पेशानी के बल....(लघुगीत)


कभी पिता के,
कन्धों का बल.
अम्मा की लुटिया,
का गंगाजल.

छुटके की किसी,
पतंग की कन्नी.
बीजगणित के,
मुश्किल हल.

खट्टे-मीठे,
जीवन तरु के.
झूमते-इठलाते,
किसलयदल.

रंग बदलते,
हैं ये पल-पल.
मेरी पेशानी,
के बल.

एक बरनी अचार...


अब तक तो शायद,
तैयार हो गई होंगी,
चने की हरी फलियाँ.
आलू-मटर रोज,
भूनते होंगे मामा,
अंगीठी अलाव पर.
मामी ने भी तो,
डाल दी होंगी बड़ियाँ.
और गईया ने दी होगी,
नई फिर एक बछिया.
तुम लगा चश्मा,
उसके दांत गिनती होगी.
सरसों के साग,
मामा की बिटिया,
अब भी जलाती है?
तुम भोर में ही,
नहाती हो अब भी,
सूरज के पहले?
यादें धुंधलाने लगी हैं,
मौसमी अचार की नानी,
एक बरनी भिजवा दो.


इतना आसान नहीं था माँगना,
पर तेरी दी सांसें ली नहीं जातीं.
कम से कम ये दुआ क़ुबूल कर खुदा,
दर्दनाक ही सही मुझे मौत दे दे.

युवा...


कल तक जो था,
सबसे सुन्दर जवान.
जीवन के पथरीले,
पथ को जिसने,
सिर्फ एक स्पर्श से,
पिघला डाला था.
समय का वेग,
आयु का उफान,
बेअसर थे सब,
जिसपर आज तक.

काली रातें, भीषण बाढ़,
शीतलहर-घनघोर अकाल.
ना खींच सके थे एक,
रोंया तक जिसका.
जिसकी परछाई भी,
अत्यंत शीतल थी,
अम्बर की भांति.
सुहासिनी पलकें और,
दिग्विजयी मुस्कान की,
जिसकी चल-अचल,
सौगंध उठाते थे.

जाने किस उन्माद आज,
संतान हुई उससे विमुख.
सूर्यमुखी का जैसे,
सूर्य खो गया.
वह सुघड़ अचानक,
वयोवृद्ध हो गया.

सौगंध सूर्य की,
मैं सूर्य तो नहीं.
पर आपको पिताजी,
रखूँगा चिर युवा.

क्षणिकाएं...(बीज..)


क्लेश....

आत्मा में तेरी,
या अंतर में मेरे.
संदेह का बीज,
कहीं भी पनपे.
फलित तो सिर्फ,
क्लेश ही होगा.



नजर....

तुम्हारी भीनी सी,
मुस्कराहट के बीज.
बोये थे कभी,
अपनी आँखों में.
फसल अब तक,
लहलहाती है.
मुझे सातवें दशक भी,
नंबर नहीं चढ़ा.




लवण...

पिता बहा पसीना,
ले आते हैं रोटी.
वरना माएं बिलख,
कर रो देती हैं.
दोनों ही सूरतों में,
बच्चों को मिल जाता है,
लवण..




फसल काट लो...

तुम्हारे दिए हुए,
शब्दों की फसल,
तैयार हो गयी है.
आओ काट लें,
प्रीत की फलियाँ.
पक गए तो,
बनेंगे नासूर.





याद....

तुम बेशक ना आओ,
इस बार भी.
हवा से भिजवा देना पर,
एहसास का एक बीज.
पनपें तो खिलें कम से कम,
गुलमोहर तुम्हारी यादों के.





भटकटेयाँ....

जाने कौन से,
पंछी लाते हैं.
बीज भटकटेयाँ के,
मिलते ही नहीं.
तुम भी कहाँ,
मिलते हो कभी.
याद तुम्हारी यूँ,
उगी हर ओर है.




स्वभाव...

उसे स्नेह सारे बीजों से,
अंतर से अनजान धरा है.
तेरा मेरा करके मरना,
अपनी ही बस परम्परा है.




कंटीली बाड़...

पिता की रोक-टोक,
जेनेरेशन गैप नहीं.
खेत किनारे कंटीली बाड़,
रखने वाला कृषक,
बीजों से बहुत,
प्रेम करता है.




माँ....

"इमली के बीज,
मत खा लेना.
पेट में वरना,
पेड़ निकल आएगा."
नहीं माँ, आत्मा ने,
आशीष के बीज खाए.
देखो ना श्रद्धा के,
कितने वृक्ष निकल आए.





उर्वरा...

डरना मत शम्भू,
अबकी रक्तबीज से.
हमने पूरी धरा,
निचोड़ ली है.
अब कोई बीज,
हरा नहीं होता.

लौ...(छोटी कविता..)


चिंगारी-मशाल,
या फटती पौ.
दीप-चाँद,
या तारे सौ.

भाषा तू,
वर्तनी मेरी.
अंगूठा-अनामिका,
तर्जनी मेरी.

बाण में और,
कटारों में.
बचपन के,
गलियारों में.

रक्त के हर,
एक धारे में.
आँख से बहते,
पारे में.

कर्ण का तू ही,
गुंजन है.
स्पर्श है तू ही,
स्पंदन है.

हार का बल,
तू जीत में है.
तू सुर में है,
संगीत में हैं.

साँसों की तू,
वर्तिका मेरी.
अम्मा सबमे,
तेरी लौ.


समंदर के अन्दर...

जाने कितने सीप-मोती,
छुपाये है अपने अन्दर.
नदियों से रोज छीन कर,
खारा साहूकार समंदर.



अन्दर का समंदर....

बहुत रोज से जमा था,
पूरे बदन के अन्दर.
आँखों से बहाता हूँ,
मैं आज ये समंदर.

मैं शब्दचोर हूँ....


ना तो मेरे पास ज्ञान है,
गूंथ-सहेज सकूँ भाव,
ना ही इतना इत्मीनान है.
शिल्प-चातुर्य तनिक नहीं,
इनसे कलम अनजान है.

रखता हूँ दो जेबों में,
छेनी पिता की-माँ की हथौड़ी.
फिरता यहाँ वहाँ हूँ जब,
मिलती है सहूलियत थोड़ी.

छुटके से उसकी पिचकारी,
गुडिया से उसकी किलकारी.
खीज-कुढ़न-थकान,
गोदौलिया-मैदागिन करते,
ऑटोचालकों से.

जलेबी से रस ज़रा,
समोसों से मिर्ची.
खट्टापन यूँ ही किसी,
चाट के ठेले से.

सज्जनों से दुआ,
अंगीठी से धुंआ.
सचिन के शतक का हर्ष,
केमिस्ट्री प्रैक्टिकल का शोक,
शहर के किशोरों से.

उत्सवों से संगीत,
तरुओं से कुछ बीज.
मिटटी थोड़ी खेतों से,
और परम पवित्रता,
महागंगा से.

कभी मांग लेता हूँ,
कभी लेता हूँ चुरा.
क्रिसमस का महीना है,
सोचा कन्फेशन कर लूँ.


1)

आज आसमान बदरंग है,
मैं गीत नहीं रंग सकता.
माँ को बर्दाश्त कैसे हो,
उसने दी है चुनर धानी....

2)

कहते रहे सब बार बार,
ब्याह दो बिटिया अब,
देखो ना बड़ी हो चली.
अम्मा कैसे मान लें,
अम्मा की वो मंजरी....

दो पहलू...


वो एक्यूपंचर में पारंगत,
मैं स्पर्श महसूस करने में अक्षम.
एक सिक्के के दो पहलू,
दोनों अद्भुत-दोनों विलक्षण.


सुनो!!!
क्या वाकई में तुम,
लौट आये हो,
बन कर दिग्विजयी?
क्या सच में,
किसी ने नहीं थामा,
तुम्हारा अश्वमेघ अभियान?
वाकई में चक्रवर्ती,
बन गए क्या तुम?
क्या वसुन्धरा की,
हर निधि तुम्हारी है?
किसी को भी तुम,
चारण बना सकते हो.
तुम्हारी आज्ञापालन,
धर्म बन गया है.
क्या तुम्हारी सेना,
विराट एवं अजेय है?
बाण तुम्हारे क्या,
वेगवान हैं पवन से?

यही हाँ!!!!
तो सुनो अभिमानी.

जलज-पंकज, पावक-नीर,
लता-पुष्प-परागकण,
किसलयदल तक,
नहीं अधीन तुम्हारे.
मजबूर और चाटुकारों,
की जाति हटा दो.
तो कोई जय तुम्हारे,
नाम की ना उचारे.
नंगे पाँव वट तक आओ,
तो सिखाऊं तुम्हे,
अश्वों की बोली.
तुम्हारे अश्व तक,
हँसते हैं हर प्रहर,
मिथ्या दंभ पर तुम्हारे.

किन्तु यदि तुम्हारा,
उत्तर ना है!!!

तो हे वीरवर!
अखंड तेजवान!
नत हूँ मैं इस,
भाल अरुण पर.
यकीन मानो,
तुम्हारा मौन और स्वर,
तय करते हैं वेग,
जल और अग्नि का.
नीरज-पराग-वल्लरी,
संकल्पित हैं मात्र,
एक मुस्कान पर तुम्हारी.
बैठ विनय की पालकी,
उठ चुके हो तुम,
राज्य देश के ऊपर.
हर सृष्टि कण तुम्हे,
युगान्धर कहता है................

बाँध....


पिघलती है कभी जब,
हर एक नस मेरी,
ख्याल से तुम्हारे.
भावनाओं की बाढ़ से,
ह्रदय में उफान आता है.
बहुत वक़्त हुआ अब,
पलकें रिसने लगी हैं.
या तो दिखा एक झलक,
ये बूंदें धुंआँ कर दो.
या छू लो भावहीन,
ठन्डे हाथों से मुझे.
जम जाए अन्दर ही,
अब हर जर्रा मेरे.
के ये पलकों का,
बाँध अब टूटने को है.

मोजुली...


तपन तो नहीं,
हाँ उमस बहुत थी उस रोज.
यूँ अमूमन जून में,
तपिश भी हुआ करती है.

पर मौसम का मिजाज़,
मुश्किल है समझना.
घर से कोई,
आठ सौ मील दूर.

वैसे भी वो सिर्फ,
पाँचवा दिन ही था,
अखमिया माहौल में मेरा.

कहते हैं आदत,
छूट जाती है,
वक़्त के साथ.
लत नहीं छूटती.

लत....अल्ल सवेरे ही,
निकल जाने की,
पैसेंजेर ट्रेनों में.
खरीद टिकट जो,
मिल जाएँ दे,
जेब के सारे चिल्लर.

बोंगाइगाँव,
शायद सबसे आसानी से,
यही कह सकता था मैं.

कोई १३० मील दूर,
गुवाहाटी से,
छोटा सा मनोरम कस्बा.

निर्जन सड़कों को,
अदद साथी क़ुबूल हो.
आवारा कदम भी,
कुलबुलाते हैं.

नजदीक ही है जोरहट,
यही रहते हैं,
सबसे मीठे असमी,
अनानास जो बहुत खाते हैं.

तभी ब्रम्हपुत्र फ़ैल गई,
यहीं बहुत शायद नेह से.

बरसात में नानी के,
घर के अलावा,
टापू यहीं देखा मैंने.

अनजान जगह संकेत,
कितने अपने होते हैं.
मोजुली जाकर समझी,
मैंने इसकी शिद्दत .

उसे चाय की पत्तियाँ,
चुनते देखना धीमे-धीमे,
आँखों के सुकून का,
सामान था.

डेढ़ साल हुए आज,
किसी ने पूछा,
"कहाँ है मोजुली?"
आज दिल्ली में,
उमस बहुत है ना??


बोंगाइगाँव एक छोटा कस्बा है असम का. वहाँ से कोई ५०-६० किलोमीटर दूर एक और कस्बा (आंचलिक है बहुत) है जोरहट.
वहाँ ब्रम्हपुत्र काफी चौड़ी हो जाती है और नदी में सबसे बड़ा द्वीप वहीँ है...........नाम है मोजुली.
वहाँ लड़कियों का बहुतायत में रखा जाने वाला नाम भी मोजुली ही है.....और असम के लोग असमिया नहीं बोलते...उनका उच्चारण होता है "अखमिया"


काश के होता गुमां,
'छीन लूंगा तुम्हे खुदा से'
करते वादा तुमसे.

के तुम मुझे,
खुदा बना खुद ही,
छोड़ जाओगे यूँ.

तो बजाये तुम्हारी,
बेखुदी से मोहब्बत करता.

ना होता तुम्हारी,
जुदाई का खलल.
ना मुझमे किसी,
खुदा का दखल होता.

कहाँ...


तुमने कितने ही रच डाले,
मीठे-कडवे सुगठित प्याले.
मेरी अनगढ़ सी मिटटी की,
सोंधी सी महक पर कहाँ गई?

अब मैना बहुत फुदकती है,
तोते को मंतर आते हैं.
लेकिन जो मैंने छोड़ी थी,
भोली सी चहक पर कहाँ गई?

पत्थर की चिकनी छाती पर,
कितने डनलप के गद्दे हैं.
लेकिन जो पहले मूज की थी,
वो मेरी खटिया कहाँ गई?

पैनकेक है ओवन में,
और ग्रिल पर गार्लिक पिज्जा है.
पर हरी वो लहसुन की बाती,
वो जली रोटियाँ कहाँ गई?

इस सर्दी को दो मास हुए,
गुड़ का न कोई ठिकाना है.
अब आँख दोपहर खुलती है,
'गुड़ मार्निंग' जाने कहाँ गई?

माँ के जंतर-रक्षा गंडे,
'रिप्लेस' हुए 'रिस्टबैंडों' से.
पर माँ को गले लगाने की,
अब मंशा तक भी कहाँ गई?

बस....


ईर्ष्या की गाथा सा कुछ,
जो तुमने है यूँ ही लिख डाला.
ना पश्चाताप करो उसका,
यूँ सलिल से उसे मिटाओ मत.

आक्रोश नहीं मुझे तुम पर,
मेरा धीर बड़ा अभिमानी है.
प्रलाप विलाप करो मत तुम,
ढोंग क्षमा का दिखाओ मत.

मुझको डुबो, सागर ना कहो.
यूँ ह्रदय जला, दिनकर ना कहो.
और पोत के अब कालिख सा कुछ,
मुझे अपना श्याम बताओ मत.

मन हुआ देख विभोर नहीं,
इस रात की हो अब भोर नहीं.
ये पिघले सीसे मत डालो,
कर्णों को मेरे भरमाओ मत.

अब बीत गए वो प्यार के दिन,
मीठे नखरे-मनुहार के दिन.
बंजर हूँ असर ही नहीं होता,
कोई बीज-कलम लगाओ मत.

आतप अब असर नहीं करती,
मुझे शीत का नाम पता ही नहीं.
मैं गर्म सा एक फफोला हूँ,
सावन की धार गिराओ मत.


मेरा अनुराग...

जो होती हो हिचक,
तो ना कहो बतियाँ.
जो आती हो नींद,
तो ना जागो रतियाँ.
संभव है प्रणय,
ना दे सको तुम.
मुझे भी पर अनुराग,
तुम्हारी स्वतन्त्रता से है.



संस्कार...

बारह के बाद सीधे,
थर्टीन फोर्टीन करने वाले,
रेयान ने नहीं खाया,
बैंगन का भर्ता कभी.
यों उसे हाईवे ग्रिल का,
रोस्टेड एगप्लांट पसंद है.



दूध का गिलास...

पूरे चार साल बाद,
तुम्हे हाथ में पकडे,
याद आये नखरे,
मनुहार, चिल्ल-पों.
और वो गमला,
दूध पीने वाला.
जो कसम से मेरा,
सबसे अच्छा साथी था.




सच...

माँ को तो सदा,
पसीजा ही देखा.
पर पापा तो कहते हैं,
धीरज है उसमे.
हाँ प्रपात भी तो,
निकलते हैं पर्वत से.
पापा सच ही,
कहते हैं हमेशा.




नागफनी...

या तो तुम बंद कर दो,
दिखावा याराने का.
या तो मैं ही फेंक दूं,
दोस्ती के लिहाज़ का लिहाफ.
बड़ा हुआ तुम्हारा बोया,
नागफनी बाहर आने को है.




पैबंद...

आज वक़्त का आखिरी,
पैबंद लगाया है मैंने,
जिंदगी के लिहाफ पर.
इसे अब ना फाड़ना.
सुना है कब्रिस्तान में भी,
बिना कफ़न जगह नहीं देते.




काई...

धूल ना जमे उन पर,
जब तक तुम नहीं आते.
मैंने यादों को तुम्हारी,
आँसुओं में नम रखा था.
बहुत वक़्त हो गया,
अब मत ही आना.
जम गई है मोटी सी अब,
अवसाद की काई वहाँ.





रिमिक्स....

'मिक्स' का दाल-चावल खाना,
नाश्ते में हर सुबह,
कॉर्नफ्लेक्स खाने वाले,
बच्चे को नहीं भाया.
चीथड़े में लिपटा कोई,
पांच घंटे बाद आया.
उठा कूड़े से, ज़रा पानी दाल,
'मिक्स' बड़े चाव से खाया.
जमाना 'रिमिक्स' का है.

अनुज...


बता के मुझे आदर्श,
महान सा भाई.
नायक न्याय का,
बेहद काबिल बेटा.

सर्वगुण संपन्न,
अत्यंत कुशाग्र.
चपल खिलाड़ी,
सुयोग्य,सुदृढ़ मनुज.

सुमेरु सा अटल,
विन्ध्य सा सुशील.
वशिष्ठ सा ज्ञानी,
दधिची सा पुनीत.

सत्य सारथी,
तर्क युगांधर.
चिर गोस्वामी,
'कैरिकेचर' राम का.

यदा कदा मुझे,
यूँ ही कह जाते हो.
मैं नहीं बन पाता भाई,
तुम बिन कुछ कहे,
भरत-लक्ष्मण बन जाते हो.

तेरा ना होना....


दिखता नहीं मैं रक्तिम,
या शायद समर्थ नहीं तुम,
लाल रंग पहचानने में.

अथवा दोषी मुस्कान है,
जिसे अतीव अनुराग है,
मेरे अधरों से शायद.

जो भी हो वाकई,
दर्द नहीं होता मुझे,
या दर्द खुश हैं शायद.

विषम स्थितियों में मित्र,
तुम्हे मित्र कहना कितना,
आनंद दे जाता है मुझे.

चल पड़ता हूँ मैं,
बाँध आँखों पर पट्टी,
एक पतली डोर पर यूँ.

मानो सपाट हो सड़क,
और मैं हूँ निकला,
साथ तुम्हारे सैर पर.

और अब तुम्हारा ना होना,
है नभ के उड़ने जैसा,
मानो शाश्वत अनिश्चित हुआ.

काश दे जाते तुम धोखा,
कोस तो लेता ह्रदय,
ये टीस तो ना होती.

है अधरों पर मुस्कान नहीं,
खुशियों से बची पहचान नहीं,
अब दर्द बिलखते हैं मेरे.


बीती बाईस रातों से,
खिड़की नहीं खोली मैंने.
क्या पता कब कैसे,
चले आयें यहाँ,
तुम्हारे ख्वाब-एहसास.
और जाना पड़े मेरी,
नींद को पलक छोड़ कर.

पर कमबख्त नींद भी ना,
अकेले रहना चाहती है.
पसंद नहीं उसे घर में,
रखा किसी का सामान.
आज मौक़ा पाकर मैंने,
कर ही डाली सफाई जरा.
याद मिली है तुम्हारी.

दो दिन से खडा हूँ,
दरवाजा खोलो ज़रा.
लो अपनी याद संभालो,
मुझे नींद चाहिए मेरी.
या खोलो अपनी खिड़की,
दे दो एक झलक भी.
मैं नींद से किनारा कर लूँ.

मैं लौट सकता हूँ...


दधिची नहीं हूँ मैं,
ना कोई पुण्यात्मा हूँ.
परन्तु अगर मेरे लहू से,
मिलती है शान्ति तुम्हे.

तो तैयार हूँ मेरे मित्र,
निचोड़ लो मेरी हर धमनी.
या कहो तो मैं ही,
खींच दूँ शिरायें अपनी.

मगर बस मेरा ही,
लहू हो अंतिम गिरा.
इसके बाद ना रंगनी चाहिए,
फिर से ये लाल धरा.

मद में ना आना,
सज्जन-परिहास ना करना.
मैं नहीं हूँ सोच कर,
बेवजह अट्टाहास ना करना.

वरण मेरे धीरज की राख,
उठ खड़ी होगी उसी क्षण.
उनका ताप प्रचुर है,
उन्ही में तुम्हे मिलाने को.


राग-द्वेष ना इर्ष्या हममे,
तुम सा सड़ा नहीं करते.
एक बार जलते हैं भक से,
नित रोज जला नहीं करते.

कीड़े खा कर खाद बनाएं,
लालच के कोढ़ पडा नहीं करते.
गिद्ध भले ही खा ले कभी,
अपनों से पेट भरा नहीं करते.

शांतचित्त करते हैं साधना,
हवन में होम हुआ नहीं करते.
पुण्य-पाप नहीं गिनते हैं,
ढोंग से अड़ा नहीं करते.

अपने जैसों को ही डराओ,
हम तुमसे डरा नहीं करते.
मौत का डर हो तुम्हे मुबारक,
मुर्दे मरा नहीं करते.

लिखूं तो...


स्वप्न लिखूं,
या श्वास लिखूं.
कंठ लिखूं या,
प्यास लिखूं.

मिथ्या दर्पण,
सत-प्रतिबिम्ब,
धोखा या,
विश्वास लिखूं.

चहक लिखूं या,
महक लिखूं.
बहुत दूर या,
पास लिखूं.

शांत मृदुल,
और कांतिमय.
या फिर हो,
बदहवास लिखूं.

अम्बर पर,
साधारण सा.
या धरती पर,
ख़ास लिखूं.

कल का टूटा,
सा एक सपना.
या कल की,
कोई आस लिखूं.

बबूल लिखूं,
गुलाब लिखूं.
बैठ दूब की,
घास लिखूं.

मीत बिछोह की,
व्याकुल पीड़ा.
मिलन का या,
आभास लिखूं.

तेज सूर्य का,
मील के पत्थर.
या विजयी,
आकाश लिखूं.

दूँ मतलब,
कविता को कोई.
या तो फिर,
बकवास लिखूं.

यूँ तो विषय,
बहुत हैं अम्मा.
मैं तुम पर ही,
काश लिखूं.


वो बोला नहीं करती,
या बोलती नहीं मुझसे.
या मैं ही रहता हूँ,
अनसुना-अनसुना सा.

चिलम जलाते अब्बा की,
या खींचते पानी कुँए से.
छागली के साथ खेलते भी,
बोला नहीं करती वो.

यूँ भी चिलम चिराग,
बाल्टी-कुंआ, छागली को,
जरुरत कहाँ है किसी,
ऐसी भी बातचीत की.

मेरी छुटकी भी तो,
ऐसी ही दिखती है.
हाँ बोलती बहुत है,
पटर पटर चारों पहर.

बोल पड़ी वो भी उस रोज,
"भाईजान! नए हैं रावलपिंडी में?"
क्या वाकई कुछ नया है?
"नहीं बहन, पड़ोस के गाँव से."

पत्थर का सनम...


क्यूँ कर लेते हो यूँ,
कभी कभी अचानक.
क्यूँ बना देते हो,
बेवजह मुझे खुदा.

अगले ही पल फिर,
जैसे मेरा होना भी.
महसूस नहीं कर पाते,
बेखबर से तुम.

देखो मुझे आदत नहीं,
यूँ लहरों पर चलने की.
तलब मेरे क़दमों को,
बराबर जमीन की हैं.

देख के तनिक ख़ुशी,
चहक चहक जाती हूँ.
और जब होते हो दूर,
छलक छलक जाती हूँ.

हो सकता है तुम्हे,
पसंद हो ये अल्हडपन.
या शायद प्रधानता,
चाहता हो तुम्हारा मन.

पर देखो,समझो,
कभी मेरी कही भी.
ना बनो दुष्यंत,
शकुन्तला नहीं मैं.

इसी दुनिया की हूँ.
अलौकिक कहना तुम्हारा,
ख़ुशी नहीं देता,
कचोटता है मुझे.

जब तुम उतारोगे,
इस मोहिनी चोगे को.
वो टीस मेरे पोरों से,
फट फट के निकलेगी.

देखो ना मैंने तो,
बस प्रीतम कहा तुम्हे.
अपना समझो बस,
और कुछ नहीं माँगा.

कब बनाया मंदिर,
कब सजाई मूरत.
जो कभी तोड़ कहूँ,
तुम्हे पत्थर का सनम...............

यकीन...मेरा तुम्हारा...


उदय दिवाकर,
आज हुआ है।
शर्त लगा लो,
पश्चिम से।

उसने कहा था,
ना आऊं तो।
सूर्य उगेगा,
पश्चिम से।

गंगा का पानी,
ना छुओ।
कल-कल ये,
ना करती है।

उसने कहा था,
प्रेम बहेगा।
जब तक,
धारा बहती है।

अनल में ज्वर,
और जल में कम्पन।
किंचित भी,
पर्याप्त नहीं।

उसकी सौगंध,
रहनी थी व्यापक।
जब तक होते,
पावक-नीर समाप्त नहीं।

उसके वचनों की,
खातिर मैंने।
अम्बर धरा,
भुलाई है।

जाने उसने,
कैसे शक कर।
मुझमे आग,
लगाई है.


तिनका तिनका झड़ पड़े,
लट्ठ सहज बलवान।
लेकिन किसको तैरना,
जल को इसका ज्ञान।

पीर से पूरा भीग के भी,
तिनका आता काम।
उसको देता तैरने,
नीर का कृत्य महान।

धारण खुद में कर सके,
करे इच्छित कल्याण।
भार हीन बन जाए वो,
और पाए सम्मान।

लट्ठ काट जब नाव बने,
छोड़ दंभ अभिमान।
धारा सीना चीर के,
मार्ग दे स्वयं तमाम.