महि पर छितरे मेरे शब्द,
जिनके वर्ण भी धूसरित हैं,
रहते हैं सदैव आकुल,
हो जाने को विलीन,
घुल जाने को निस्तेज.
अमिष अनुभूति से रचे,
मेरे अकार आक्रान्त वाक्य.
वाग्जालों में उलझ कर,
दिखते हैं संज्ञाशून्य,
अवसाद में धंसे हुए अतिरथ.
हठी प्रचेतस प्रदोष,
लगने लगता है तनिक,
और हठी, और विशाल.
विपुल विक्रांत गीत,
रमते हैं समूह क्रंदन.
अदम्य ललक औ अभिरुचियाँ,
निस्पृह हो जाती हैं नित्य.
अहिजित ह्रदय होने लगता है,
हर फुंफकार पर कम्पित,
पर्वत से बन गौरिल.
ऐसे में अनघ स्पर्श तुम्हारा,
रच देता है उल्लास पर्व.
तुम्हारा अमिष आशीष,
कर देता है प्रदीप्त,
प्रचंड धिपिन प्रद्योत.
दृष्टि का अरिहंत पुंज,
कर देता है भस्मीभूत,
शब्दों के सभी विकार.
अभीक ओज देता है,
उन्हें अघोष तेजस्वी आकार.
द्युतमान अनुकम्पा के वचन,
स्नेहिल मलय-परिमल सम,
लेते हैं स्वरुप परिण का.
और वाक्य पा जाते हैं मेरे,
हेमाभ उचित मृदु विन्यास.
ऐसे अतिपुण्य क्षणों के असीम,
उदीप क्षणों में डूबता-उतरता,
मेरे स्व का तुरंग,
बस इतना ही सक्षम है.
हर रोम-स्पंदन का प्रणाम,
स्वीकार करो तात!!
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महि= धरती
अमिष= छल रहित, ईमानदार
अतिरथ= योद्धा
प्रचेतस= बल
प्रदोष=अँधेरा
विक्रांत=बलवान
निस्पृह= इच्छाहीन
अहिजित= जिसने सर्पों को जीत रखा हो
गौरिल= राई/white mustard
अनघ= पुनीत
धिपिन=उत्साहजनक
प्रद्योत=चमक
अरिहंत= शत्रुओं का नाश करने वाला
अभीक= भयहीन
द्युतमान= चमकदार/तेजस्वी
परिमल= सुगंध
परिण=गणेश
हेमाभ= सोने जैसा चमकदार
उदीप= बाढ़
तुरंग= घोडा/मन