 टिप्पणियाँ:
लिखो !
इसी प्रकार विचार,
कागद पर सर्वदा,
सरल, निर्मल, अकलुषित,
हृदय प्रफुल्लित करता है,
कविता का यह वर्ण ...
बहुत खूब, लिखते रहिये ....
अलग तरह की कविता ..नए शब्द, नए भाव, नए प्रतीक...बहुत सुंदर।
शब्दों का नर्तन सा लगता है आपका लिखना ... लाजवाब ...
bhayia bahut sundar........
गहन विचारों को खूबसूरती से पिरोई हुई एक संवेदनशील रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.
नए भाव और सुंदर शब्द..... अच्छी रचना लिखी अविनाश
वाह एक और बेहतरीन रचना पढने को मिली आज..aapka लेखन मुझे निःशब्द कर देता है | कभी कभी लगता है क्या मैं ऐसा कभी लिख पाउँगा...
मेरे ब्लॉग पर इस बार अग्निपरीक्षा ....
आप फिर आप पूरा दिन सार्थक कर गये।
बहुत नयी और सुंदर रचना
www.deepti09sharma.blogspot.com
umda rachana !!
एक अद्भुत मोनोलॉग... मत जलो, आओ, मिलो, चलो... और अंत में
.
उत्ताल रखना ललाट,
गुंजायमान ध्वनि,
हर्ष की रेखाएँ हेमाभ.
कोई यदि मिले उस लोक,
और पूछे तो कह सकूँ.
मिहिर से जो प्रदीप्त है,
वो मित्र था मेरा कभी.
.
एक अनुरोध , एक ईमानदार बयान.. अविनाश जी! बेहतरीन!!
as usual very strongly written...पर ख़याल बोहोत खूबसूरत है ....अच्छी कविता है
बहुत ही खूबसूरत लिखा है हमेशा की तरह.
agree wid saanjh.. Strongly written beautifully expressed.. Touchy thoughts..
aapki shudh bhasha ki vajah se samay lagta hai samjhne mein..kahin safal rahi kahin koshish jari hai :) par sahitiyak shrestatha jhalakti hai aap mein
tumhari bhasha ki tareef kya karun ... aur bhaav to tumhari hi rachna lagti hai ... behad shandar hai ...
नहीं जंचता क्षोभ तुम्हारे,
दीप्त रुक्म ललाट पर.
खूबसूरत बात ..
.बाँट लें स्मृतियाँ.
आम पर लगे बेर,
बेर से आम की बौरें,
बेमेल हैं, काट लें.
अद्भुत विचार ...बहुत अच्छी प्रस्तुति
पढ़कर एक सुखद अनुभूति हुई, यही तो कविता का देय है !
सॉरी सरजी, लेट हो गया इस बार बहुत ज्यादा। कल रात में भी कमेंट लिख रहा था। अपनी समझ में सोते सोते लिख रहा था, दरअसल में लिखते लिखते सो गया था। हा हा हा।
नायाब, लाजवाब, गतिमान हमेशा की तरह।
@ वो मित्र था मेरा कभी:
यदि मित्र था तो ’था कभी’ नहीं चलेगा, और
था कभी मेरा तो वो मित्र नहीं था।
ये अपना विचार है।
well said, Avinash.
शुभकामनायें।
बहुत सुन्दर रचना ! अंतिम पंक्तियाँ मुग्ध कर देती है !
आभार आप सभी का यहाँ आने के लिए..
@पारुल जी... इतनी मेहनत की आपने, धन्यवाद.
@संजय जी... अव्वल तो "सर जी" मेरा कॉपीराईट है, दूसरे देर वेर नहीं हुई, सब ठीक है..पढ़ा आपने वही बहुत.
और विचार आप ही का सही है, वो तो लोक ही बदल गया तो अब नाते कहाँ रहे, सो मैंने ऐसा लिखा..वैसे दोस्ती लोक-परलोक के पार-अपार है :)
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