मन ये कहे....

स्तब्ध साए हो गए जब,
स्वप्न सारे सो गए जब।
अश्रु छलके फिर यूँ बरबस।
जब नहीं रोई धरा,
आसमान भी ना फटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं क्रंदन....

मिली कभी दुत्कार थी,
और ह्रदय की नदी,
मांगती विस्तार थी।
सामने चट्टान के,
मैं अकड़ता जा .
देख मन ये कह उठा,
मैं मंथन....

कभी कोई बात ऐसी,
घटना काली घात जैसी,
बीती जाने रात कैसी।
अंतर से इक हूक जागी,
रात आधी जाग बैठा।
देख मन ये कह उठा,
मैं चिंतन.....

जीत डाली जब धरा तो,
सब मुझे ही देखते थे।
गृह था पदकों से भरा तो,
पिता जी के भाल पर,
गर्व का उन्माद था।
देख मन ये कह उठा,
मैं अभिनन्दन....

घोर चिंता बात दुर्गम,
पिता जिसमे डूबे हरदम।
देख मुझको खिलखिलाए।
आँख में इक चमक आई,
पिता को ख़ुशी से अटा,
देख मन ये कह उठा,
मैं चन्दन....

देख थाली प्यार वाली,
चावल रोरी लाल वाली,
बहन ने थी जो सजाई।
हल्दी के उबटने में,
कपास जैसे जा सटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं वंदन...

बरखा गिरी जब धरा पर,
सोंधी बयार ने छुए नयन,
चूमने माटी थिरके अधर।
मेढकों की टर्र-टर्र और,
इन्द्रधनुष की छटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं नंदन.....

देखता हूँ माँ की पलकें,
विदा देते भीगती हैं,
जैसे दो ब्रम्हांड छलकें।
डोरी पावों बांध गयी,
ह्रदय हुलस सा उठा।
देख मन ये कह उठा,
मैं बंधन....

सबने जब जब स्नेह वारा,
कोई भी था प्रश्न आगे,
नाम मेरा ही पुकारा।
अग्निपथ पर भी मैं आया,
मार्ग से कंटक हटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं संबोधन....

हार कर या जीत कर,
या के जीवन की डगर में,
मृत्यु को भयभीत कर।
पुरुषार्थ से कंधा मिला,
दिन रात तन जब ये खटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं आरोहण.....

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