क्यूँ चाँदनी को?

ये जो दिखता है ना,
सच नहीं केवल इतना ही।
धरती के उस पार भी,
रहता है एक चाँद।

अरे नहीं अग्रज-अनुज,
आश्चर्य ना करो।
ना सिकोडो भौहें अपनी,
सँझा के पारिजात सी।

हाँ चांदनी एक ही है,
निश-दिन अम्बर पर।
दौड़ती रहती सरपट,
फैली बेचारी चंहुओर है।

दिवस में दो बार,
लांघती है धरा को।
पूर्ण करने धर्म अपना,
दोनों ही शिशिरों के प्रति।

एक दिन भी छुट्टी ले तो,
चांदनी पर लान्छन लगा है।
ना हमारा असफल चाँद,
ना अमावास ही अधम हुआ है।

नहीं नहीं अभी तक मैं ,
मानसिक रोगी नहीं हुआ।
ना ही आपके भौतिक,
विज्ञान के विपक्ष में खडा हूँ।

किन्तु कभी किरण कभी चांदनी,
सूर्य की बेटी को बस काम हैं।
आग उगलता दिनकर और,
पत्थर चंद्रदेव पूज्य-महान हैं।

प्रश्न इतना है मेरा चल-अचल से,
क्यूँ यूँ दोमुहे आयाम हैं?
ऐसा तो नहीं चाँदनी नारी,
सूर्य चन्द्र अमावास पुरुष नाम हैं?

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