काँच...(छोटी कविता..)




रोज चुभते हैं,
जलते गलते.
ना जाने कितने ही,
काँच के टुकड़े.

लाल रंग मुझे,
छोड़ देता है.
आँखें छलका देती हैं,
थोड़ा सा नमक.

अब तो आत्मा,
में भी दर्द नहीं.
जमे हैं केवल,
काँच के टुकड़े.

नज़रें चूकने से पहले,
एक अरमान है गुडिया.
देखूँ तुझे पहने,
हरे काँच की चूड़ियाँ.

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