अमुक तारीख को,
भरनी है फीस.
लानी हैं चप्पलें,
नई एक कमीज.
अमुक इंसान से,
पूछना है कहीं,
मिल रही हो साइकिल,
कम दाम में.
अमुक स्कूल जा,
करना है पता.
छठवीं का फॉर्म,
कब निकलता है?
अमुक सड़क से हो,
जाना है घर.
व्याकरण पढ़ाने को,
वक़्त बचता है.
अमुक दुकान से,
खरीदने हैं पटाखें.
परिचित है अहमद,
अच्छे पटाखे देगा.
अमुक दुकान से,
खरीदने हैं लड्डू.
चश्मा फिर कभी,
आज दिवाली है.
असीम स्नेह में,
ऐसे कितने ही,
दिन-हफ्ते-साल,
अमुक कह कर,
मूक रह कर,
काट दिए तुमने.
जाने कहाँ-कहाँ से,
चुने जीवन पुष्प.
निहारे बिना ही,
एक क्षण भी,
हममें बाँट दिए तुमने.
सुनो अब्बा!
मिले किसी मस्जिद,
तुम्हारा अमुक खुदा.
तो कहना फ़क्र से,
तुम बेहतर खुदा हो.
हठ बिन केवल तप करने से,
है कौन भला बलवान बना?
जो शीश लगाए रेणु को,
वो मनु-पुत्र महिपाल बना.
शलभ-शलभ, ज्योति-वर्ति,
किस-किस की है कितनी कीर्ति?
बिन आँख लड़ाए नित तम से,
है कौन मिहिर उत्ताल बना?
जब पाँव छुए रत्नाकर के,
किष्किन्धा में हा मित्र!, कहा.
उस तक को भला सुना किसने,
था म्लान राम का भाल बना.
सन्नाटे को गुनते-गुनते,
चुपचाप को चुप सुनते-सुनते.
और दुबका पूस की रातों में,
है कौन पुरुष विकराल बना?
नील व्योम और हरित वृंत,
किस दृग को नहीं लुभाते हैं?
किन्तु बिन श्रमस्वेद की बूँदों के,
कब कहो कौन सा ताल बना?
हैं स्नेहिल से शब्दों के जाले,
मधु से मीठे वचनीय प्याले.
किन्तु यूथी वल्लरियों से,
रे सदा ही बस जंजाल बना.
पीत पाँव और स्वर्ण नुपुर,
चन्दन देह, लिपटा दुकूल.
जो ह्रदय इन्ही में रम पाया,
फिर वज्र का कहाँ कपाल बना?
दृग-पुलिनों पर जो रोष न हो,
भृकुटी-भृकुटी आक्रोश न हो.
तो वचन तुम्हारा क्षमा का भी,
था मरा हुआ, बेताल बना.
कल रात गिरा वो किसलय था,
बिन संरक्षण, बिन आलय था.
किन्तु जो रहा घिरा कंकड़,
वो कभी कहाँ भूचाल बना?
जो रण में दंभ दिखाता है,
ले ओज पवन से आता है.
वह शूरवीर वह तेजस्वी,
वही शत्रुहंता, काल बना.
मत जलो!
ना रखो रोष-आक्रोश.
सच कहूँ?
नहीं जंचता क्षोभ तुम्हारे,
दीप्त रुक्म ललाट पर.
आओ!
पवन की पालकी पर,
चीर आओ शत वितान.
अगणित पुलकित स्नेह के,
लौटा दें दिये-पाये,
श्वास-मौन-हास-परिहास.
मिलो!
उदीप जलराशि में,
या जलधि के किनारे सही.
उडेल दूँ तुम्हारी,
हर स्वाति की बूँद.
तुम चटका दो मेरे,
पगे प्रेम का घड़ा.
चलो!
महि पूछती रहे,
कहाँ हैं अब वो,
दायें-दायें, बायें-बायें,
जोड़े पाँवों के?
करके अनसुना सब,
बाँट लें स्मृतियाँ.
आम पर लगे बेर,
बेर से आम की बौरें,
बेमेल हैं, काट लें.
किन्तु यदि उसके बाद,
कुछ त्रुटी-पर्व-कल्प,
तक रहूँ मैं निश्चेट.
न रुकना!
ग्लानिहत, कांतिहीन,
आत्मदोषी न बनना.
उत्ताल रखना ललाट,
गुंजायमान ध्वनि,
हर्ष की रेखाएँ हेमाभ.
कोई यदि मिले उस लोक,
और पूछे तो कह सकूँ.
मिहिर से जो प्रदीप्त है,
वो मित्र था मेरा कभी.
चुप नहीं जिन्दगी...
तुम्हे छू कर जो,
हो गयी थी मुकम्मल.
आजकल मुझसे,
हर एक दिन का,
हिसाब मांगती है.
जिन्दगी फिर भी,
चुप तो नहीं.
अव्वल...
नसीब-तमीज-हुनर,
से झगड़ कर.
वो हाशिये पर,
लिखती है ऱोज,
मेरी जिन्दगी.
बगैर सफाई के,
नम्बरों भी,
अव्वल है अम्मा.
जो रुकती जिन्दगी...
रुक जाती तो,
एक बारगी मुड़ के,
देख लेता तुम्हे.
या करता इन्तजार,
तुम्हारे आ जाने का.
जिन्दगी में कमबख्त जिन्दगी,
रुकती क्यूँ नहीं?
उस पार जिन्दगी...
अपनी-अपनी लकीरों से,
घिरे अजनबी शख्स.
एक से दिखते,
महसूसते होंगे.
और सोचते होंगे,
खुशनसीब है,
उस पार जिन्दगी.
कलम..
तुम्हारे बारे में लिख देना,
या तुम्हारा छू लेना इसे.
दौड़ जाता है रगों में इसकी.
जिन्दगी काश मेरी भी,
इतनी ही आसान होती.
कैद जिन्दगी...
वो चुनती है रोज़,
गुलमोहर की पंखुड़ियाँ.
मैं भींचता जाता हूँ,
खुशबू छुपाने की,
मुसलसल कवायद में.
घुटते-घुटते ही,
घुल जाती है जिन्दगी.
जिन्दगी तारों की...
टिमटिमाते तारों में जरुर,
जिन्दगी होती होगी अम्मा.
दिन-हफ़्तों में गोया,
रूठ जाया करती है.
बदल दें...
मेरे लिए देखते सपने,
बुनते-बनाते रास्ते,
जो खप गई,
तुम्हारी पूरी की पूरी.
आओ अब्बू अब वो,
जिन्दगी बदल लें.
तुम्हे छू कर जो,
हो गयी थी मुकम्मल.
आजकल मुझसे,
हर एक दिन का,
हिसाब मांगती है.
जिन्दगी फिर भी,
चुप तो नहीं.
अव्वल...
नसीब-तमीज-हुनर,
से झगड़ कर.
वो हाशिये पर,
लिखती है ऱोज,
मेरी जिन्दगी.
बगैर सफाई के,
नम्बरों भी,
अव्वल है अम्मा.
जो रुकती जिन्दगी...
रुक जाती तो,
एक बारगी मुड़ के,
देख लेता तुम्हे.
या करता इन्तजार,
तुम्हारे आ जाने का.
जिन्दगी में कमबख्त जिन्दगी,
रुकती क्यूँ नहीं?
उस पार जिन्दगी...
अपनी-अपनी लकीरों से,
घिरे अजनबी शख्स.
एक से दिखते,
महसूसते होंगे.
और सोचते होंगे,
खुशनसीब है,
उस पार जिन्दगी.
कलम..
तुम्हारे बारे में लिख देना,
या तुम्हारा छू लेना इसे.
दौड़ जाता है रगों में इसकी.
जिन्दगी काश मेरी भी,
इतनी ही आसान होती.
कैद जिन्दगी...
वो चुनती है रोज़,
गुलमोहर की पंखुड़ियाँ.
मैं भींचता जाता हूँ,
खुशबू छुपाने की,
मुसलसल कवायद में.
घुटते-घुटते ही,
घुल जाती है जिन्दगी.
जिन्दगी तारों की...
टिमटिमाते तारों में जरुर,
जिन्दगी होती होगी अम्मा.
दिन-हफ़्तों में गोया,
रूठ जाया करती है.
बदल दें...
मेरे लिए देखते सपने,
बुनते-बनाते रास्ते,
जो खप गई,
तुम्हारी पूरी की पूरी.
आओ अब्बू अब वो,
जिन्दगी बदल लें.
तुम्हारे सवर्ण गीत,
जो हैं अतिगुंजित.
धरा-व्योम-क्षितिज,
के पार-अपार.
अनचाहे ही यत्न,
करता हूँ गुनने का.
अपनी तारहीन,
निस्पंद आत्मा से.
प्रिय पुनीत पुष्प,
जो खिलते हैं बस,
तुम्हारे मन के,
पुलक अरण्य में.
काट लेता हूँ नित,
उनसे एक कलम.
मेरे निकुंज में भी,
संभवतः वसंत विराजे.
नैसर्गिक सौंदर्य जिसकी,
परिभाषा लिखी है.
सौम्य शीतलता से,
मुस्कान पर तुम्हारी.
उसकी चोरी के,
चुपचाप प्रयत्नों में.
जाने कितने ऋण,
लिए हैं पवन से.
हिमाद्री हिम से धवल,
मंत्रोच्चार से पवित्र.
तुम्हारे व्याकरण पुंज,
पाणिनि प्रतिष्ठित वाक्य.
दोहराता हूँ अथ,
संवाद संवाद स्वर.
मेरे वाग्जाल भी,
पा सकें मृदु आकार.
किन्तु जब हो,
जाता हूँ अतिदीप्त.
औ समस्त मनुप्रदेश,
करता है जयघोष.
यह मिथ्या पराक्रम,
अंतस में चुभता है.
जैसे प्लावित अनंत से,
अतिशय लावा ईर्ष्या का.
सत जाना जब तुमसे,
अनघ स्पर्श पाया.
कपटबुझा प्रेमहीन मैं,
मात्र दीप ही बन पाया.
समस्त उपक्रम तेज से मैं,
तुम्हे रोकने में रहा अक्षम.
सघन प्रेम में रोम-रोम पगे,
तुम कहीं श्रेष्ठ को शलभ.
तपती दोपहरी की,
जलती रेत में.
सूखते कंठ और,
टूटते घुटने.
जब किसी,
रट्टू तोते की मानिंद.
होते हैं,
देने वाले जवाब.
ममतामयी एक बूँद,
मंदाकिनी सी,
निकलती है लटों से.
और चुह्चुहाया पसीना,
लहलहा देता है,
नवश्वास के पुष्प.
भृकुटियों पर उग आए,
उस संतोष के आगे,
थर्रा जाता है.
एक क्षण को,
दबंग जेठ भी.
पाताल तक सूख चुकी,
बनास के थार में,
कंकडों-पत्थरों के बीच.
जो टप से,
गिर जाती है,
एक स्वाति की बूँद.
तुमसे मिलती आँखों से.
तो मानों हिलोरें,
ले उठते हैं दोनों,
हिंद-प्रशान्त एक साथ.
ठिठुरते पूस के साथ,
सकुचाये चिल्लरों में.
जब लगता है अब,
सब जम जाएगा.
निस्पृह-निस्पंद अवशेष,
खोदेगा भविष्य.
नेपथ्य से उसी क्षण,
गरज उठता है,
अतिउष्ण हो गोत्र.
मानो लील लेगा,
शीत का कण-कण.
जीवन को जीवंत और,
उत्ताल रखने वाले,
हर एक द्रव्य,
तुमसे ही प्राप्त हैं.
हर शिरा रोम में,
परमपूज्य तुम,
आदि से अंत तक,
गतिमान हो जननी.
तुम सा मैं...
झपकती पलकों से,
रोज़ उतरता जाता है,
तुम्हारा अक्स मेरे भीतर.
दोष नहीं थोड़ा भी,
मेरे घर के आईनों का.
आँख आईने की...
बहा बाजुओं से मेरी,
या तेरी आस्तीन से निकला.
खूँ में फर्क नहीं करता,
माँ की तरह आईना भी.
अक्स के पीछे...
तुम चुनती हो,
दर्द के फूल.
मैं घोंटता हूँ,
उनसे रोज़ इत्र.
दिखाता है मेरी बेढब हँसी.
मुआ आईना कोई,
खुशबू नहीं दिखलाता.
अब्बा...
उनकी पेशानी के बल,
आयते हैं कुरान की.
आँखों के घेरे हैं,
सुन्दरकाण्ड की चौपाइयाँ.
समय के आईने में,
कभी अब्बू को देखो.
माँ...
जितने दिन होता हूँ घर पर,
नहीं देखती है आईना.
मेरे नहीं होने पर,
हर आईने में,
ढूंढती है माँ मुझको.
और आईने..
मेरी मुस्कराहट का दर्द,
तो नहीं पता लगता तुम्हे.
जो झूठ नहीं बोलते,
वो आईने और होते होंगे.
कुछ वक़्त हुआ...
धुंधलाने लगा है,
मुझमे तुम्हारा अक्स.
जब से तुमने कहा,
बदल दें पुराने आईने.