मेरी कलम से.....

दीदी के लिए

कौन पुण्य जो फल आयी हो?
दीदी तुम जैसे माँ ही हो।
पुलकित ममता का मृदु-पल्लव,
प्रात की पहली सुथराई हो।
       
मेरे अणुओं की शीतलता,
मनः खेचर की तरुणाई हो।
किस दिनकर की प्रखर प्रभा हो?
विभावरी से लड़ आयी हो।
       
शुभ्र दिवस, क्षण हुए सुभीते,
स्नेह कुम्भ तुम, जो ना रीते।
दीप्त तुम ही मेरे ललाट पर,
आँख से तुम ही बह आयी हो।
     
हा दीदी! लिखती हो कैसे?
रोती होगी, मैं अनजान!
बूझ नहीं पाता हूँ जब-तब
क्यों हहरा करते मन-प्राण?
     
आज तुम्हारा पत्र खोल कर,
कर पाता हूँ कुछ अनुमान।
कैसे अश्रु झिपों से झर के,
लिखते होंगे मेरा नाम।
     
भरना दीठ नयन में मेरी,
और विहँस उठना यह जान।
वर्ण-वर्ण पढ़ पत्र तुम्हारा
बिलख रहे हैं मेरे प्राण।
     
हर्ष का यह अतिरेक है दीदी,
जिससे भींजे विह्वल प्राण। 
दिन विशेष की बात नहीं है,
जीवन भर का है अभिमान।

उस एक क्षण में...

साँझ के उस पार,
पैर लटकाए हुए तुम
क्या क्या बड़बडाये जाते हो।
और जब चिढ कर,
लगाता हूँ तुम्हे आवाज!
कर्कश!
तो पलट कर टिका देते हो दृष्टि,
बाँध देते हो चितवन


मैं पलकों के संपुट खोल,
सहेजने लगता हूँ तुम्हारी दीठ

मेरा स्व मुझसे हार जाता है
विवाद प्रतिवाद सभी वादों में

मैं उस ऊँचे नीले वितान पर
आँज देना चाहता हूँ यह रूप


मेरी सारी सम्वेदनायें
गुम्फित हो उठतीं हैं

मेरा मैं विस्मृत!
मेरा संचित अदृश्य

मेरा प्राप्य अलभ्य!
मेरा ईष्ट समीप!

तुम्हारे अधर हिलते हैं
मैं समझ लेता हूँ,
सुन नहीं पाता


तुम्हारा क्षण भर का स्पर्श
करता है संचरित राग-महाराग

जीवन अपनी गति छोड़
करने लगता है विश्राम

चिरकाल से नभ में फैला प्रकाश,
समा जाता है चेतना में

वेदना की काई घुल कर,
निकल आती है पोरों से


मेरे भीतर बस बचते हो
तुम, तुम्हारा प्रेम,
उसकी विरल अभिव्यक्ति

और वह अलौकिक चित्र,
जिसे कोई तूलिका चित्रित नहीं कर सकती

वह संगीत जिसे रचने में,
सारी वीणाएँ-वेणु अक्षम हैं




आयु भर आशीष



झुण्ड से छूटा, साथ से रूठा,
एक था बिचड़ा गिरा यहाँ।
गीति के नवजात शिशु को,
मरने देती क्षिति कहाँ।

पावस में घिर आते शत घन,
बाकि दिव सुथराई के कण।
धमनी-धमनी स्थान रुधिर के,
माँ का संचित नेह बहा।

सूर्य रश्मियाँ पुष्ट बनाती,
विधु की किरणे थीं दुलरातीं।
और मृदुल नभ के तारागण,
हर अठखेली पर मुस्काते।

तृण के नोक ललाट चूमते,
अलि धावन के बाद घूमते।
वल्लरियाँ थीं दीठ बचातीं,
गिरते पर्णों ने मीत कहा।

दिवस बीतते, रात बीतती,
शीतलता औ घाम बीतती।
बालक ने आशीष मान कर,
सबको दे सम्मान सहा।

बारी-बारी सब ऋतुओं ने,
भांति-भांति के पाठ सिखाये।
पराक्रमी कर्ष-मर्ष कौशल पर,
वानीर झुण्ड ने हाथ उठाये।

गभुआरे नन्हे कोमल तन,
को सालस थपकाती गन्धवह।
चीं-चीं मर्मर क्षिप्र ही गढ़ कर,
खग कीटों ने गीत कहा।

खेचर नित आशीष वारते,
गहते हाथ, औ मूंज बाँधते।
"रागों में तुम वीतराग हो!"
"हो अलोल!"- यह बोल उचारते।

मौलसिरी ने आसव छिडका,
नीप-तमाल ने नेह से झिड़का।
आम छोड़ के उतरी कोयल,
कान में गुपचुप प्रीत कहा।

नियति-नटी अपनी गति खेली,
सुभट शाख किंकिणियाँ फूलीं।
जिसने देखा वही अघाया,
"उत्तरीय तुम्हारा स्वर्ण!"- कहा।



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बिचड़ा - नन्हा पौधा ;सुथराई - ओस ;रुधिर - रक्त ;विधु - चंद्रमा ;तृण - घास ;गन्धवह - वायु ;खेचर - पक्षी ;किंकिणियाँ - घुंघरू


अदृश्य

प्रात की पहली किरण पर,
शब्द उग आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ पत्र में लिख दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

मन के वन की वीथियों में,
पुष्प झर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ इत्र में गढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

रेत पर फेनिल लहर से,
रंग भर आत़े स्वयं जो,
सोचता हूँ चित्र में भर दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

भेंट कर दूँ मौन को,
मैं गंध को, हर रंग को।
सोचता हूँ सामने पढ़ दूँ,
या यूँ ही भेंट कर दूँ।

मौन बैठे हुए...




पिता! तुम बूढ़े नहीं हो रहे।
नहीं घट रही है तुम्हारी,
डेसिबल आंकने की क्षमता।
सिक्स बाई सिक्स देखने भर ज्योति,
अभी भी है नेत्रों में।
किंचित अधिक ही हो गई है।

तुम छोड़ सकते हो एक और रोटी,
खींच सकते हो साइकिल,
और दसेक मील।
गदरा उठती है भिनसारे,
कुछ और तुम्हारी केशराशि।
फिरा सकते हो अकेले हेंगा तुम,
निश्चय ही हल चला सकते हो।

नहीं सकुचा रही तुम्हारी छाती।
आज भी नहीं जीतता है जनेऊ।
नहीं टूटते रोयें तुम्हारे।
कलाईयों का बल नहीं थमा,
स्कंध विपन्न नहीं हो पाए हैं।

पिता! नहीं उगे गड्ढे तुम्हे।
नेत्र ज्योतित हैं पुंज-पुलकित।
दंतपंक्ति आज्ञाकारी छात्रों की भांति,
सुन्दर पुष्ट प्रयत्नशील हैं।
रुक्म ललाट नहीं भेद पाए हैं,
झुर्रियों के समवेत प्रहार।

यह मैं नहीं कहता तुमसे,
तुम मौन बोलते-पढ़ते आए हो।
ममता नेह आँचल टपकन,
हहरते लहरते मन के बीच,
मौन बैठे पिता, तुम जानते हो,
आयु नहीं होती उसकी,
आकाश कभी बूढा नहीं होता।

क्षीण मन








चुक गए सब द्वंद ऐसे,
टूटते हों बंध जैसे।
मुक्ति का उच्छ्वास भर के,
गीत फिर से मन रचो।

रोर वाली या अबोली,
तुमने क्रीड़ा द्युत खेली।
प्राण में ज्योति जगा के,
गीत फिर से मन रचो।

लौह का पथ, लौह कंटक,
गोत्र इस्पाती रहे।
खींच दो वल्गा समय की,
वो जो उत्पाती रहे।

श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
आस की वातास का तुम,
गीत फिर से मन रचो।

तुमने सौ-सौ बाण मारे,
सिंह मारे श्वान मारे।
मार्ग किन्तु यह नहीं वो,
जहाँ पग धर घर चलो।

टेरना बिन लक्ष्य बेमन,
बिन दिशा किस काम का?
आँख का पानी गिरा कर,
गीत फिर से मन रचो।

श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
लुंठित औ भरमाये मन का,
स्थान कोई है नहीं।

तोड़ के कारा सभी अब,
आगे ही आगे बढ़ो।
श्वास क्षीण ही सही,
गीत फिर से मन रचो।

देह चटकती रही है,
ताप से संताप से।
वीणा रुक्म लाल है,
स्वेद के आलाप से।

सूर्य चन्द्र श्वेत हैं,
और सभी श्वेत श्याम हैं।
दिन वही रात्रि वही,
भूत वर्तमान है।

स्नेह के दो क्षण मिलें,
वह नेत्र में धंस जाएँगे।
स्वयं को क्षमा कर सकें,
वह वचन न बोले जाएँगे।

एक ही विमा रहे,
अकेले ही विजन पर चलो।
श्राप मन के धुल सकें,
गीत फिर से मन रचो।

चिर प्रणय का स्पर्श था,
नित अधर पर डोलता।
अँगुलियों का पोर,
अभीप्सित लालसा टटोलता।

थे सुमन अनुराग के,
हर वृन्त पर सजे हुए।
पुष्प-रेणु और अलि,
निकुंज स्वत सहेजता।

मुदित वह जो नीड़ था,
अस्पर्श्य है, अतिदूर है।
पुरातन बंधन, तुम्हारे
मद से चूर-चूर है।

ग्लानि फेफड़ों में भर,
आगे ही आगे बढ़ो।
श्वास क्षीण ही सही,
गीत फिर से मन रचो।

अनल तुम, समिधा तुम्ही,
तुम ही अग्निधान हो।
यज्ञ में स्व के स्वयं को,
स्वयं होम तुम करो।

श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,
स्थान कोई है नहीं।
आस की वातास का तुम,
गीत फिर से मन रचो।



#The Weary Kind (Crazy Heart) सुनने के बाद ये है, जो है।

अबोले ही..



सूर्य से कंधे मिलातीं,
दूर वह जो चोटियाँ हैं।
पार उनके एक क्षण को,
मैं उतरना चाहता हूँ।

चाहता हूँ खींच डालूँ,
डोर सतरंगी धनुष की।
मैं प्रभा की सीढ़ियों से,
हो उतरना चाहता हूँ।

ग्राम से हेमंत के जो,
निकलती नदी है बारहमासी।
मैं उसी के छोर को,
एक बार छूना चाहता हूँ।

चाहता हूँ हाथ में भरना,
समय की रेत के कण।
मैं उन्हें फिर इस नदी में,
होम करना चाहता हूँ।

रीतते जल के वलय में,
हैं झाँकती मेरुप्रभाएँ।
सीप सम्मोहन विवर सब,
तोड़ देना चाहता हूँ।

चाहता हूँ क्रीक बन कर,
थाम लेना यह सरिता।
मैं समय पर ही समय को,
रोक लेना चाहता हूँ।

मैं बनैली वीथियों से,
श्याम संझा टूटने तक।
लोबान का एक ढेर ऊँचा,
ढूँढ लेना चाहता हूँ।

चाहता हूँ भींज लेना,
ओस की पहली लहर में,
धूम्र में आँसू सुखा के,
धीर धरना चाहता हूँ।

वह कुशलता जो लहर को,
वायु की भांति झुलाए।
नेह के पथ की विमा भी,
ऐसी ही करना चाहता हूँ।

चाहता हूँ भेंट तुमसे,
जो कि है कब से प्रतीक्षित।
ज्योति चुक सकने से पहले,
नेत्र भरना चाहता हूँ।

पात पुरइन के हों फूले,
यूथियाँ भर शाख झूलें।
मय जलज की छोड़ सरसी,
मैं पुष्प किंशुक चाहता हूँ।

चाहता हूँ मैं विजन पर,
एक पग प्रस्थान करना।
और सम पाथेय तुमसे,
'मित्र' सुनना चाहता हूँ।