गतिमान द्रव्य...



तपती दोपहरी की,
जलती रेत में.
सूखते कंठ और,
टूटते घुटने.
जब किसी,
रट्टू तोते की मानिंद.
होते हैं,
देने वाले जवाब.

ममतामयी एक बूँद,
मंदाकिनी सी,
निकलती है लटों से.
और चुह्चुहाया पसीना,
लहलहा देता है,
नवश्वास के पुष्प.

भृकुटियों पर उग आए,
उस संतोष के आगे,
थर्रा जाता है.
एक क्षण को,
दबंग जेठ भी.

पाताल तक सूख चुकी,
बनास के थार में,
कंकडों-पत्थरों के बीच.
जो टप से,
गिर जाती है,
एक स्वाति की बूँद.
तुमसे मिलती आँखों से.
तो मानों हिलोरें,
ले उठते हैं दोनों,
हिंद-प्रशान्त एक साथ.

ठिठुरते पूस के साथ,
सकुचाये चिल्लरों में.
जब लगता है अब,
सब जम जाएगा.
निस्पृह-निस्पंद अवशेष,
खोदेगा भविष्य.

नेपथ्य से उसी क्षण,
गरज उठता है,
अतिउष्ण हो गोत्र.
मानो लील लेगा,
शीत का कण-कण.

जीवन को जीवंत और,
उत्ताल रखने वाले,
हर एक द्रव्य,
तुमसे ही प्राप्त हैं.

हर शिरा रोम में,
परमपूज्य तुम,
आदि से अंत तक,
गतिमान हो जननी.

34 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

उम्दा भाव!

संजय भास्‍कर said...

अविनाश जी जी, बहुत सुन्दर और कोमल भावनाओं को बहुत ही खूबसूरत शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने । बेहतरीन रचना। नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकारें।----संजय भास्कर

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!, राजभाषा हिन्दी पर कहानी ऐसे बनी

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

अति सुन्दर रचना !

Anonymous said...

बहुत ही खुबसूरत रचना ...बेहतरीन शब्दों का संयोजन...अविनाश जी, कभी इधर भी पधारें..... सुनहरी यादें ....

ZEAL said...

sundar rachna.

अरुण अवध said...

जगतमाता के चरणों में अद्भुत भाव सुमन -सी
रचना के लिए बधाई

संजय @ मो सम कौन... said...

अविनाश,
हमेशा की तरह गतिमान शब्द, और नवरात्रों में जननी को यह भेंट, बहुत खूबसूरत।
शुभकामनाएं।

निर्मला कपिला said...

अति सुन्दर । नवरात्र पर्व पर शुभकामनायें।

दिगम्बर नासवा said...

नाव रात्रि की शुभकमनाएँ ... सुंदर शब्दों से सजी स्पष्ट रचना ...

प्रतुल वशिष्ठ said...
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प्रतुल वशिष्ठ said...
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प्रतुल वशिष्ठ said...

तपती दोपहरी की,
जलती रेत में.
सूखते कंठ और,
टूटते घुटने.
जब किसी,
रट्टू तोते की मानिंद.
होते हैं,
देने वाले जवाब.

@ ये जवाब होते हैं अक्सर कुछ इस तरह :
उफ़! बहुत गरमी है./ गरमी बहुत है आज./ पसीना रुकने का नाम ही नहीं लेता.
आज हवा भी तो नहीं चल रही. मार डाला इस गरमी ने.

......... सुन्दर चित्रण.

ममतामयी एक बूँद,
मंदाकिनी सी,
निकलती है लटों से.
और चुह्चुहाया पसीना,
लहलहा देता है,
नवश्वास के पुष्प.

@ और ऐसे में अपना ही चुहचुहाता पसीना ठंडक देता सा लगता है.
जैसे तरस खाकर शिव के केशों से ममतामयी गंगा प्रकट हो गयी हो.
बेशक एक बूँद ही सही.
एक बूँद से ही थकान से मुरझाते श्वास के पुष्पों को पुनर्जीवन मिल जाता है.

.............. वाह री कवि कल्पना.

भृकुटियों पर उग आए,
उस संतोष के आगे,
थर्रा जाता है.
एक क्षण को,
दबंग जेठ भी.

@ इन विषम परिस्थितियों में भृकुटियों पर संतोष की झलक देख आततायी [दबंग] जेठ भी थर्रा उठता है. एक क्षण को ही सही.
मित्र अविनाश, आपने यहाँ संतोष को किसी उपमान से बाँधना उपयुक्त नहीं समझा. जैसे इससे पहले के चरण में आपने ममतामयी बूँद को मंदाकिनी की उपमा दी.
कोशिश तो अवश्य की होगी आपने? ...... मुझे लगता है.

............ कवि की ठोस कल्पना.

पाताल तक सूख चुकी,
बनास के थार में,
कंकडों-पत्थरों के बीच.
जो टप से,
गिर जाती है,
एक स्वाति की बूँद.
तुमसे मिलती आँखों से.
तो मानों हिलोरें,
ले उठते हैं दोनों,
हिंद-प्रशान्त एक साथ.


@ एक सुखद स्मृति सहारा होता ही है ऐसे में जब पाताल तक सूख चुकी हो संवेदनाएँ.
यहाँ आपका बनास के थार से क्या तात्पर्य है?
क्या जड़ी-बूटियों की थाली या फिर हरे-भरे वन प्रदेश के मध्य थार (सूखा) भाग ?
और ऐसे में तुम्हारी आँखों से टपकती पीड़ा की बूँद (आँसू भी स्वाति नक्षत्र की मुझे अनुभूति कराती है.
तो मेरे भीतर उमंगों के महासागर हिलोरें लेने लग जाते हैं.

............... वाह रे कवि, पीड़ा में आनंद के दर्शन विरले लोग करते हैं. पीड़ा में आनंद भोगना सिद्धावस्था है.

ठिठुरते पूस के साथ,
सकुचाये चिल्लरों में.
जब लगता है अब,
सब जम जाएगा.
निस्पृह-निस्पंद अवशेष,
खोदेगा भविष्य.

@ एक अन्य विषम स्थिति :
जब पूस की ठिठुरन में तन पर पड़े चिथड़े भी सकुचा रहे हों कि क्या ढकें? ऐसे में जब लगने लगता है कि है अब जीवन पर विराम लगेगा, करने लगता है फिर एक कोशिश वह चिल्लर [चीथड़ा] ही जिसका होना न होना बराबर है, भविष्य तक पहुँचने की.

सकुशल क्या वह पहुँच पायेगा?

.......... कवि! तुम्हारी कल्पनाएँ शब्द-चित्र गढ़ती हैं.


नेपथ्य से उसी क्षण,
गरज उठता है,
अतिउष्ण हो गोत्र.
मानो लील लेगा,
शीत का कण-कण.

@ यह भी एक सत्य है कि समूह अथवा समान जाति के बन्धु-बांधवों की मौजूदगी मात्र से गर्माहट आ जाती है.
शरीरों की गर्माहट ही नहीं संबंधों की गरमी भी शीत का कण-कण सोख लेती है.

मैंने सिमटकर और लिपटकर सोते देखा है कुछ गरीब लोगों को ठण्ड के दिनों में. यह भी तो तरीका है ठण्ड से बचने का.

वही बात आप अपने शब्दों में कहना चाह रहे हैं........... स्यात.


जीवन को जीवंत और,
उत्ताल रखने वाले,
हर एक द्रव्य,
तुमसे ही प्राप्त हैं.

हर शिरा रोम में,
परमपूज्य तुम,
आदि से अंत तक,
गतिमान हो जननी.


@ जननी के विविध रूप आपने हर कहीं देखे और हमें दिखाये :
पसीने की ममतामयी बूँद में शिव-गंगा [मंदाकिनी]; दर्द से उमठी भृकुटियों में संतोष के दर्शन; आँसू में स्वाति नक्षत्र का वर्षण-सन्देश; और जननी-पुत्रों का पारस्परिक सहयोग.
आदि से अंत तक उस परम शक्ति के दर्शन करना ......... अदभुत नेत्र हैं कवि तुम्हारे. इन नेत्रों को तो पूरा जीवन पूजा-अर्चन करके भी नहीं पाया जा सकता.
मुझे तो अचंभित कर दिया ऐसे काव्य ने.

.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

हर शिरा रोम में,
परमपूज्य तुम,
आदि से अंत तक,
गतिमान हो जननी

हर विषम स्थिति में माँ का अंचल हर प्रर्दा को हर लेता है ..सुन्दर बिम्ब और उपमानो से सुसज्जित रचना ...

Anamikaghatak said...

शब्दो का चयन अति सुन्दर ……………।मात्रित्व बहुत सुन्दरता से सींचा गया है।इस कविता में………॥बढिया प्रस्तुति

महेन्‍द्र वर्मा said...

अद्भुत और सशक्त रचना...भावों की उच्चता को आपने ने प्रभावशाली शब्दों में रूपांतरित किया है।

अनामिका की सदायें ...... said...

सुंदर शब्दों से सजी कोमल भावों से भरी मोती जैसी चमकती नूर की बूँद के तरह मन में समाती सुंदर अति सुंदर रचना.

deepti sharma said...

बहुत ही सुन्दर रचना भावनाओ का मार्मिक चित्रण .......

स्वप्निल तिवारी said...

Avi
pranam bas is rachna ko...tum mere shabdon se aage likhte ho..main kuch bhi kahunga wah tumhari rachna ke liye kam hi hoga...
Navraat kaise kat rahi hai ?

monali said...

beautiful poem n very effective vocabulary...

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़ी सुन्दर प्रस्तुति। सब ही उससे ही गति पाते हैं।

vandana gupta said...

माँ के स्नेहमयी आँचल की छाँव इतनी ही सुखद होती है।

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

इस कविता की कुआलिफिकेशन: पी एच डी....
और मेरी: एम बी ए!
और क्या कहूं?
आशीष
--
प्रायश्चित

वाणी गीत said...

आदि से अंत तक गतिमान हो जननी ...
सही ...!

Anonymous said...

अफ़सोस है मैं यहाँ पहले नहीं लिख पायी. पढ़ा कई बार पर comments load होने मैं कुछ तकलीफ थी...

बोहोत ही अच्छा लिखा है आपने. बोहोत subtlety के साथ बड़ी गहरी बातें हैं...pleasure reading u :)

दिपाली "आब" said...

brilliant..

Dorothy said...

बेहद खूबसूरत रचना.
आभार.
सादर डोरोथी.

Anupama Tripathi said...

बहुत बार पढ़ने के बाद अब
प्रतिक्रिया लिख रही हूँ -
यद्यपि हर बार वहीप्रतिक्रिया है -
बहुत सुंदर -भावपूर्ण उच्च कोटि की रचना -
शुभकामनाएं .

sandhyagupta said...

दशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!

Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत बहुत आभार!

@आशीष... साहब, अनगढ़ हैं शब्द मेरे, कुछ भी विशेष नहीं :)
@साँझ... अफ़सोस ना करिए, ये लिखना जरुरी नहीं.. जो आप लिखती हैं वो काफ़ी है :)
@प्रतुल जी, ना तो कुछ कहने योग्य गुणी हूँ, ना ही शब्दों का इतना धनी कि आपकी प्रशंशा के बाद कुछ कह सकूँ.
बनास के थार यानि हरे-भरे वन प्रदेश के मध्य थार (सूखा) भाग ही समझाना चाहा है मैंने...
संतोष परम के बहुत निकट है, अतः उसे उपमान में बाँधने का साहस नहीं कर सका...

बाकी आपने वो पढ़ा जो मैंने लिखा...नेत्र ज्योतिर्मय हुए.

फिर से सभी को धन्यवाद!

शोभा said...

बहुत सुन्दर लिखा है, आभार।

mridula pradhan said...

bahut achchi lagi.

प्रशान्त said...

अच्छी कविता - और इन फ़ूलों को टपकने से रोकता ही रह गया.

Avinash Chandra said...

धन्यवाद आप सभी का.