अबोले ही..



सूर्य से कंधे मिलातीं,
दूर वह जो चोटियाँ हैं।
पार उनके एक क्षण को,
मैं उतरना चाहता हूँ।

चाहता हूँ खींच डालूँ,
डोर सतरंगी धनुष की।
मैं प्रभा की सीढ़ियों से,
हो उतरना चाहता हूँ।

ग्राम से हेमंत के जो,
निकलती नदी है बारहमासी।
मैं उसी के छोर को,
एक बार छूना चाहता हूँ।

चाहता हूँ हाथ में भरना,
समय की रेत के कण।
मैं उन्हें फिर इस नदी में,
होम करना चाहता हूँ।

रीतते जल के वलय में,
हैं झाँकती मेरुप्रभाएँ।
सीप सम्मोहन विवर सब,
तोड़ देना चाहता हूँ।

चाहता हूँ क्रीक बन कर,
थाम लेना यह सरिता।
मैं समय पर ही समय को,
रोक लेना चाहता हूँ।

मैं बनैली वीथियों से,
श्याम संझा टूटने तक।
लोबान का एक ढेर ऊँचा,
ढूँढ लेना चाहता हूँ।

चाहता हूँ भींज लेना,
ओस की पहली लहर में,
धूम्र में आँसू सुखा के,
धीर धरना चाहता हूँ।

वह कुशलता जो लहर को,
वायु की भांति झुलाए।
नेह के पथ की विमा भी,
ऐसी ही करना चाहता हूँ।

चाहता हूँ भेंट तुमसे,
जो कि है कब से प्रतीक्षित।
ज्योति चुक सकने से पहले,
नेत्र भरना चाहता हूँ।

पात पुरइन के हों फूले,
यूथियाँ भर शाख झूलें।
मय जलज की छोड़ सरसी,
मैं पुष्प किंशुक चाहता हूँ।

चाहता हूँ मैं विजन पर,
एक पग प्रस्थान करना।
और सम पाथेय तुमसे,
'मित्र' सुनना चाहता हूँ।



29 टिप्पणियाँ:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

"पुष्प की अभिलाषा के बाद आपकी ऐसी स्वर्गिक अभिलाषाएं देखने को मिली हैं.. परमात्मा आपकी समस्त अभिलाषाएं पूर्ण करें!
एक अभिलाषा इस क्षुद्र प्राणी की भी है:
चाहता हूँ भेंट तुमसे,
जो कि है कब से प्रतीक्षित।
ज्योति चुक सकने से पहले,
नेत्र भरना चाहता हूँ।

देखें महानुभाव कब इसका सौभाग्य मुझे प्रदान करते हैं!!
साधुवाद, इस कविता के लिए!!

Anupama Tripathi said...

अबोले ही कितना कुछ कह रही है ...
शरद की ओस सी झर रही है ....
गुलाबी पंकज सी खिल रही है ...
बहुत सुंदर रचना ...

Ravi Shankar said...

धन्य देव !

आपके शब्द छू जायें नयन को तो सब सार्थक लगने लगता है ! बड़े दिनों बाद तृप्त हुआ मन…

साधु-साधु !

Smart Indian said...

निर्मल भावना! बहुत सुन्दर!

प्रतुल वशिष्ठ said...

कविवर अविनाश जी,
आपकी अभिलाषाओं में गेयता भरपूर है....
आपकी कविताओं का परोक्ष प्रभाव 'श्रेष्ठ लेखन' को प्रेरित करना भी है.
हल्की तुकबंदियों को लज्जित कराना भी है.... और ये दोनों भाव मन में आते-जाते हैं.

सुझाव:
'निकलती नदी है बारहमासी' में ........ 'है' पाषाणवत् प्रवाह को रोक रहा है... हटा दीजिये.

Avinash Chandra said...

सलिल जी,
क्यूँ लज्जित करते हैं, आता हूँ शीघ्र ही दर्शन करने मैं। :)

Avinash Chandra said...

प्रतुल जी,

मुझे तो 'है' के साथ ही अधिक गेय लग रहा है। संभव है कि लिखते समय से ही इसीकी आदत पड़ी हो, तो बाधक नहीं हो रहा।

आभार आपका जो आप इतना समय देते हैं।

rashmi ravija said...

चाहता हूँ क्रीक बन कर,
थाम लेना यह सरिता।
मैं समय पर ही समय को,
रोक लेना चाहता हूँ।

पूरी कविता ही बेहद प्रभावपूर्ण है...बिलकुल एक सरिता सी बहती हुई...

प्रतुल वशिष्ठ said...

अविनाश जी,
गेयता के लिये सारी जोड़-तोड़ कर डाली... लेकिन बार-बार असफल हो रहा हूँ.... :)
हाँ... ये सच है कि आप रचनाकार होने के कारण उन भावों के सबसे करीब हैं, जिन भावों को आत्मसात करने के लिये मैं दोहरावट में लगा हूँ.
फिर भी रचना के भाव पढ़ और सुन लेने के बाद सभी सहृदयों के हो जाते हैं.... इस दृष्टि से आपने एक श्रेष्ठ कृति को जन्म देखर अनेक को अपना बना लिया.
शुभकामनाएँ.

दिगम्बर नासवा said...

चाहता हूँ हाथ में भरना,
समय की रेत के कण।
मैं उन्हें फिर इस नदी में,
होम करना चाहता हूँ ...

बहुत ही लाजवाब पंक्तियाँ हैं ... आपकी अभिलाषा पंक लगा के उड़ रही है ... सुन्दर कविता ... प्रवाह मय ...

प्रवीण पाण्डेय said...

अद्भुत संरचना, बस पढ़ते गये, बस रमते गये..

संजय @ मो सम कौन... said...

ऐसी निश्छल कामनाएं,
हर हृदय में जन्म लें।
भावना निर्मल हों एकदम,
मैं भी ऐसा होना चाहता हूँ।

Abhishek Ojha said...

अद्भुत ! ... हो सकता है कि कविता/गीत का पसंद आना मन की अवस्था पर निर्भर करते हों. जो भी कारण रहा हो, पर मैंने ४-५ बार पढ़ा इसे. शेयर कर रहा हूँ गूगल पर.

आपकी कई कवितायें पढ़ी है. लेकिन लग रहा है ये मेरी पसंदीदा है. (इसीलिए कहा कि मन की अवस्था भी हो सकता है. निस्संदेह आपकी बाकी रचनाएँ भी अद्भुत होती हैं.)

एक अनुरोध है - इसका ऑडियो डालिए, अपनी आवाज में. जरूर.

प्रतिभा सक्सेना said...

जैसी अभिलाषा, अभिव्यक्ति हेतु वैसी ही मनोरम बिंब-योजना! और भाषा? चमत्कृत हो रहती हूँ हमेशा.

'हेमंत की पतझरी शुष्कता में जिस नित्य-सलिला का उत्स है उस में समय की रेत के कण होम करने की चाह' -विलक्षण उद्भावना !

Anupama Tripathi said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल सनिवार 04-02 -20 12 को यहाँ भी है

...नयी पुरानी हलचलपर ..... .
कृपया पधारें ...आभार .

लोकेन्द्र सिंह said...

bahut khoob...

स्वाति said...

पहली बार पढा आपको...हर शब्द मन को छूती और भाव मन को तृप्त भी करते और उद्विग्न भी...मन की अभिलाषाएं कोमल और सहज हैं|

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत खूब सर!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अद्भुत चाहना ... अबोले ही अपनी अभिलाषा कह दी .. समय के रेट कण को हाथ में भर जीवन की नदी में होम करने की कामना तुम जैसा कवि मन ही चाह सकता है .. बहुत सुन्दर .. ऐसी रचना जिसे बार बार पढ़ने की उत्सुकता हो ..

vidya said...

बहुत सुन्दर...
अभिलाषाओं की अदभुद अभिव्यक्ति...

पूरी करने को ईश्वर भी आतुर होंगे..

शुभकामनाएँ.

Avinash Chandra said...

अभिषेक जी,
ऑडियो! अपनी आवाज में!!! हम्म!
कोशिश करूँगा, हालांकि मेरे लिए मुश्किल काम है सो वादा नहीं कर रहा। :)
आभार आपका।

Aditya said...

Bahut bahut hi sundar rachna sir..
aur lay bhi itni achhi ki padhte padhte gaane sa hi laga.. :)

kabhi samay mile to mere blog par bhi aaiyega.. umeed karta hun apko pasand aayega.. :)

palchhin-aditya.blogspot.in

सदा said...

वाह ...बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

Abhishek Ojha said...

धन्यवाद । :)

Archana Chaoji said...

आभार !!!स्नेहाशीष के साथ....

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

तुम्हारी आवाज़ मेन और भी प्रभावशाली लगी यह रचना ... बहुत सुंदर

अजय कुमार झा said...

आपके ब्लॉग के कलेवर ने ही मुझे तो बरबस बांध लिया जी । जब पंक्तियां पढीं तो कायल से घायल हो गया । अदभुत ...अदभुत ..अदभुत

बाल भवन जबलपुर said...

बेशक़ प्रभावी प्रस्तुति

संजय @ मो सम कौन... said...

देख तो तब ही लिया था, लेकिन सुन आज पाया हूँ| एक पेंडिंग काम तो निबटा, बाकी भी देखेंगे| 'अबोले ही' को 'असुने ही' सराह देना भी यहाँ गलत नहीं ही होता लेकिन फिर शायद सुनने में आलस कर जाता|
आनंदम, आनंदम, आनंदम|