तुम्हारे सवर्ण गीत,
जो हैं अतिगुंजित.
धरा-व्योम-क्षितिज,
के पार-अपार.
अनचाहे ही यत्न,
करता हूँ गुनने का.
अपनी तारहीन,
निस्पंद आत्मा से.
प्रिय पुनीत पुष्प,
जो खिलते हैं बस,
तुम्हारे मन के,
पुलक अरण्य में.
काट लेता हूँ नित,
उनसे एक कलम.
मेरे निकुंज में भी,
संभवतः वसंत विराजे.
नैसर्गिक सौंदर्य जिसकी,
परिभाषा लिखी है.
सौम्य शीतलता से,
मुस्कान पर तुम्हारी.
उसकी चोरी के,
चुपचाप प्रयत्नों में.
जाने कितने ऋण,
लिए हैं पवन से.
हिमाद्री हिम से धवल,
मंत्रोच्चार से पवित्र.
तुम्हारे व्याकरण पुंज,
पाणिनि प्रतिष्ठित वाक्य.
दोहराता हूँ अथ,
संवाद संवाद स्वर.
मेरे वाग्जाल भी,
पा सकें मृदु आकार.
किन्तु जब हो,
जाता हूँ अतिदीप्त.
औ समस्त मनुप्रदेश,
करता है जयघोष.
यह मिथ्या पराक्रम,
अंतस में चुभता है.
जैसे प्लावित अनंत से,
अतिशय लावा ईर्ष्या का.
सत जाना जब तुमसे,
अनघ स्पर्श पाया.
कपटबुझा प्रेमहीन मैं,
मात्र दीप ही बन पाया.
समस्त उपक्रम तेज से मैं,
तुम्हे रोकने में रहा अक्षम.
सघन प्रेम में रोम-रोम पगे,
तुम कहीं श्रेष्ठ को शलभ.
27 टिप्पणियाँ:
उसकी चोरी के,
चुपचाप प्रयत्नों में.
जाने कितने ऋण,
लिए हैं पवन से.
बेहतरीन रचना !
अविनाश जी! प्रेम की एक नुतन अभिव्यक्ति... एक कपटयुक्त प्रेमहीन व्यक्ति मात्र दीप ही बन पाता है... अति सुंदर!!
अविनाश जी! प्रेम की एक नुतन अभिव्यक्ति... एक कपटयुक्त प्रेमहीन व्यक्ति मात्र दीप ही बन पाता है... अति सुंदर!!
सशक्त रचना.
शब्द चमत्कार तो हैं ही..इस कविता का भाव पक्ष भी मोहित करता है...
सत जाना जब तुमसे..दीप ही बना।
प्रेम की खूबसूतरत,सच्ची अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
yaar itni tough hindi likhte ho ki dimaag chakra jata hai.. Thoda sa simple krke likho yaaraa...
By the way jitna samajh aayi acchi lagi
सुन्दर परिकल्पना, सुन्दर अभिव्यक्ति।
bahut sundar prem ki abhivyakti ...
behtarin rachna
प्रेम के कुछ ख़ास रंगों से रंगी रचना ......अविनाश बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
aapki hindi to bohot solid hai ;)
par aap bohot subtle likhte hain, generally mujhe itni hindi bohot overpowering lagti hai, im a little on the urdu style ;)
par aapki hindi overpowering nahin hai, bohor sundar hai, gentle hai, at the same time, asardaar hai. and ur imagination aur use pirona...uspar main comment nahin kar sakti. its beyond me..just superb
सुन्दरम शंकरम
बहुत सुन्दर,बहुत खूबसूरती से उकेरे हैं ये प्यार के रंग
1. aapka hindi gyan bahut badhiya hai
2. aapki kavitwa nissandeha acchhi hai
3. kathin shabdon ke istmaal ke baawjood bhawnaon ko prakas karne me koi dikkat nahi hai
4. lekin
5. Hamare jaise agyani vyakti jab padhta hai to samjhne ke liye kafi mashakkat karni padhti hai ... Isliye kabhi kabhar hum bacchon ke liye bhi likh diya kijiye...
anupam..!
अति सुंदर!
उसकी चोरी के,
चुपचाप प्रयत्नों में.
जाने कितने ऋण,
लिए हैं पवन से.
हिमाद्री हिम से धवल,
मंत्रोच्चार से पवित्र.
तुम्हारे व्याकरण पुंज,
पाणिनि प्रतिष्ठित वाक्य.
अविनाश जी आपके वाक्य विन्यास चकित कर देते हैं ....
इतने कठिन शब्दोंको कैसे आप कविता का रूप दे पाते हैं ....
अद्भुत और बेमिसाल .....
नमन है आपकी प्रतिभा को .....!!
nihsandeh.......tum sreshth ho
वाह! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति भावनाओं की...
अति सुन्दर भाव अति सुन्दर शब्द !
सशक्त रचना.
शब्द चमत्कार तो हैं ही..इस कविता का भाव पक्ष भी मोहित करता है...
सत जाना जब तुमसे..दीप ही बना।
प्रेम की खूबसूतरत,सच्ची अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
अविनाश,
अंतिम दो छंद सबसे अच्छे लगे।
शुभकामनाएं।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.............मन को छू गई............
आप सभी का बहुत बहुत आभार!!
@दिपाली..कोशिश करूँगा कि अगली बार से आसान रहे समझना, मुश्किल हुई, कमी मेरी रही होगी. पर आपको बहुत शुक्रिया इसका कि आपने पढ़ा..
@Saanjh... though it's an honor and highly satisfying feeling when I happen to hear such kind words, to be very honest I do not deserve such huge accolades. Hindi achchhi hai ye to nahi kahunga... balki urdu bahut kamjor jarur hai meri. :)
Thanks for the praising gestures, once again!!
@इन्द्रनील जी,
जो पहले तीन बिन्दुओं में आपने कहा उसका कोई अर्थ ही कहाँ जब वो चौथा बिंदु अस्तित्व में आया... मैंने लिखा और आपको समझ नहीं आया या अधिक मशक्कत हुई तो कमी मुझमे ही रही होगी. यातना करूँगा आगे से आपको कुछ सहूलियत रहे.
वैसे कठिन शब्दावली थी क्या?
अज्ञानी/बच्चे जैसे संबोधन हम दोनों के बीच में मेरे लिए ही रहें तो ठीक न होगा? :)
@हरकीरत जी,
उस मिठास तक आने का, उस विन्यास को समझने का आभार करूँ तो कम होगा...धन्यवाद जो आप पढ़ती हैं. इससे अधिक कहने योग्य कहाँ मैं?
@रश्मि मौसी..
माँ वाली नज़रें हमेशा श्रेष्ठता ही देखती आयीं हैं, मान लूँ?? :)
@अरुण जी,
निराशा हुई ये देख के...मुझे वाकई एक भी टिप्पणी नहीं चाहिए..मेरी कविता कोई पढ़े ये इच्छा भी नहीं...गाहे बगाहे कहीं पढने मैं जाता हूँ, वो कोई पूर्वाग्रह भी नहीं.
सो आप ना लिखें तो भी हर्ष ही होगा...पर ऊपर से सीधे copy-paste करके टिप्पणी लिखना मेरी लेखनी का और मेरी दृष्टि में आपका अपमान है, यह ना करें, मेरा अतिविनम्र निवेदन है.
मुझे कोई भी, कैसी भी गिनती नहीं चाहिए..कहीं भी नहीं, कभी भी नहीं.
very nice.
cbjainbigstar.blogspot.com
aap jaise logon ko hamare sanskriti sanrakshan aur sanskar pallavan abhiyan se judna chachiye.
मैं आपकी इस कविता से कैसे relate कर रहा हूँ :
काट लेता हूँ नित,
उनसे एक कलम.
मेरे निकुंज में भी,
संभवतः वसंत विराजे
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यह मिथ्या पराक्रम,
अंतस में चुभता है.
जैसे प्लावित अनंत से,
अतिशय लावा ईर्ष्या का
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कविता का अर्थ हर पाठक का अपना होता है - किसी और से साम्य जरुरी नहीं. ’अच्छी कविता’ और इस तारिफ़ में किसी भी अतीश्योक्ती सुचक शब्द से बच रहा हूँ अन्यथा बहुत कुछ लिख जाता.
न न ऐसी रचना ऐसे ही शब्दों में होनी चाहिए।
मंत्रमुग्ध हूँ।
जयशंकर प्रसाद का पाठक बात को समझ सकता है आर्य!
अनुमति दो तो इस पर एक मीमांसा लिखूँ? समय सीमा कुछ नहीं। आलसी हूँ न।
...
तूने तो लुभा लिया रे!
धन्यवाद आप सभी का.
@गिरिजेश जी,
मैंने लिख दिया तो अब यह कविता जहाँ आएगी-जायेगी, मेरे नाम के साथ आएगी...इससे अधिक मेरा अधिकारक्षेत्र नहीं.
बाकी पाठक इसे कहाँ कैसे उपयोग में लाते हैं, मैं कौन होता हूँ रोकने वाला??...स्वतंत्र हैं आप!!
आभार, इतना समय देने का.
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