सात क्षणिकाएं...

माँ..

माँ को मेरा,
क्रिकेट खेलना,
कभी पसंद,
नहीं आया.
मेरे छिले घुटने,
आंसुओं से धोती थी.


पापा...

कभी कोई हठी,
मुनि देखना हो,
तो मुझसे कहना.
वो मेरे लिए,
एक टांग पर,
२३ साल से,
खड़े हैं.



रुकुह..

ये जो तन के,
निकलता हूँ न,
सरेराह.
नतीजा है जो,
रूह करती है,
माँ बाप को,
उस रुकुह का.



क्षितिज...

तुम मुझे,
आसमान कहती थी.
मैं तुम्हे धरा.
हमें क्षितिज,
मिला नहीं.
तुम्हे यूँ ही,
जाता देखता रहा.



कद मेरा...

गिर कर घटा नहीं,
चढ़ कर बढा नहीं.
ना अकडा ख़ुशी में,
गम से भी डरा नहीं.
कीमत बताता है,
मेरी निगाहों को,
कद मेरा.



सुन पुरवा...

छोड़ ना दें क्यूँ,
भावहीन ये जंगल.
गारे, कंक्रीट और सरियों में,
ठ्नते लोगों के दंगल.
आ अमराई तक पुरवा,
आ पछुआ संग लौट चलें.



हद है...

जब नहीं खता,
एक रोटी ज्यादा.
करता हूँ नखरे,
गंडे-ताबीज बाँधने में.
खडा हो जाता हूँ,
मंदिर के बाहर.
खा लेता हूँ ग्रहण में,
बिना तुलसी के निवाले.
मुझसे तो हो नहीं सकती,
माँ पापा से नाराज होती है.

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