मौन बैठे हुए...




पिता! तुम बूढ़े नहीं हो रहे।
नहीं घट रही है तुम्हारी,
डेसिबल आंकने की क्षमता।
सिक्स बाई सिक्स देखने भर ज्योति,
अभी भी है नेत्रों में।
किंचित अधिक ही हो गई है।

तुम छोड़ सकते हो एक और रोटी,
खींच सकते हो साइकिल,
और दसेक मील।
गदरा उठती है भिनसारे,
कुछ और तुम्हारी केशराशि।
फिरा सकते हो अकेले हेंगा तुम,
निश्चय ही हल चला सकते हो।

नहीं सकुचा रही तुम्हारी छाती।
आज भी नहीं जीतता है जनेऊ।
नहीं टूटते रोयें तुम्हारे।
कलाईयों का बल नहीं थमा,
स्कंध विपन्न नहीं हो पाए हैं।

पिता! नहीं उगे गड्ढे तुम्हे।
नेत्र ज्योतित हैं पुंज-पुलकित।
दंतपंक्ति आज्ञाकारी छात्रों की भांति,
सुन्दर पुष्ट प्रयत्नशील हैं।
रुक्म ललाट नहीं भेद पाए हैं,
झुर्रियों के समवेत प्रहार।

यह मैं नहीं कहता तुमसे,
तुम मौन बोलते-पढ़ते आए हो।
ममता नेह आँचल टपकन,
हहरते लहरते मन के बीच,
मौन बैठे पिता, तुम जानते हो,
आयु नहीं होती उसकी,
आकाश कभी बूढा नहीं होता।

19 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मौन बैठे पिता, तुम जानते हो,
आयु नहीं होती उसकी,
आकाश कभी बूढा नहीं होता।

पिता के प्रति मन में उठाने वाली सुंदर संवेदनाएं... बहुत अच्छी रचना

संजय @ मो सम कौन... said...

’बहुत खूबसूरत भाव’ सिर्फ़ यही कह सकता हूँ - ऐसे प्रस्फ़ुटन पर सबसे पहले हाजिरी लगाने का लोभ कौन छोड़े?

संजय @ मो सम कौन... said...

दो नंबर भी बुरा नहीं:)

Anupama Tripathi said...

पिता के प्रति अनमोल भाव से सजी ....खूबसूरत रचना ...

प्रवीण पाण्डेय said...

आकाश कभी बूढ़ा नहीं होता है..सुन्दर भाव..पिता आकाश समान ही होता है..

सतीश पंचम said...

शानदार !

Rahul Singh said...

नयी दृष्टि, ताजगी भरी.

Smart Indian said...

:)
[टिप्पणी लिखी मगर हटा दी - मगर मन पुलकित है]

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

कुछ पोस्ट ऐसी होती हैं जिनपर मैं सिर्फ एक ही कमेन्ट करता हूँ.. "............." मौन और श्रद्धावनत!!

प्रतिभा सक्सेना said...

यहाँ क्या लिखूँ, सोच नहीं पा रही फिर भी -

पिघल कर बह नहीं पाता ,
उमड़ कर कह नहीं पाता ,
पिता ,
अदृश मूल सा आधार
बिखर-बिखर ढह नहीं पाता!
*

प्रतिभा सक्सेना said...

यहाँ क्या लिखूँ, सोच नहीं पा रही फिर भी -

पिघल कर बह नहीं पाता ,
उमड़ कर कह नहीं पाता ,
पिता ,
अदृश मूल सा आधार
बिखर-बिखर ढह नहीं पाता!
*

Abhishek Ojha said...

...

हरकीरत ' हीर' said...

मौन बैठे पिता, तुम जानते हो,
आयु नहीं होती उसकी,
आकाश कभी बूढा नहीं होता।..

अंतिम पंक्तियों में कविता की जान है ....

कमाल लिखते हैं अविनाश जी आप भी ....

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

.



प्रियवर अविनाश जी
नमस्ते !

भाव भरी रचना !
यहां आते-आते मन द्रवित हो गया…
आकाश कभी बूढा नहीं होता
वर्ष 2002 में प्रकाशित मेरी राजस्थानी पुस्तक में समर्पण में मैंने भी पिता को आकाश-स्वरूप ही लिखा था …

आभार !

समय मिले तो निम्न लिंक पर मेरी रचना पढ़-सुन कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें

आए न बाबूजी



हार्दिक शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

पिता को आपकी यह शब्दांजलि अद्भुत है। आप सौभाग्यशाली हैं जो पिता का आकाश संबल आपके सर पर है। बहुत अच्छी कविता।

Satish Saxena said...

आकाश कभी बूढ़ा नहीं होता ....
यह रचना एक पिता के लिए यह बेहतरीन सौगात है !
आभारी हूँ आपका !

Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता said...

आपकी यह कविता बहुत दिन पहले पढ़ कर गयी थी - आज सर्च बॉक्स से खोज कर फिर यहाँ पहुंची हूँ |

बहुत सुन्दर सन्देश है यह - आभार |

सच ही - आकाश कभी बूढा नहीं होता ...

Himanshu Pandey said...

यह मेरी आवाज-सी, मेरी संवेदना-सी चीज है जो यहाँ शब्दों में आपने उकेरी है। मौन-स्तब्ध और सजल-सहिष्णु यह कविता पढ़ रहा हूँ, और सामने बैठे अपने पिता को कवितायें लिखते निरख रहा हूँ।

हार्दिक आभार।