हाथों की लकीरें....

एक टेढी, एक सीधी,
दो टूटी, कुछ खुरची.
कुछ मोटी, कुछ पतली,
कभी बँटती, कभी जुड़ती.
मेरे गाँव की पगडण्डी सी,
है मेरे हाथों की लकीरें.

वो हथेली के तीन अन्गुलद्वीप,
जैसे खेत हों सुजानसिंह के.
छोटे हैं पर कर्मठ छालों से,
लहलहाती है सरसों की बाली.

अंगूठे के ठीक नीचे ही,
जो बड़ा मैदान है ना?
बाँध रखा है जीवनरेखा ने,
जिजीविषा के अठान से.

हाँ वही सूखे से कटा-फटा,
पर मेघ आयें ना आएं.
हल तो चलेगा औ यकीनन,
गेँहू उपजेगा इस बार.

और कलाई के पास,
भरा इलाका है भाग्य का.
वहां हम सब्जियाँ उगाते हैं,
मौसमी नसीब का क्या भरोसा.

कभी फसल अच्छी हो जाती है,
तो रब की हज़ार मेहर है.
वरना मेड़ों पर हथेली किनारे,
आम हैं अचार के लिए.

इस साल नहीं हुई बरसात,
देखो बीच हथेली का गड्ढा.
कई नहरे नालियाँ बनाई हैं.,
अबकी धान ना सूखने देंगे.

जब भी बहुत याद आती है,
खोल लेता हूँ हाथ अपने.
मेरे गाँव की पगडण्डी सी,
है मेरे हाथों की लकीरें.

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