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उस एक क्षण में...

साँझ के उस पार,
पैर लटकाए हुए तुम
क्या क्या बड़बडाये जाते हो।
और जब चिढ कर,
लगाता हूँ तुम्हे आवाज!
कर्कश!
तो पलट कर टिका देते हो दृष्टि,
बाँध देते हो चितवन


मैं पलकों के संपुट खोल,
सहेजने लगता हूँ तुम्हारी दीठ

मेरा स्व मुझसे हार जाता है
विवाद प्रतिवाद सभी वादों में

मैं उस ऊँचे नीले वितान पर
आँज देना चाहता हूँ यह रूप


मेरी सारी सम्वेदनायें
गुम्फित हो उठतीं हैं

मेरा मैं विस्मृत!
मेरा संचित अदृश्य

मेरा प्राप्य अलभ्य!
मेरा ईष्ट समीप!

तुम्हारे अधर हिलते हैं
मैं समझ लेता हूँ,
सुन नहीं पाता


तुम्हारा क्षण भर का स्पर्श
करता है संचरित राग-महाराग

जीवन अपनी गति छोड़
करने लगता है विश्राम

चिरकाल से नभ में फैला प्रकाश,
समा जाता है चेतना में

वेदना की काई घुल कर,
निकल आती है पोरों से


मेरे भीतर बस बचते हो
तुम, तुम्हारा प्रेम,
उसकी विरल अभिव्यक्ति

और वह अलौकिक चित्र,
जिसे कोई तूलिका चित्रित नहीं कर सकती

वह संगीत जिसे रचने में,
सारी वीणाएँ-वेणु अक्षम हैं




आयु भर आशीष



झुण्ड से छूटा, साथ से रूठा,
एक था बिचड़ा गिरा यहाँ।
गीति के नवजात शिशु को,
मरने देती क्षिति कहाँ।

पावस में घिर आते शत घन,
बाकि दिव सुथराई के कण।
धमनी-धमनी स्थान रुधिर के,
माँ का संचित नेह बहा।

सूर्य रश्मियाँ पुष्ट बनाती,
विधु की किरणे थीं दुलरातीं।
और मृदुल नभ के तारागण,
हर अठखेली पर मुस्काते।

तृण के नोक ललाट चूमते,
अलि धावन के बाद घूमते।
वल्लरियाँ थीं दीठ बचातीं,
गिरते पर्णों ने मीत कहा।

दिवस बीतते, रात बीतती,
शीतलता औ घाम बीतती।
बालक ने आशीष मान कर,
सबको दे सम्मान सहा।

बारी-बारी सब ऋतुओं ने,
भांति-भांति के पाठ सिखाये।
पराक्रमी कर्ष-मर्ष कौशल पर,
वानीर झुण्ड ने हाथ उठाये।

गभुआरे नन्हे कोमल तन,
को सालस थपकाती गन्धवह।
चीं-चीं मर्मर क्षिप्र ही गढ़ कर,
खग कीटों ने गीत कहा।

खेचर नित आशीष वारते,
गहते हाथ, औ मूंज बाँधते।
"रागों में तुम वीतराग हो!"
"हो अलोल!"- यह बोल उचारते।

मौलसिरी ने आसव छिडका,
नीप-तमाल ने नेह से झिड़का।
आम छोड़ के उतरी कोयल,
कान में गुपचुप प्रीत कहा।

नियति-नटी अपनी गति खेली,
सुभट शाख किंकिणियाँ फूलीं।
जिसने देखा वही अघाया,
"उत्तरीय तुम्हारा स्वर्ण!"- कहा।



*********
बिचड़ा - नन्हा पौधा ;सुथराई - ओस ;रुधिर - रक्त ;विधु - चंद्रमा ;तृण - घास ;गन्धवह - वायु ;खेचर - पक्षी ;किंकिणियाँ - घुंघरू


अदृश्य

प्रात की पहली किरण पर,
शब्द उग आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ पत्र में लिख दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

मन के वन की वीथियों में,
पुष्प झर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ इत्र में गढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

रेत पर फेनिल लहर से,
रंग भर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ चित्र में भर दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

भेंट कर दूँ मौन को,
मैं गंध को, हर रंग को।
सोचता हूँ सामने पढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

मौन बैठे हुए...




पिता! तुम बूढ़े नहीं हो रहे।
नहीं घट रही है तुम्हारी,
डेसिबल आंकने की क्षमता।
सिक्स बाई सिक्स देखने भर ज्योति,
अभी भी है नेत्रों में।
किंचित अधिक ही हो गई है।

तुम छोड़ सकते हो एक और रोटी,
खींच सकते हो साइकिल,
और दसेक मील।
गदरा उठती है भिनसारे,
कुछ और तुम्हारी केशराशि।
फिरा सकते हो अकेले हेंगा तुम,
निश्चय ही हल चला सकते हो।

नहीं सकुचा रही तुम्हारी छाती।
आज भी नहीं जीतता है जनेऊ।
नहीं टूटते रोयें तुम्हारे।
कलाईयों का बल नहीं थमा,
स्कंध विपन्न नहीं हो पाए हैं।

पिता! नहीं उगे गड्ढे तुम्हे।
नेत्र ज्योतित हैं पुंज-पुलकित।
दंतपंक्ति आज्ञाकारी छात्रों की भांति,
सुन्दर पुष्ट प्रयत्नशील हैं।
रुक्म ललाट नहीं भेद पाए हैं,
झुर्रियों के समवेत प्रहार।

यह मैं नहीं कहता तुमसे,
तुम मौन बोलते-पढ़ते आए हो।
ममता नेह आँचल टपकन,
हहरते लहरते मन के बीच,
मौन बैठे पिता, तुम जानते हो,
आयु नहीं होती उसकी,
आकाश कभी बूढा नहीं होता।

क्षीण मन








चुक गए सब द्वंद ऐसे,
टूटते हों बंध जैसे।
मुक्ति का उच्छ्वास भर के,
गीत फिर से मन रचो।

रोर वाली या अबोली,
तुमने क्रीड़ा द्युत खेली।
प्राण में ज्योति जगा के,
गीत फिर से मन रचो।

लौह का पथ, लौह कंटक,
गोत्र इस्पाती रहे।
खींच दो वल्गा समय की,
वो जो उत्पाती रहे।

श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
आस की वातास का तुम,
गीत फिर से मन रचो।

तुमने सौ-सौ बाण मारे,
सिंह मारे श्वान मारे।
मार्ग किन्तु यह नहीं वो,
जहाँ पग धर घर चलो।

टेरना बिन लक्ष्य बेमन,
बिन दिशा किस काम का?
आँख का पानी गिरा कर,
गीत फिर से मन रचो।

श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
लुंठित औ भरमाये मन का,
स्थान कोई है नहीं।

तोड़ के कारा सभी अब,
आगे ही आगे बढ़ो।
श्वास क्षीण ही सही,
गीत फिर से मन रचो।

देह चटकती रही है,
ताप से संताप से।
वीणा रुक्म लाल है,
स्वेद के आलाप से।

सूर्य चन्द्र श्वेत हैं,
और सभी श्वेत श्याम हैं।
दिन वही रात्रि वही,
भूत वर्तमान है।

स्नेह के दो क्षण मिलें,
वह नेत्र में धंस जाएँगे।
स्वयं को क्षमा कर सकें,
वह वचन न बोले जाएँगे।

एक ही विमा रहे,
अकेले ही विजन पर चलो।
श्राप मन के धुल सकें,
गीत फिर से मन रचो।

चिर प्रणय का स्पर्श था,
नित अधर पर डोलता।
अँगुलियों का पोर,
अभीप्सित लालसा टटोलता।

थे सुमन अनुराग के,
हर वृन्त पर सजे हुए।
पुष्प-रेणु और अलि,
निकुंज स्वत सहेजता।

मुदित वह जो नीड़ था,
अस्पर्श्य है, अतिदूर है।
पुरातन बंधन, तुम्हारे
मद से चूर-चूर है।

ग्लानि फेफड़ों में भर,
आगे ही आगे बढ़ो।
श्वास क्षीण ही सही,
गीत फिर से मन रचो।

अनल तुम, समिधा तुम्ही,
तुम ही अग्निधान हो।
यज्ञ में स्व के स्वयं को,
स्वयं होम तुम करो।

श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
आस की वातास का तुम,
गीत फिर से मन रचो।



#The Weary Kind (Crazy Heart) सुनने के बाद ये है, जो है।

अबोले ही..



सूर्य से कंधे मिलातीं,
दूर वह जो चोटियाँ हैं।
पार उनके एक क्षण को,
मैं उतरना चाहता हूँ।

चाहता हूँ खींच डालूँ,
डोर सतरंगी धनुष की।
मैं प्रभा की सीढ़ियों से,
हो उतरना चाहता हूँ।

ग्राम से हेमंत के जो,
निकलती नदी है बारहमासी।
मैं उसी के छोर को,
एक बार छूना चाहता हूँ।

चाहता हूँ हाथ में भरना,
समय की रेत के कण।
मैं उन्हें फिर इस नदी में,
होम करना चाहता हूँ।

रीतते जल के वलय में,
हैं झाँकती मेरुप्रभाएँ।
सीप सम्मोहन विवर सब,
तोड़ देना चाहता हूँ।

चाहता हूँ क्रीक बन कर,
थाम लेना यह सरिता।
मैं समय पर ही समय को,
रोक लेना चाहता हूँ।

मैं बनैली वीथियों से,
श्याम संझा टूटने तक।
लोबान का एक ढेर ऊँचा,
ढूँढ लेना चाहता हूँ।

चाहता हूँ भींज लेना,
ओस की पहली लहर में,
धूम्र में आँसू सुखा के,
धीर धरना चाहता हूँ।

वह कुशलता जो लहर को,
वायु की भांति झुलाए।
नेह के पथ की विमा भी,
ऐसी ही करना चाहता हूँ।

चाहता हूँ भेंट तुमसे,
जो कि है कब से प्रतीक्षित।
ज्योति चुक सकने से पहले,
नेत्र भरना चाहता हूँ।

पात पुरइन के हों फूले,
यूथियाँ भर शाख झूलें।
मय जलज की छोड़ सरसी,
मैं पुष्प किंशुक चाहता हूँ।

चाहता हूँ मैं विजन पर,
एक पग प्रस्थान करना।
और सम पाथेय तुमसे,
'मित्र' सुनना चाहता हूँ।



बीतते क्षणों में...



दे के अपनापन अनोखा,
सीख सौ-सौ काम वाली।
आज जबकि नेह बाँधा,
तुम विदा दे जा रहे हो।

अश्रुओं की लड़ी दे दूँ,
नेह जल की झड़ी दे दूँ।
थाम अंगुलियाँ निहारूँ,
बात कोई बड़ी दे दूँ।

बाँस के दो गोल पत्ते,
मैं फुला के गीत गाऊँ।
लूँ स्तवन में नाम ज्योंकि,
तुम विदा दे जा रहे हो।

साँझ-दिव, प्रति मास के दिन,
झड़ी ठिठुरन ताप के दिन।
तुमने कूची से सँवारे,
कटु निठुर संताप के दिन।

धनुष कितने तुमने बाँधे,
मेघ भर-भर अपने काँधे।
और अब जो रंग फूटे,
तुम विदा दे जा रहे हो।

रात बीती बात बीती,
अर्गला के साथ बीती।
सुभट धीरजधर बने तुम,
सुन सके तुम आपबीती।

और फिर संबल बना के,
सँध से ज्योति दिखा के,
नेत्र में जब प्राण जागा,
तुम विदा दे जा रहे हो।

ठीक तुमने ही तपाया,
किन्तु तुमने कुछ न पाया।
इस हुताशन से निकल के,
मैंने ही वरदान पाया।

धरणी को मंजु बीज दे के,
स्वेद दल की सींच दे के।
अब कुटज जो फूलते हैं,
तुम विदा दे जा रहे हो।

रोक लो पग दर्श ले लूँ,
भाल पर एक स्पर्श ले लूँ।
माँग लूँ कि हर क्षमा अब,
तुमसे उर का हर्ष ले लूँ।

गगन भर आशीष दे के,
वरद मेरे शीश दे के।
स्नेह का प्रतिरूप रख कर,
तुम विदा दे जा रहे हो।

दे विदा भर आँख भींजूँ,
नव के लिए अइपन संवारूँ।
मन्त्र जो तुमने सिखाये,
गीले कंठ से उचारूँ।

यह विदा विस्तार ही है,
नव किरण संचार ही है।
मान मुक्ति का सिखा के,
तुम विदा दे जा रहे हो।




प्रिय ऋतु में...





नियम से नित प्रात!
कौन जाता है छींट?
स्वर्ण भस्म भर शत घट,
व्योम के पूर्वी छोर सुदूर।

कौन टेकता है छड़ी,
ध्रुवनंदा की पीठ पर?
और छिटक आती हैं बूँदें,
चंचल निष्छल स्वछंद।


कौन देता है फूंक,
किंशुक किंकिणियों में प्राण?
धर देता है शुचित मेखला,
बनैली धरती पर निचेष्ट।

कौन बजाता है वीणा,
विहंगो के कलरव की?
औ खोल देता है अनायास,
उनींदे गभुआरे उत्पल दल।

कौन खींचता है नियम से,
मारूति के नव परिपथ?
वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।


कौन पुरइन पर दधि का,
लेप देता है लगा नित?
ओस की बूँदें छुड़ाती,
जागती हैं रश्मियाँ भी।

कौन गढ़ता अल्पनायें,
पुष्प ला गुलदाउदी के?
किलोल करती वल्लरियाँ हैं,
ठठाती वृन्त-वृन्त, निकुंज भर।

कौन जलाता है हिम बिनौले,
छाजते है ग्राम-घर जो?
कि महि को देखने भर,
ढूंढता है छेद दिनकर।


कौन निश-दिन के यमल को,
प्रेम का जड़ता दिठौना?
बकुचियों के फूलते तन,
आरती में जागते हैं।

कौन करता है विदा दे,
दान-सीधा बादलों को?
कि रजत दल कांपते हैं,
मंदाकिनी की हर लहर पर।



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------------------------------------------------
किंशुक= पलाश
किंकिणियाँ= घुंघरू
मेखला= एक प्रकार का वस्त्र
गभुआरे= कोमल
उत्पल= कमल
पुरइन= कमल का पत्ता
दधि= दही
दिठौना= नज़र से बचने वाला काजल का टीका
बकुचियाँ= औषधीय पौधे

चलो रे पथिक







कौन सी वेला सुखद, विश्राम की- प्रस्थान की है?
कौन सी राशि विहित, संकल्प के अभिधान की है?
कौन से स्वर है सदय, जो करते हैं उद्घोषणा?
कौन सी है रेख जिस तक, नाम अपना अंकना?

मन विचारोगे यही तो, चल न पाओगे यहाँ।
और जिसमे रुक सको, ये यात्रा ऐसी कहाँ?
बाँध लो पाथेय जो भी, हाथ आए ले चलो।
छोड़ दो साथी कहे तो, साथ आए ले चलो।

स्नेह बंधन को स्मृति में, ईश जैसा स्थान दो।
परिचयों की गाँठ खोलो, मुक्ति दे कर मान दो।
और फिर बढ़ते चलो, द्विविधाओं का संपुट खुले।
तुम झड़ो तो योग्य तुमसे, कोई किसलय दल खिले।

तुम नहीं त्राटक, नहीं अंतिम ही कोई पीठ है।
एक बस यह यात्रा है, और पथ यह ढीठ है।
कछार तोड़ो, कूल छोडो, क्रीक पग से नाप लो।
हाथ जोड़ो नद-नदी को, घूँट में या माप लो।

हरे अइपन, घृत, हरीरे,  तोरण- अगरु को भूल लो।
मार्ग काटो स्वत बनैले, करतलों में शूल लो।
ये झुलसते, ये हुलसते, मार्ग सच्चे मीत हैं।
अन्यथा है बाकी सब कुछ, वंचना है, भीत है।

है परिचय, प्रेम भी है, है कि हँसना बोलना।
किन्तु नाप नेह का, प्रतिबन्ध से क्या तोलना?
पग-पग झरें कुसुम जो, प्रेम के वही ललाम हैं।
पग बढें, बढ़ते चलें, ये श्रेष्ठ वर्तमान है।

बाँध देखो कोई भी मिस, पर तुम्हे रुकना नहीं है।
मोह जितना भी लगाओ, युत किसी टिकना नहीं है।
तो क्या तमिस्र और ज्योतित, रात्रि वेला एक है।
पथ वही, पथ की विमा भी, यात्री अकेला एक है।

किरीट-केयूर-मुद्रिका, हैं नाम और सब मोह हैं।
जबकि परिभाषा तुम्हारी, जन्म से ही द्रोह है।
भार उर पर मत ही लादो, ना किसी को और दो।
हास-अश्रु साथ बाँधो, अनुतप्त नौका खोल दो।

कर सकोगे प्राप्त प्रज्ञा, है व्यर्थ ऐसा सोचना।
संजाल से निकल सको, प्रथम यही हो कामना।
सकल सरट-सरीसृपों के, झुण्ड हैं किलोल में।
और बस यही पथ सगा है, अंतर्मन के लोल में।

हों तुमुल स्वर रंध्र से, जो रक्त पीते जा रहे हों।
तप्त मन के उच्छलित क्षण, मन से उलीचे जा रहे हों।
हाथ सारंगी उठा, कोई तार ऐसा तान दो।
कर्ण-कुहर भी तृप्ति पाएँ, उनको ऐसा गान दो।

ये कि पथ ऐसा जो अंतिम, है आदि और अबाध भी।
किस गति से चल रहे, है कितना इसके बाद भी।
मार्ग में हैं पातक-सालक, और गह्वर चण्ड हैं।
इनसे बच गए तो स्व के, विवर महाप्रचण्ड हैं।

शांति है अधिक तो, विहगों में प्रमोद-रव जगाओ।
रोर उठती हो यदि तो, शांति की भेरी बजाओ।
और चल दो मुदित मन कि, मृदुल लहरियाँ बहें।
एक ठांव रुक गए, तो पथिक ही कहाँ रहे।




आगत स्वर..



कितने दिव चले मित्र?
कौन-कौन सी दिशायें नाप,
कौन से दुर्धर विजन पथ माप,
यायावर, लौटे हो इस बार?

तुम्हारे पीछे मैं सहेजता रहा,
तलवों से बन आए गड्ढे।
देखता रहा गूलर के फल।
उनमे चोंच मारते प्रवासी पक्षी।

तुम्हारी प्रतीक्षा में ऊब,
तुम्हारे कौशल विमुग्ध,
छानता रहा सूर्य-शशि,
ताल के तलौंछ में।

बुनता रहा टपकते हरे-पीले,
झरे-टूटे-छूटे पत्तों से शब्द,
सांगोपांग सत्वर तत्पर।

कि तुम लौटोगे बन पाणिनि,
और खींच दोगे उन्हें,
हर खांचे में।
बाँध दोगे हर यवनिका,
कस दोगे मूर्त-अमूर्त हठात,
प्रत्येक निकष पर।

तुम्हारे स्वर नहीं थे,
तो एक अकेला एकांत था,
मेघों के रीते निर्घोषों के बीच,
जो बजता था घनघोर, प्रचंड।

मंदिरों से उठने वाला,
धीमा सा मंत्रोच्चार,
आर्द्र रहा करता था,
ओस की बूँदों से अहर्निश।

तथापि मुकुलित पुहुप धरे,
अक्षरा आस लगाये निःस्व।
मैं करता रहा प्रतीक्षा,
तुम्हारे लौटने की।

कि उत्तर दिशा से लौटोगे तुम,
और होगी गुंजायमान ऋचाओं से,
समस्त धरित्री, सम्पूर्ण शाद्वल वन।

खुल जाएँगे बंध स्वेच्छया,
तुम्हारे श्री दर्शन से।
प्रत्यूष हो उठेगा चटख।
हर्षित उन्मुक्त रश्मिधर!

जो लौट आए हो मित्र!
तो स्वरों को दो आकार।
मौन को कर दो श्राप-मुक्त।
ऋतुओं को करने दो हर्षनाद,
प्रतीक्षा को अपना मोल दो।

पवन में ठीक इसी वेला,
अपने मधुप वर्ण घोल दो।
सब राग स्मिता पाएँ मित्र!
आज पुनः सभी छंद खोल दो।

एकमात्र वर...



हे तात!
आज के दिव ही,
ऐसे ही किसी क्षण,
पुण्य मन, उछाह भर,
ले आए थे तुम,
सैकत कण भर अंजुरी,
ध्रुवनंदा के किनारे से।

हे जननी!
नक्षत्रों के ठीक नीचे,
ऐसी ही किसी वेला,
ढुलका दिया था तुमने,
स्नेह-वात्सल्य से भरा,
प्रथम अजस्र पीयूष घट।

जीव, जीवन, अंश, दर्शन,
सब कार-अकार किये,
तुमसे ही प्राप्त अनुदिन।

विचर सकूँ किसी भी,
प्रकम्पित पथ भयहीन।
न हो सकूँ ग्लानिहत,
म्लान, अधीर, दम्भी।
और रहूँ सदैव प्रणत,
चरणों में अगाध श्रद्धा से।
रचयिता आज फिर से,
मुझे अजर वर यही दो।


संबोधन से परे..







अंशुमाली की प्रथम रश्मियों से,
प्रात वनिता जब धो रही होती है,
झूमते-सरसराते बाँस के झुरमुट।

और बजा रहा होता है कोई घंटा,
उस पार बलुई छोड़ हटान पर बने,
अंजनिकुमार-आजानुभुज के संयुक्त मंदिर में।

निथर आती है जब कठुली भर सुथराई,
तुलसी के हरे-काले प्रत्येक पत्तों पर,
एक समान, एक सी. स्वेच्छया, स्वतः।

तोड़ रही होती हैं उचककर लड़कियाँ,
जब तरोई-सेम-करेले अहाते से,
मुँह पर हाथ धरे खिलखिलाते हुए।

मौन कर मुक्त, उन्मुक्त रंभाती हैं जब गायें,
टुहकनी गौरैया कचरती है टूटे चावल,
गेंहूँ, जौ, दाल कुटुर-कुटुर कट-कट।

पिताजी अगोर रहे होते हैं जब अखबार,
औ' नोचने लगती हैं गिलहरियाँ अमरुद,
माँ को अइपन काढने में व्यस्त देख।

फूल रही होती हैं जब रोटियाँ सुजान आँच पर,
छुआए जा रहे होते हैं दही से लाचीदाने,
सिल घोंट रहा होता है पुदीने में टिकोरे।

कनेर गिरने लगते हैं टप-टपाक जब,
लू टहकार रही होती है शमी, अढ़उल!
धूप खेलती है अकेली ही भर ओसारे।

या धैर्य चुका सनई के खेत जब काटते हैं सूरज,
और भकुआया हुआ वो छींट जाता है,
रात का सहेजा हुआ, भगौना भर जावक।

जोड़े दिन भर की दिहाड़ी, समेटे स्वप्न,
जब लौट रहे होते हैं खेतिहर, विहंग, मजूर।
औ' रूप निहारता कोई जड़ देता है दर्पण को दिठौना।

टिमटिमाते हैं मंगल-ध्रुव, बाबा-नाना,
और बेतों से पीट-पीट करिया देती है,
विधु की पीठ, रजत वेणी वाली बुढ़िया।

जब रात चुप से टपका जाती है अमृत की असंख्य बूँदें,
गभुआरे हरसिंगार गमक उठते हैं सहसा झुण्ड-झुण्ड,
औ टपकन थाम लेती है धरित्री, प्रात से पहले -रवहीन।

ऐसे दीप्त क्षणों के सुभीते हरित निकुंज,
जो उग आता है स्व में, स्व से ही,
होता है प्रस्फुटित, अतल-तल से स्वलक्षण,
निर्मल मनोरम गतिमान अलभ्य,
सुशान्त गरिमामय, स्मितित संस्कार।
आजन्म तुमसे मेरा प्रेम वही हो।



==============
वनिता= स्त्री
विधु= चन्द्रमा
वेणी= चोटी
जावक= महावर
दिठौना= नज़र से बचाने वाला काजल का टीका


शब्द-शर



जैसे घृत लोबान पँजीरी,
पुरइन संपुट में भरते हों।
यज्ञ हुताशन में उसी मिस से,
कृशकाय तुम्हारे शब्द झरते हों।

किंशुक रस से लिखो शब्द अब,
वही गीत का प्राण बनेंगे।
तप-तप बड़वानल में अनुदिन,
साक्षात ही अग्निधान बनेंगे।

चटुल विपुल केसरी कुसुमासव,
शब्दों से धरणी लब्ध रहेगी।
हरित-श्वेत वानीर-कुटज के,
अइपन से नित प्रात सजेगी।

गभुआरे मन, लुंठित होकर,
द्रुत विदीर्ण यदि गान करेंगे।
त्रय-तेज धरे यह शब्द तुम्हारे,
नाम मुक्ति अभिधान धरेंगे।

अमा-निशा-सोम-आरुषी पर।
दिनकर की दिप-दिप आभा पर।
छंद कोकिला की कुहुकों पर,
गीत रचेंगे कवि पुहुपों पर।

छायें तुमुल के तम घन किंचित।
हो अनिल सरणी से विमुख प्रकम्पित।
रच का अक्षय तूणीर उठाना,
शब्द-शब्द शर-बाण बनेंगे।

उर्मिल उदीप, सुशांत कि उदधि।
सरि तट उत्पल दल खिलते हों।
जीव बनैले, अथाह खग राशि,
शाद्वल वन किलोल करते हों।

इनकी मुग्ध केलि रक्षा में,
निशि वासर पद-ताल करेंगे।
ऋतुओं का अहिवात बचाने,
सुभट शब्द निष्काम लड़ेंगे।

रिपु दुर्धर वैषम्य स्थितियों सम,
डाकिनी सी हों रोर उठाते।
वाधर्क्य से श्लथ नभ घन-दल,
वातास शुष्क, गिरि झिंपे झँवाते।

कहना ज्योतिर्मय शब्दों से,
बन स्फुल्लिंग नभ दीप्त करेंगे।
प्रश्नों से उत्तप्त प्रकृष्ट स्वर,
प्रत्येक निकष पर स्वयं कसेंगे।




================
पुरइन= कमल का पत्ता
संपुट= दोना
हुताशन= अग्नि
किंशुक= पलाश
अग्निधान=अग्नि पात्र
चटुल= चंचल
अइपन= अल्पना
गभुआरे= कोमल
तुमुल= कोलाहल
सरणी= मार्ग
निशि वासर= रात-दिन
अहिवात= सुहाग
वाधर्क्य= वृद्धावस्था
निकष= कसौटी









धन्यवाद...



विचरूँ कोमल कूजित उपवन,
बरसे मुझ पर सौरभ शत घन,
वहीँ उग आयें वेष्टित तंडुल,
छू जाऊँ मैं क्षिति का जो कण।

श्री मैं ही, मैं ही श्री का मुख,
पाँव पखारें अनुदिन प्रति सुख।
विथकित विन्ध्य-सुमेरु-पखेरू,
देख के मुझको चढ़ता हर क्षण।

ऋतंभरा भूधर सी मेरी,
प्रक्षालित करती हो कीर्ति।
करता केलि तर से तम तक,
मेरे उच्च कर्म का क्रम-क्रम।

सुभट सदय दिव बन चारण गण,
हरित गाछ, मलयज मधु उपवन।
करती हो शोभित अयाल बन,
आरव आरुषी ग्रीवा पर तन।

ऐसे स्वप्न नहीं कब देखे?
इच्छा के जाल नहीं कब फेंके?
है स्वीकार कि तुमसे माँगा,
ये सारा सुख ही रे जीवन!

किन्तु उसका अर्थ यह नहीं,
कि दिन दुर्निवार न लूँगा।
सुख माँगा है तो जो दोगे,
दुःख के दुर्धर उपहार न लूँगा।

मैं तुमसे, यह दृग भी तुम्हारे,
अनुरोध सभी वह्नि में डाले।
विवृत नयन में जो कुछ रख दो,
साथ स्थैर्य के मैं देखूँगा।

विजन पथों की पवन प्रकंपित,
अनुताप बिद्ध, मनः उत्स विरूपित।
विश्रृंखल उर्मियों में दो आज्ञा,
प्रतिक्षण मैं संतरण करूँगा।

दावानल से दहका कानन,
धू-धू करता मधुवन-उपवन, 
सुनी है जो केक-पिक बोली,
गिद्ध-शृगाल सुर भी सुन लूँगा।

तुम अनंत, अनंत की आभा,
निश की ज्योति, प्रात की द्वाभा।
मेरी अस्ति के छोरों का,
तुम ही उपादान रे जीवन!

मनु से....




गूँजी मादल की स्वर-लहरी, मनु बाण उठा!
आगे जो आए बेल-वृक्ष-चट्टान उठा।
जो कर्मठ ना हो पुष्प भी नहीं खिलता है,
जीवन उसका जो शाख-प्रशाखें सका हटा।

प्रेमी मन आते हैं, आएँगे-जाएँगे,
प्रणय-विरह के गीत केक-पिक गायेंगे।
किन्तु उनको ऐसा सुयोग दे सकने को,
जो वसु मांगते हों तो अपना रक्त बढ़ा।

क्षिति का औरस है, तुझको स्थापित करना है।
अब गुहा नहीं, बस तुंग-तुंग पग धरना है।
औ पारद जो आदित्य नाम से चढ़ता है,
अपनी दृष्टि के तुहिन से उसका ताप घटा।

सम वेद तुक्त, अथ नीति में भी निष्णात नहीं।
कोई स्तवन, स्तुति, कोई विग्रह गीत भी ज्ञात नहीं।
तो जीवन-संगर का ही अब पारायण कर,
औ चिति की ईंटें एक के ऊपर एक जुटा।

चक्रवाक - कारण्डव से उद्यान बसें।
संयुत हों मलयज-तंडुल, नित-नित भाल सजें।
पर इसमें बाधा धरे कभी कोई अरि कहीं,
तो मखशाला में एक-एक कर होम चढ़ा।

तांडव पी ले, बच जाए जिससे लास्य कहीं।
अतिरथ को पथ पर मिलता है कब हास्य कहीं?
भीषण वीरुध, पातक गह्वर के कानन में,
अपने भास्वर आनन से रश्मि-रश्मि छलका।

आभा ललाम, पुर से प्रांतर तक छप जाए,
अंतिम विराम प्रत्यूष का नभ पर लग जाए।
जो व्योम को लीले जाते हों दुर्धर पयोद,
असि के कराल को प्रेम से उनकी भेंट चढ़ा।

आवश्यक नहीं कि पाण्डुर वसन दुकूल के हों।
मकरंद जो लाये आसव नलिन - बकुल के हों।
तू चक्रपाणि सा श्रेष्ठ नहीं, तो नहीं सही,
किन्तु महि बोले बजा, तो शंख का नाद बजा।




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केक= मोर
पिक= कोयल
क्षिति= धरा
औरस= श्रेष्ठ पुत्र
पारद= पारा
तुहिन= हिम
चक्रवाक= चकवा (एक पक्षी)
कारण्डव= एक पक्षी
तंडुल= चावल
अरि= शत्रु
लास्य= कोमल नृत्य
अतिरथ= योद्धा
वीरुध= वनस्पति
प्रत्यूष= प्रातःकाल
पाण्डुर= हल्का पीला-सफ़ेद
दुकूल= उत्तम वस्त्र
वसन= वस्त्र








कितने दिन बाद माँ!!
कितने दिन बाद,
देखा है यह प्रात।
कौन सी दिशा से नभ,
देता है असीस में,
ऐसी अपरिसीम हर्षिल प्रभाएँ?

हुलस उठता है माँ,
मन का तुरंग,
जैसे देख झुरमुट,
सुथराई से धुले काँसों के।

सौष्ठव प्रदर्शित करते हैं,
हवा से जूझ सुदूर, उस पार,
गेहूं के बौराए पौधे,
धरे वेष्टित स्वप्न।
कब देखा था पिछली बार,
सरसों से अनुस्यूत,
अरहर को लहकते-बहकते?

माँ! बया अब भी है,
बल्कि लाई है दो पड़ोसिनें भी।
रसाल-महुआ-दाड़िम पर,
बसा लिए हैं  नीड़ सबने,
झाड़-झकोर-पछोर।

मुकुलित सरसों की किंकिणियाँ माँ!!
माँ अब भी उन्हें,
लाड से देखो वैसे ही,
हिलाती है बासंती-फागुनी।

कैसा सुख है माँ,
कृमियों से जोती मृदा पर,
तलवे ठहराने का?
कौन सा मधुरिम धवल,
तोय उमड़ा आता है,
धोने मन-कण-क्षण।

झर रहे हैं पात माँ,
स्वर्णिम भूरे गाछ से।
मानों किसलयों की कोई सरि,
उमड़ती हो करने गाढ़ालिंगन,
दूब की वत्सल क्रीक से।

कैसा अनहद है माँ,
गूँजता है निसर्ग से, चंहुओर से।
प्रेम की कैसी मलयज पवन,
बहती रहती है हर क्षण,
तुम्हारी ही ओर से।



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वेष्टित= ढका हुआ, वस्त्र धारण किया हुआ
अनुस्यूत= गूँथा हुआ
रसाल= आम
दाड़िम= अनार
किंकिणियाँ= घुंघरू
मुकुलित= कलियों से युक्त
तोय= पानी
क्रीक= खाड़ी



शिवरात्रि के दिन...






कितना टेरता हूँ खटराग,
एक ही, एक सा, अनुदिन!
आलोड़ित इतिवृत्तों में,
कोंचता रहता हूँ,
प्रत्येक निःसृत विषण्णता।

निस्पृह होने-दिखने की,
निस्सीम स्पृहा दबाये अंतस में,
कूटता रहता हूँ विवोध।

फेंटता रहता हूँ आसव,
सुदूर प्रांतर से लाये,
स्निग्ध मृदुल पुष्पों का।

लिख देना चाहता हूँ उनसे,
अपने गढ़े संतोषी आख्यान।
असफलता को द्युतिसूत्र बता,
यत्न करता हूँ ठठाने का।

यह अहेतुक केलि देख,
अब तक शांति से मुस्काता,
चिर तेजस्वी बिल्व किसलय,
आज चंद्रमौलि हो जाता है।

कभी निष्कंप मैं भी,
चुपचाप झड सकूँ तो....


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इतिवृत्त= इतिहास/वृत्तांत
आलोड़ित= सोचा विचारा हुआ
आसव= फूलों का रस/मधु
विवोध= धीरज
द्युति= चमक
अहेतुक= अकारण
चंद्रमौलि= शिव

विदा से पहले







क्यों मनोरम गीत सा नेपथ्य से कुछ बज रहा?
रात का अंतिम प्रहर कैसी उमग में सज रहा?
कैसा है उल्लास साजा यामिनी ने भाल पर?
शंख का स्वर झूमता है दुंदुभि की ताल पर।

वंचना के घाव अजस्र जो विपथ ने थे दिए,
देख यह मुदिता चमक, सब चुक गए और चल दिए।
दैन्य की सारी विमायें एक ऋत से घुल गईं,
अंतः की सारी क्षुधायें सद्य पवन में धुल गईं।

अब जो कीमियागर हृदय का, घोलता है हास को,
पोर अंतस के सभी देते विदा संताप को।
उर्मियों के बीच लिपटा जो था जीवन डूबता,
आज है हर्षित-अचंभित, कूल उससे जा लगा।

अहो! यह कैसा निरुपम बोध, है कैसी छटा?
नाद यह कैसा सुखद, लघु सँध से झरकर अटा?
कौन देहरी, कौन फाटक, और कैसी अर्गला?
छोह में उमड़ा हुआ मन तोड़ सब बंधन चला।

अभी तो है कुछ समय इस रात के प्रस्थान में,
कौन सा पाथेय पा लूँ, आए उस पथ काम में?
थे विजन को टेरते जो आर्द्र, वो सूखे नयन,
और जो सूखे तो उनसे, स्निग्ध सोता बह चला।

प्रगट हों दुःख सामने, रह जायें या अव्याकृता,
भांप ले जिसका हृदय बोली-अबोली हर व्यथा,
धिपिन उत्सव के क्षणों, यह देख कर आओ तनिक,
द्वार पर मिलने पिता से, आ गई है क्या सुता?



अनवरत



माना विजन पथ पर बहुत तुम चले हो,
महि के ही क्रोड़, अनिकेत तुम रहे हो।
पर अभी स्थापित किया है प्रथम केतन,
अभी तो पूरा भुवन ही नापना है।

सायास हैं जो आँजे सारे भित्तिचित्र,
स्वस्ति से पगे अरे विनम्र विप्र!
स्निग्ध छोह की इयत्ता मगर,
अजस्र रहे, तुम्हे ही ये भी देखना है।

शोण बहता है शिराओं में तुम्हारी,
द्युतमान तुमसे कम तनिक है अंशुमाली।
विरूपण व्यतिक्रम से तुम परे हो,
किन्तु विकर्षण को अभी भी रोकना है।

कुसुम्भ कुसुम है तृण-हर्म्य में उगाये,
अनुदिन धिपिन आविष्ट कलेवर बनाये।
किन्तु कई विपथ अभी भी छूटते हैं,
अभी उनको शस्य करने जोतना है।

कौन सा दिव है, प्रतिहत ना हुए हो?
सच बताना क्या चिलक में ना जिये हो?
यह तो प्रघट्टक के आवर्तन का नियम है,
आगे कुत्सा की शिलाओं को भेदना है।

गह्वरों-विवरों से सकुशल निकल आए,
उत्ताप के तुरंग, विरति वल्गा लगाये।
किन्तु गेह में हैं खटरागी द्विधायें,
उनकी लोल उर्मियों से खेलना है।

तुमने लांघी पर्वतों की शत वनाली,
रुके न, निष्कंप, एक जऋम्भा न डाली।
किन्तु अभी ऐसे दिन भी देखने हैं,
जिनके स्वप्न की भी सबको वर्जना है।

कौन पीयूष सोता तुमने ना बहाया?
कौन सा निनाद ऐसा जो न गाया?
अवहित्था ही है किन्तु योषिता तुम्हारी,
और न इसमें तनिक भी अतिरंजना है।

ठीक तुम अमर्त्य नहीं, जंगली किरात सही,
किन्तु जग प्रहसन उठाये, तुम कोई कन्दुक नहीं।
साँझ की जो श्याम होती यवनिका है,
उसे तुम्हारे बाणों से ही बिंधना है।

भूल चलो जो किये अब तक हैं अर्जित,
इतिवृत्तों को कितने दिवस पोंछना है?
उदीप में अब, हे मनु निर्बंध बढ़ो,
कूल तक नहीं कभी भी लौटना है।



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===
विजन= एकांत
क्रोड़= गोद
केतन= ध्वज
विप्र= वेदज्ञाता
इयत्ता= मात्रा/माप
छोह= ममता/दया
अज्रस= निरंतर प्रवाहित
शोण= लाल/ रक्त
अंशुमाली= सूर्य
द्युतमान= तेजस्वी
तृण-हर्म्य= कुटी
धिपिन= उत्साहजनक
कुत्सा= निंदा
वल्गा= लगाम
जऋम्भा= जम्हाई
अवहित्था = भाव छुपाना
योषिता= स्त्री
कन्दुक= गेंद
इतिवृत्त= इतिहास वृत्तांत
उदीप= बाढ़
कूल= तट

अवश्य ही...




कविताएँ सुनी जा सकती हैं,
अर्गलाहीन पीपल के,
पुराने कोटर पर,
जहाँ रहा करती हैं,
नन्ही त्रिरेखीय गिलहरियाँ।
जेठ मास के सूरज से,
झुलस चुकी बाँबियों पर,
जो पिछले सप्ताहांत ही,
खाली की जा चुकी हैं।

कविताएँ लिखी जा सकती हैं,
अनिमेष ताकते दिनकर पर,
मान सुथराई हंता,
या ओस का पुण्य पिता,
अपनी अपनी तथा-यथावश।
विहस उठाने में सक्षम है,
जो कोई भी मृदु-कल्पना,
शशि पर, उसकी कलाओं पर,
तारकों की उद्दाम विभाओं पर।

कविताएँ गुनी जा सकती हैं,
गर्दन मरोड़ जुगाली करती,
दूधविहिना बिलाई भैस पर।
सँध से छन कर आती,
पूस को भरमाती हल्की ताप पर।
उस अगरू सुगंधि पर जो,
करती है विश्वास बलवती,
सौ युगों बाद खोद कर निकाले गए,
विग्रह की स्मिता पर।

कविताएँ कही जा सकती हैं,
गुलमर्ग की सफ़ेद औ लाल,
घाटियों के निरूपम सौंदर्य पर।
देवदार पर अनी के जैसे जुड़े,
तुषार के बिनौलों पर।
रोहू-काट्ला चुनते गाते,
हुगली के मछुआरों पर।
ताम्बई कड़े पहने झुलसती,
थार की तपती बरौनियों पर।

कविताएँ बुनी जा सकती हैं,
प्रशांत महासागर के,
सबसे गहरे तलौंछ पर,
जो सटकाए बैठा है,
भुवन जितने ही रहस्य।
आकाशगंगाओं , राहुओं, केतुओं,
राशियों-नक्षत्र दलों पर।
अगणित विधुर उत्कोच दबाये,
काल के प्रहरों पर।

किन्तु अब तक निर्वाक बैठे,
अश्वत्थ विटप पर प्रच्छन्न,
रण गुंजित-कलित होने वाले,
स्वायत्त शब्द सभी बंध तोड़,
फुनगी से बोल उठते हैं सहसा ही।
यहाँ भी ठहरोगे न मित्र?
वचन दो।




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अगरू= एक प्रकार की लकड़ी, जो अगरबत्ती बनाये के लिए प्रयुक्त होती है
विग्रह= देवप्रतिमा
सुथराई= ओस
रोहू-काट्ला= नदी की मछलियों के प्रकार
तलौंछ= द्रव-पात्र के तल में बैठा भारी अंश
भुवन= ब्रह्माण्ड
उत्कोच= रिश्वत
अश्वत्थ= पीपल