बस करो,
रख दो कलम।
हो गया बहुत,
लिखना गान-अगान।

किस बरगद का,
इतिहास गुनोगे?
काट गए कल,
तुम्हारे अपने ही साथी।

अगर सोच है,
यमुना तीर जाने की।
तो भूल जाओ।
एक सूखी काली,
नाली है वहाँ।

और चकवा-चकवी?
वो तो अब एन।सी.ई.आर.टी.,
की किताबों तक में नहीं।
और क्या सुबह की,
कालिमा-लालिमा बकते हो?
सच कहो कितने महीने,
हुए सूरज देखे हुए।

सुना है तुम्हे,
चिडियों के कलरव,
की भी आदत है।
ये चिर्पिंग बर्ड,
अलार्म रख लो।
आखिरी अवशेष है,
तुम्हे दे रहा हूँ।

लिखने की सनक में,
हिमालय भी हो आते हो।
तुषार तुम्हारे ही,
पडोसी का नाम है।
उसके फ्रिज में भी,
आइस क्यूब जमती है।

अब बस, अपना,
राम भरत मत करना।
यार आजकल लोग,
मैटर्नल अंकल के,
नाम नहीं जानते।
तुम वशिष्ठ-दधिची,
उवाचते रहते हो।

अरे हाँ! कहीं,
देखा था तुम्हे।
अँधेरे के खिलाफ,
भाषण देते हुए।
बड़े रोबदार लग,
रहे थे वाकई।
फिर बल्ब जला कर,
क्यूँ सोते हो तुम?

मान भी लो ,
अब कुछ बचा नहीं।
रहम करो अब,
अपने मन पर ही।
बात सुनो ओ,
शब्द चितेरे।

गाँठ बाँध लो,
शब्द पोटली।
कलम रखो,
धो लो दवात।
बहुत हुआ,
व्याधि-संताप.

1 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य said...

sundar abhiwyakti.......badhaaee