एक दिन!
एक दिन मैं भी बैठूँगा,
इसी पथ अपलक.
करूँगा मैं भी प्रतीक्षा,
खड़ा ले पाँगुर गुच्छ,
साष्टांग, हो दंडवत.
बाँधूँगा केसरिया फेरी,
रखूँगा हाथ पर धूप,
निष्कंप, जड़-यथावत.
सभी की भांति,
मैं भी छूऊँगा सीधा,
हल्दी-गोंद-कंद-अक्षत.
करूँगा मैं भी परिक्रमा,
पीपल वटवृक्ष की,
रखूँगा आस्था से हर व्रत.
टुहुक-टुहुक मैं भी,
करूँगा स्वरीय प्रेम,
जब गाएगी मधुर पिक.
नत होऊँगा श्रद्धावश,
जब रक्तिम होगा दिगंत,
और मिहिर बनेगा चरक.
एक दिन!
एक दिन मैं भी,
छोड़ दूँगा हर रण.
धोऊँगा मैं भी,
धमनियों को गंगाजल से,
रोऊँगा शायद बिलख.
शीश नवाए माँगूंगा,
भिक्षा में क्षमा सबसे,
धरा-प्रकृति-शिख-नख.
एक दिन!
एक दिन सौंप दूँगा,
तुम्हारा ही छोड़ा,
तुमको ही धन.
ले जाओ, सिखाओ,
धर्म, दया, क्षमा,
दिपदिपाओ स्वर्ण-रजत.
उतार कर कवच,
सह लूँगा कृपाण.
बहा दूँगा गोत्र अपना,
मूक, निर्विवाद, निष्कपट.
किन्तु एक दिन,
सदाशयता के साथ,
ऊँचा भाल किये,
लेने अपने राहुल को,
सचमुच तुम आओगे?
वचन दो गौतम!!!
मेरे लिए अब तक,
तुम बुद्ध नहीं हुए.
25 टिप्पणियाँ:
अच्छी प्रस्तुति
so nice..keep it up :)
WAAHH..... KYA BAAT HAI...
AWESOME...
behtareen panktiyon se saji rachna....
keep writing....
aapko apne blog par dekhe kaafi din huye...
samay nikalkar jaroor aayein.....
तरलतम प्रवाह शब्दों का, अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..............
किन्तु एक दिन,
’सदायशता ’
के साथ,
ऊँचा भाल किये,
लेने अपने राहुल को,
सचमुच तुम आओगे?
आशा नहीं टूटती......
हमेशा की तरह नदी का बहाव है पंक्तियों में, बहा ले जाता है शब्द-प्रवाह।
शुभकामनायें।
पहली बार आई हूँ यहाँ..
बहुत कुछ पाई हूँ यहाँ..
आपकी कविताओं को..
पहली बार ही देखा है ..
पर सच में..
"माँ की साँसों का लेखा है" ..
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
साहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
Waah,बहुत सुन्दर रचना है जी 1
एक दिन!
एक दिन सौंप दूँगा,
तुम्हारा ही छोड़ा,
तुमको ही धन.......
बहुत सुन्दर रचना ...बधाई
मेरे लिए अब तक, तुम बुद्ध नहीं हुए.
@ ऎसी दृष्टि केवल महाकवि के पास हुआ करती है जो महापुरुषों के चरित्र में स्याह चिह्न तलाश लें.
मेरे लिए अब तक, तुम बुद्ध नहीं हुए.
कर्म प्रभाव प्रकाशित करती हुई -
बहुत सुंदर रचना -
बधाई के पात्र हो -
shabash beta
उत्कृष्ट रचना।
..बधाई।
bahut achhi rachna
badhaye
अच्छी रचना है भाई , शिल्प को थोड़ा और माँजना होगा ।
अविनाश जी ,
अनुभूति की गहराई मन को मुग्ध कर रही है.
बहुत सुन्दर .
आप सभी का ह्रदय से आभार!
टंकण की गलती थी, देखा ही नहीं... धन्यवाद संजय जी. :)
आप सभी से क्षमा.
बहुत ही सुन्दर शब्द चयन ..अच्छी प्रस्तुति
hmmm....
anant mein le gayi aapki yeh rachnaa....
:)
thank u
सुंदर कविता है भाई...सुंदर भाव के साथ..हालाँकि पूर्वार्ध मे थोड़ा सा रिपीटेशन लगा...मगर सांसरिकता की अध्यात्मिकता से जद्दोजहद गौतम और यशोधरा के बहाने बहुत गहराई से सामने रखी है आपने...ग़ालिब का शेर याद आता है..काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे वाला..
..बधाई है!
शुक्रिया आपका अपूर्व
Post a Comment