शेष संवाद...



मैं नीलम मेघ नहीं नव्या,
जो तुम पर झम-झम कर छाऊँ.
श्वेत-शुष्क सा फाहा हूँ,
नभ का किंचित अवशेष कोई.

कोई नव लतिका का गात नहीं,
कहूँ प्रिय और प्रणय स्पर्श पाऊँ.
बस फुनगी का एक किसलय हूँ,
इससे ना तनिक विशेष कोई.

नंदन वन का मैं अलि नहीं,
जो गुंजू, गीत मृदु गाऊँ.
मैं हिम-तुषार की पीड़ा हूँ,
ना सीपी का सन्देश कोई.

ना पीत पुष्प मैं यूथी का,
जो दूँ सुगंध, झर-झर जाऊँ.
हूँ ठूँठ किसी एक बीहड़ का,
पर रखता नहीं हूँ क्लेश कोई.

युग युग का स्नेह छलक जाए,
मैं सौगंधों से धुल जाऊँ.
ऐसा तो कोई प्रमेय न था,
था स्नेह का एक निमेष कोई.

स्निग्ध शांत या हहर-हहर,
संदीप वायु सम बह जाऊँ.
निश्चय ही स्नेह नहीं रखना,
ना रखना किन्तु द्वेष कोई.

हूँ बलि नहीं, ना शिवि हूँ मैं,
जो तारक माँगो नभ लाऊँ.
हाँ कुछ ज्योति दे पाऊँगा,
ले दीपक जैसा भेष कोई.

जो मैं कपूर की गोटी हूँ,
है अतिसंभव मैं घुल जाऊँ.
किन्तु मेरे ना होने पर भी,
संवाद रहेगा शेष कोई.

16 टिप्पणियाँ:

Parul kanani said...

avinaash ji ...aapki hindi to bahut lajawab hai..hats off!

रश्मि प्रभा... said...

mann ka shesh samvaad......waah

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जो मैं कपूर की गोटी हूँ,
है अतिसंभव मैं घुल जाऊँ.
किन्तु मेरे ना होने पर भी,
संवाद रहेगा शेष कोई.

बहुत सुन्दर .भावों को उच्चस्तरीय शब्दों से बुना है ..

संजय @ मो सम कौन... said...

"हूँ बलि नहीं, ना शिवी हूँ मैं,
जो तारक माँगो नभ लाऊँ.
हाँ कुछ ज्योति दे पाऊँगा,
ले दीपक जैसा भेष कोई."
अविनाश, किसी का कुछ किसी के लिये बहुत कुछ हो सकता है। मात्रा नहीं भाव महत्वपूर्ण हैं।
तुम्हारी कलम एक लय पकड़ती है तो और कुछ नहीं याद रहता, उस समय।
शुभकामनायें।

रोहित said...

bhaiya..bahut din huye,samay hi nahi mila;
aaj itne dino baad phir aapko padha,
waise to mujhe itni samajh nahi ki kuch tika-tippani karu
par haan aapke kavitaao se n sirf sikhta hu balki prerna bhi milta rhta hai...
kavita ki behtarin shaily wa samvad jo in shabdo ke madhyam se mere dil tak pahuche hai uske liye dhanywaad!

राजभाषा हिंदी said...

राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे

भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्‍चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय

हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें

Anonymous said...

bahut khub...itni gahan hindi ka prayog....
waah.....

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रेम निर्झर बन झर झर बहता रहा और हम खड़े भीगते रहे। आनन्द आ गया, बस।

रचना दीक्षित said...

जो मैं कपूर की गोटी हूँ,
है अतिसंभव मैं घुल जाऊँ.
किन्तु मेरे ना होने पर भी,
संवाद रहेगा शेष कोई.
बहुत सुन्दर

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर रचना है.....
पर मुझे तुम्हारी हिंदी भाषा के उत्कृष्ट शाब्दिक चयन ने बहुत प्रभावित किया ....
ऐसे ही लिखते रहो ...
शुभकामनाये।

अरुण चन्द्र रॉय said...

अविनाश भाई आपने अंतिम पंक्तियों में तो आपने दिल ही क्या अत्त्मा भी रख दिया है.. बहुत सुंदर !

deepti sharma said...

bahut achha likha h aapne
or mene blog mai aane ko sukiya
yuhi aate rahiye
or mapna margadarsan dete rahiye
dhanyvd
deepti sharma

स्वप्निल तिवारी said...

itne din baad aa paya main avi...aur aana meeetha ho gaya ...kya kavita hai ,,kya lay hai ,...aur khud kee paribhasha dete hue khud ko nakarna..waah

Avinash Chandra said...

बहुत आभार आप सबका...

प्रतिभा सक्सेना said...

अविनाश जी ,
कविता पढ़ी, कुछ कहना संभव नहीं रहा.
मन उसी में डूब गया .

Avinash Chandra said...

आभार