टुकड़े यूँ ही कुछ...

मैं सांप नहीं....

शर्मा जी का लड़का,
अरे अपने दिलीप भैया।
अलग रहने लगे हैं।
अंकल जी आधी बांह की,
कमीज पहनते हैं अब।
पापा आप मत कटवाना,
कभी आस्तीनें अपनी।

कोसूँ किसे?

परेशान बहुत हैं,
बुद्धजीवी यहाँ पर।
ख़तरा बहुत है उनकी,
संस्कृति को पाश्चात्य से।
पर हमारी जड़ें,
बहुत गहरी हैं।
हर ड्यूड होता है कुमार,
लेते वक़्त दहेज़।



वचन अपना अपना....

संभव नहीं हर रात,
तुम छत पर आओ।
मास में एक दिन तो,
चाँद भी नहीं आता।
मैं फिर भी इन्तजार,
तो कर ही सकता हूँ।
आसमान को तो वहीँ,
रहना है ना प्रियम्वदे?



रमजान मुबारक...

बहुत आह्लादित मैं हूँ,
तुम भी तो खुश हो ना?
काश सबको पाक-पाक,
कर जाए रमजान महीना।



सुनो विषाददेव............

मैं गीत हूँ उन पाषाणों का,
जिनको गुनना भी आंधी है।
हर एक सपने को बैर हुआ,
मुझसे ही गांठें बांधी हैं।
लेकिन इतना इतराओ मत,
समझो ना तुम्हारी चांदी है।
आशीष पिता की है छतरी,
दी माँ ने धीर की हांडी है।




मेरे शब्द.....

मेरे शब्दों में आपलोग,
शिल्प सौंदर्य मत ढूँढना।
ये तो घास-फूस है बस,
माँ ने बगीचे से बटोरी।
मैंने आपको दिए हैं किसी,
गिलहरी का आशियाँ बनाने को.

0 टिप्पणियाँ: