अधूरा उपन्यास....

निकल के चौदहवें,
पन्ने से अहा.
अपने धानी लिबास में,
वो आई निशा ओस नहा.

मैं हाथों में लालटेन धरे,
उसे बस एकटक देखता रहा.
चमकती रही वो बेइन्तेहान,
मैं भी बेपनाह जलता रहा.

मैं तो सब जानता हूँ,
गम सारे, खुशियाँ भी सभी.
कहो तो बदल डालूँ सारे,
किरदार सभी नाम अभी.

सोचा के पूछ लूँ ये नाम,
ठीक है की नहीं.
पर ना मैंने ही कहा,
ना बात कोई उसने कही.

मुझे खटका तो लगा,
ऐसा ना पहली बार हुआ.
मेरे दूसरे उपन्यास की नायिका,
को भी मुझसे प्यार हुआ.

सुबह उपन्यास के पन्ने,
थे बिखरे चारों तरफ.
जैसे हो रात में,
रद्दी का कारोबार हुआ.

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