बाँझ...

अविरल तेरा ज्ञान मनुज,
है अप्रतिम तेरी सोच।
कीर्ति फैली चंहू दिशा में,
सकी ना कस्तूरी खोज।

जिस पिता का एक निवाला,
कल तक था बुड्ढा बोझ।
उसके भूखे मरने पर देता,
सौ ब्राम्हण को मृत्यु भोज।

इक चौरा तुलसी का अंगना,
और तनिक गंगाजल।
माँगा नहीं कभी था तुझसे,
माणिक जडित धरातल।

क्यूँ पढ़ डाली गीता तूने,
दिए काण्ड सब बांच।
स्नेह नहीं वारा जीवन में,
अब देता चन्दन आँच।

उसका तरण भला हो कैसे,
खेवे कौन भव नैया।
दंभ में देता, ना के शोक में,
बेटा दान में गईया।

ऐसी संतति की उत्पत्ति,
से अच्छा है रहना बाँझ।
दिवस में ही संज्ञान रहेगा,
कब है उतरनी साँझ.

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