सन्देश प्रकृति का...

भक्क से जल उठो,
हो जाओ सर्द सफ़ेद.
जब चुहचुहा उठे,
पसीना बेतार हो कर.

तब भी हे मनुज,
बने रहना कृपण.
दिखाने मिथ्या मुस्कान,
मरोड़ लेना अपने अधर.

जरुर रखना पैने,
अपने विषाक्त नाखून.
साष्टांग होना दंडवत,
चरण देना चीर पर.

लोलुपता के जीर्ण पात्र में,
आना भिक्षाटन हेतु.
भर लेना रक्त से,
देख तनिक अवसर.

सब कपि के नहीं,
वंशज श्रृगाल के भी हो.
व्यवहार करना नीच तुम,
स्वयं को कहना वीर पर.

और तुमको क्या कहूँ,
शिक्षा कौन सी मैं दूँ. 
खुद को इन्द्रजीत कहना,
इन्द्रीयाँ मेरी जीत कर.

गुफ्तगू...

सोचता हूँ की आवारागर्दी,
से अब याराना कर लूँ.
जो मिलो इस बार तुम,
तो गुफ्तगू का समान होगा.

इतनी साफगोई से,
कैसे कह जाते हो.
बिना किसी शिकन के,
खड़े रह जाते हो.

मैं तो नहीं पाती,
कहीं ठोस तल कोई.
पैर क्या टिकाऊं मैं,
कंधा जो हटाते हो.

ठीक है की सत्य है,
तर्कपूर्ण कृत्य है.
किन्तु क्यूँ पका दिया,
और भी जलाते हो.

मैं तो द्वन्द में पडी,
रजनी-दिवा एक घडी.
देखती हूँ स्वप्न तुम,
स्वप्न तोड़ जाते हो.

रो मैं देती हूँ प्रिय,
फूट फूट जाती हूँ.
सामने खड़े हो पर,
रोक नहीं पाते हो.

उचित हो मगर तुम्ही,
कह जो जाते हो खरी.
क्षोभ इतना है मगर,
कैसे मुस्कुराते हो.

नमन राजस्थान...

ऊँचा है ललाट तुम्हारा,
तना गर्व से है सीना.
किन्तु अहंकार की जगह,
तुम सहज सत्कार रखते हो.

उबाल है पवन में तुम्हारी,
धूप में अतिशय पराक्रम है.
किन्तु छूते हो बड़े प्रेम से,
पिता सा व्यवहार रखते हो.

वनस्पति-जल से पाकर,
कटु व्यवहार, विछोह भी.
देते हो पवित्र मातृप्रेम,
मन में नहीं विकार रखते हो.

अलौकिक नहीं निस्संदेह तुम,
किन्तु सिर्फ तुम ही हो जो.
दे सको शत्रु को रण में,
एक अलग तलवार रखते हो.

कैसे नापे कोई वेग तुम्हारा,
जब कभी थमते ही नहीं तुम.
मरा भी नहीं करते कभी,
वीरगति का विचार रखते हो.

हर कोस बदलता है पानी,
और सात कोस बदले वाणी.
किन्तु हर एक वाणी में,
वीणा के जैसे तार रखते हो.

कह देते हो तुम 'सा' सबको,
वृक्ष, पशु क्या मानव सबको.
प्रीत की डोली सजा स्नेह से,
आत्मीय मनई कहार रखते हो.

बिन बरखा, बिन दोमट के,
बिना दंभ, बस स्नेह से खट के.
चैत गुलाब जो खिला सके,
तुम ही वो अधिकार रखते हो.

वाकई हर कण-कण में तुम्हारे,
बसते हैं कई-कई रजवाड़े.
शरण दे सके श्रीनाथ तक को ऐसे,
चित्तोड़ रखते हो, मेवाड़ रखते हो.

अस्तित्व मेरा...

मैं वेदों से संलग्न नहीं,
ना किसी ऋचा का ज्ञाता हूँ.
ना मार्ग में मंदिर आते हैं,
ना मैं मस्जिद तक जाता हूँ.

कोई व्यर्थ समीक्षा क्यूँ कर दूँ,
जब विषय से ही घबराता हूँ.
साहित्य का मैं व्यवहार नहीं,
यहाँ भूल भटक कर आता हूँ.

छोटी पाती लिखता हूँ जब,
और धूप में उसे सुखाता हूँ.
क्षणिका मणिका कह देते हो,
जब अम्मा को भिजवाता हूँ.

जब पवन तेज हो उठती है,
खींच मैं लेता हूँ परदे.
परदों की पवन से अनबन है,
ना कि मैं गीत सुनाता हूँ.

धुली शरद की रातों में,
मैं रोज देखता हूँ अम्बर.
है धरा से लेकिन प्रेम मुझे,
नेत्रों में ही टिमटिमाता हूँ.

बहुत बड़ा है तपस्वी जिसे,
स्नेह से कहता हूँ मैं पिता.
बस शीश नवाता हूँ उसको,
जब पग कोई भी बढाता हूँ.

कोई शब्द चितेरा नहीं हूँ मैं,
ना गीत कोई लिख पाता हूँ.
तुम व्यर्थ प्रशंसा करते हो,
ना रच हूँ ना रच पाता हूँ.