छोटी दी...

यूँ तो साल भर,
पीछे पड़ी रहती है।
मेरे निरीह बटुए के,
ऊपर खड़ी रहती है।

साड़ी जरदोजी के,
महीन काम वाली।
पायल जिसमे,
नथे हों सच्चे मोती।

चुन्नी लखनवी ही हो,
सबसे ऊँचे दाम वाली।
मुझसे घर बैठे ही,
अलफांसो आम मांगती है।

मगर जब नहीं,
कर पाता न पूरे।
इनमे से कोई भी,
छोटे बड़े अरमान।

जाने कैसे खुद ही,
बिस्तर की सलवटों से,
निकालती है एक,
रेशमी धागा।

देने की कोशिश,
भी करूँ कुछ तो।
बस मुझसे सदा,
साथ रहने का,
वरदान मांगती है।

है तो छोटी मुझसे,
पर 'दी' कहता हूँ उसे।
जो इस भाई से ,
केवल ईमान मांगती है.

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