tag:blogger.com,1999:blog-70892692895068410542024-03-13T20:21:24.355+05:30मेरी कलम से.....Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.comBlogger271125tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-71541041903822648702013-08-20T20:51:00.001+05:302013-08-20T20:56:14.420+05:30दीदी के लिए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
कौन पुण्य जो फल आयी हो?</div>
<div>
दीदी तुम जैसे माँ ही हो।</div>
<div>
पुलकित ममता का मृदु-पल्लव,</div>
<div>
प्रात की पहली सुथराई हो।<br />
</div>
<div>
मेरे अणुओं की शीतलता,</div>
<div>
मनः खेचर की तरुणाई हो।</div>
<div>
किस दिनकर की प्रखर प्रभा हो?</div>
<div>
विभावरी से लड़ आयी हो।<br />
</div>
<div>
शुभ्र दिवस, क्षण हुए सुभीते,</div>
<div>
स्नेह कुम्भ तुम, जो ना रीते।</div>
<div>
दीप्त तुम ही मेरे ललाट पर,</div>
<div>
आँख से तुम ही बह आयी हो।<br />
</div>
<div>
हा दीदी! लिखती हो कैसे?</div>
<div>
रोती होगी, मैं अनजान!</div>
<div>
बूझ नहीं पाता हूँ जब-तब </div>
<div>
क्यों हहरा करते मन-प्राण?<br />
</div>
<div>
आज तुम्हारा पत्र खोल कर,</div>
<div>
कर पाता हूँ कुछ अनुमान।</div>
<div>
कैसे अश्रु झिपों से झर के,</div>
<div>
लिखते होंगे मेरा नाम।<br />
</div>
<div>
भरना दीठ नयन में मेरी,</div>
<div>
और विहँस उठना यह जान।</div>
<div>
वर्ण-वर्ण पढ़ पत्र तुम्हारा </div>
<div>
बिलख रहे हैं मेरे प्राण।<br />
</div>
<div>
हर्ष का यह अतिरेक है दीदी,<br />
जिससे भींजे विह्वल प्राण। <br />
दिन विशेष की बात नहीं है,</div>
जीवन भर का है अभिमान।</div>
Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-60224105452632106632012-07-31T20:23:00.001+05:302012-07-31T21:40:48.884+05:30उस एक क्षण में...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-cfM_ItWoOC4/UBfw2gMILvI/AAAAAAAAAlY/-skKYjssClI/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-cfM_ItWoOC4/UBfw2gMILvI/AAAAAAAAAlY/-skKYjssClI/s1600/images.jpg" /></a></div>
साँझ के उस पार,<br />
पैर लटकाए हुए तुम<br />
क्या क्या बड़बडाये जाते <span class="st">हो।<br />और जब चिढ कर,<br />लगाता हूँ तुम्हे आवाज!<br />कर्कश!<br />तो पलट कर टिका देते हो दृष्टि,<br />बाँध देते हो चितवन</span><span class="st">।<br /><br />मैं पलकों के संपुट खोल,<br />सहेजने लगता हूँ तुम्हारी दीठ</span><span class="st">।<br />
</span><span class="st">मेरा स्व मुझसे हार जाता है<br />
विवाद प्रतिवाद सभी वादों में</span><span class="st"></span><span class="st">।</span><br />
<span class="st">मैं उस ऊँचे नीले वितान पर<br />आँज देना चाहता हूँ यह रूप</span><span class="st"></span><span class="st">।</span><span class="st"><br />
<br />
मेरी सारी सम्वेदनायें<br />
गुम्फित हो उठतीं हैं</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
मेरा मैं विस्मृत!<br />
मेरा संचित अदृश्य</span><span class="st"></span><span class="st">।</span><br />
<span class="st">मेरा प्राप्य अलभ्य!<br />
मेरा ईष्ट समीप!<br />
<br />
तुम्हारे अधर हिलते हैं<br />
मैं समझ लेता हूँ,<br />
सुन नहीं पाता</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
<br />
तुम्हारा क्षण भर का स्पर्श<br />
करता है संचरित राग-महाराग</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
जीवन अपनी गति छोड़<br />
करने लगता है विश्राम</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
</span><span class="st">चिरकाल</span><span class="st"> से नभ में फैला प्रकाश,<br />
समा जाता है चेतना में</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
वेदना की काई घुल कर,<br />
निकल आती है पोरों से</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
<br />
मेरे भीतर बस बचते हो<br />
तुम, तुम्हारा प्रेम,<br />
उसकी विरल अभिव्यक्ति</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
और वह अलौकिक चित्र,<br />
जिसे कोई तूलिका चित्रित नहीं कर सकती</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
वह संगीत जिसे रचने में,<br />
सारी वीणाएँ-वेणु अक्षम हैं</span><span class="st"></span><span class="st">।<br />
<br />
</span><span class="st"><br />
</span><span class="st"><br /></span> </div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-33458407344568560012012-04-21T22:53:00.003+05:302012-04-22T10:43:30.736+05:30आयु भर आशीष<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-R4zeysfXIp8/T5Lqako36DI/AAAAAAAAAic/KzX6TYLg6dg/s1600/gm-paddy-e.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-R4zeysfXIp8/T5Lqako36DI/AAAAAAAAAic/KzX6TYLg6dg/s1600/gm-paddy-e.jpg" /></a></div><br />
<br />
झुण्ड से छूटा, साथ से रूठा,<br />
एक था बिचड़ा गिरा यहाँ।<br />
गीति के नवजात शिशु को,<br />
मरने देती क्षिति कहाँ।<br />
<br />
पावस में घिर आते शत घन,<br />
बाकि दिव सुथराई के कण।<br />
धमनी-धमनी स्थान रुधिर के,<br />
माँ का संचित नेह बहा।<br />
<br />
सूर्य रश्मियाँ पुष्ट बनाती,<br />
विधु की किरणे थीं दुलरातीं।<br />
और मृदुल नभ के तारागण,<br />
हर अठखेली पर मुस्काते।<br />
<br />
तृण के नोक ललाट चूमते,<br />
अलि धावन के बाद घूमते।<br />
वल्लरियाँ थीं दीठ बचातीं,<br />
गिरते पर्णों ने मीत कहा।<br />
<br />
दिवस बीतते, रात बीतती,<br />
शीतलता औ घाम बीतती।<br />
बालक ने आशीष मान कर,<br />
सबको दे सम्मान सहा।<br />
<br />
बारी-बारी सब ऋतुओं ने,<br />
भांति-भांति के पाठ सिखाये।<br />
पराक्रमी कर्ष-मर्ष कौशल पर,<br />
वानीर झुण्ड ने हाथ उठाये।<br />
<br />
गभुआरे नन्हे कोमल तन,<br />
को सालस थपकाती गन्धवह।<br />
चीं-चीं मर्मर क्षिप्र ही गढ़ कर,<br />
खग कीटों ने गीत कहा।<br />
<br />
खेचर नित आशीष वारते,<br />
गहते हाथ, औ मूंज बाँधते।<br />
"रागों में तुम वीतराग हो!"<br />
"हो अलोल!"- यह बोल उचारते।<br />
<br />
मौलसिरी ने आसव छिडका,<br />
नीप-तमाल ने नेह से झिड़का।<br />
आम छोड़ के उतरी कोयल,<br />
कान में गुपचुप प्रीत कहा।<br />
<br />
नियति-नटी अपनी गति खेली,<br />
सुभट शाख किंकिणियाँ फूलीं।<br />
जिसने देखा वही अघाया,<br />
"उत्तरीय तुम्हारा स्वर्ण!"- कहा।<br />
<br />
<br />
<br />
*********<br />
बिचड़ा - नन्हा पौधा ;सुथराई - ओस ;रुधिर - रक्त ;विधु - चंद्रमा ;तृण - घास ;गन्धवह - वायु ;खेचर - पक्षी ;किंकिणियाँ - घुंघरू <br />
<br />
<br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-14691587547676983962012-04-15T21:03:00.001+05:302012-04-15T21:04:39.713+05:30अदृश्य<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">प्रात की पहली किरण पर,<br />
शब्द उग आत़े स्वयं जो,<br />
सोचता हूँ पत्र में लिख दूँ,<br />
या यूँ ही भेंट कर दूँ।<br />
<br />
मन के वन की वीथियों में,<br />
पुष्प झर आत़े स्वयं जो,<br />
सोचता हूँ इत्र में गढ़ दूँ,<br />
या यूँ ही भेंट कर दूँ।<br />
<br />
रेत पर फेनिल लहर से,<br />
रंग भर आत़े स्वयं जो,<br />
सोचता हूँ चित्र में भर दूँ,<br />
या यूँ ही भेंट कर दूँ।<br />
<br />
भेंट कर दूँ मौन को,<br />
मैं गंध को, हर रंग को।<br />
सोचता हूँ सामने पढ़ दूँ,<br />
या यूँ ही भेंट कर दूँ।</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-13733133172867794052012-03-04T18:09:00.001+05:302012-03-04T18:11:07.203+05:30मौन बैठे हुए...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-Hl2nwlvobCs/T1Ni1jC0anI/AAAAAAAAAgM/SVP5eMYNHMI/s1600/Daylight1.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="217" src="http://1.bp.blogspot.com/-Hl2nwlvobCs/T1Ni1jC0anI/AAAAAAAAAgM/SVP5eMYNHMI/s320/Daylight1.JPG" width="320" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<br />
<br />
पिता! तुम बूढ़े नहीं हो रहे।<br />
नहीं घट रही है तुम्हारी,<br />
डेसिबल आंकने की क्षमता।<br />
सिक्स बाई सिक्स देखने भर ज्योति,<br />
अभी भी है नेत्रों में।<br />
किंचित अधिक ही हो गई है।<br />
<br />
तुम छोड़ सकते हो एक और रोटी,<br />
खींच सकते हो साइकिल,<br />
और दसेक मील।<br />
गदरा उठती है भिनसारे,<br />
कुछ और तुम्हारी केशराशि।<br />
फिरा सकते हो अकेले हेंगा तुम,<br />
निश्चय ही हल चला सकते हो।<br />
<br />
नहीं सकुचा रही तुम्हारी छाती।<br />
आज भी नहीं जीतता है जनेऊ।<br />
नहीं टूटते रोयें तुम्हारे।<br />
कलाईयों का बल नहीं थमा,<br />
स्कंध विपन्न नहीं हो पाए हैं।<br />
<br />
पिता! नहीं उगे गड्ढे तुम्हे।<br />
नेत्र ज्योतित हैं पुंज-पुलकित।<br />
दंतपंक्ति आज्ञाकारी छात्रों की भांति,<br />
सुन्दर पुष्ट प्रयत्नशील हैं।<br />
रुक्म ललाट नहीं भेद पाए हैं,<br />
झुर्रियों के समवेत प्रहार।<br />
<br />
यह मैं नहीं कहता तुमसे,<br />
तुम मौन बोलते-पढ़ते आए हो। <br />
ममता नेह आँचल टपकन,<br />
हहरते लहरते मन के बीच,<br />
मौन बैठे पिता, तुम जानते हो,<br />
आयु नहीं होती उसकी,<br />
आकाश कभी बूढा नहीं होता।</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-71374095504071825602012-02-14T20:28:00.000+05:302012-02-14T20:28:36.127+05:30क्षीण मन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-nvxhe0WtuKg/Tzp1xYY3DMI/AAAAAAAAAfw/ZO5V81VOfZg/s1600/untitled.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="169" src="http://4.bp.blogspot.com/-nvxhe0WtuKg/Tzp1xYY3DMI/AAAAAAAAAfw/ZO5V81VOfZg/s320/untitled.JPG" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
चुक गए सब द्वंद ऐसे,<br />
टूटते हों बंध जैसे।<br />
मुक्ति का उच्छ्वास भर के,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
रोर वाली या अबोली,<br />
तुमने क्रीड़ा द्युत खेली। <br />
प्राण में ज्योति जगा के,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
लौह का पथ, लौह कंटक,<br />
गोत्र इस्पाती रहे।<br />
खींच दो वल्गा समय की,<br />
वो जो उत्पाती रहे।<br />
<br />
श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,<br />
स्थान कोई है नहीं।<br />
आस की वातास का तुम,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
तुमने सौ-सौ बाण मारे,<br />
सिंह मारे श्वान मारे।<br />
मार्ग किन्तु यह नहीं वो,<br />
जहाँ पग धर घर चलो।<br />
<br />
टेरना बिन लक्ष्य बेमन,<br />
बिन दिशा किस काम का?<br />
आँख का पानी गिरा कर,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,<br />
स्थान कोई है नहीं।<br />
लुंठित औ भरमाये मन का,<br />
स्थान कोई है नहीं।<br />
<br />
तोड़ के कारा सभी अब,<br />
आगे ही आगे बढ़ो।<br />
श्वास क्षीण ही सही,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
देह चटकती रही है,<br />
ताप से संताप से।<br />
वीणा रुक्म लाल है,<br />
स्वेद के आलाप से।<br />
<br />
सूर्य चन्द्र श्वेत हैं,<br />
और सभी श्वेत श्याम हैं।<br />
दिन वही रात्रि वही,<br />
भूत वर्तमान है।<br />
<br />
स्नेह के दो क्षण मिलें,<br />
वह नेत्र में धंस जाएँगे।<br />
स्वयं को क्षमा कर सकें,<br />
वह वचन न बोले जाएँगे।<br />
<br />
एक ही विमा रहे,<br />
अकेले ही विजन पर चलो।<br />
श्राप मन के धुल सकें,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
चिर प्रणय का स्पर्श था,<br />
नित अधर पर डोलता।<br />
अँगुलियों का पोर,<br />
अभीप्सित लालसा टटोलता।<br />
<br />
थे सुमन अनुराग के,<br />
हर वृन्त पर सजे हुए।<br />
पुष्प-रेणु और अलि,<br />
निकुंज स्वत सहेजता।<br />
<br />
मुदित वह जो नीड़ था,<br />
अस्पर्श्य है, अतिदूर है।<br />
पुरातन बंधन, तुम्हारे<br />
मद से चूर-चूर है।<br />
<br />
ग्लानि फेफड़ों में भर,<br />
आगे ही आगे बढ़ो।<br />
श्वास क्षीण ही सही,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
अनल तुम, समिधा तुम्ही,<br />
तुम ही अग्निधान हो।<br />
यज्ञ में स्व के स्वयं को,<br />
स्वयं होम तुम करो।<br />
<br />
श्लथ हृदय, कृशकाय मन का,<br />
स्थान कोई है नहीं।<br />
आस की वातास का तुम,<br />
गीत फिर से मन रचो।<br />
<br />
<br />
<br />
#The Weary Kind (Crazy Heart) सुनने के बाद ये है, जो है। <br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-87804146653152255982012-02-01T20:39:00.004+05:302012-02-18T17:28:50.859+05:30अबोले ही..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-sJq5BnzaVeU/TylVm-w5PGI/AAAAAAAAAfo/y46yLRRA-ro/s1600/falling-leaf.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="259" src="http://4.bp.blogspot.com/-sJq5BnzaVeU/TylVm-w5PGI/AAAAAAAAAfo/y46yLRRA-ro/s320/falling-leaf.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
सूर्य से कंधे मिलातीं,<br />
दूर वह जो चोटियाँ हैं।<br />
पार उनके एक क्षण को,<br />
मैं उतरना चाहता हूँ।<br />
<br />
चाहता हूँ खींच डालूँ,<br />
डोर सतरंगी धनुष की।<br />
मैं प्रभा की सीढ़ियों से,<br />
हो उतरना चाहता हूँ।<br />
<br />
ग्राम से हेमंत के जो,<br />
निकलती नदी है बारहमासी।<br />
मैं उसी के छोर को,<br />
एक बार छूना चाहता हूँ।<br />
<br />
चाहता हूँ हाथ में भरना,<br />
समय की रेत के कण।<br />
मैं उन्हें फिर इस नदी में,<br />
होम करना चाहता हूँ।<br />
<br />
रीतते जल के वलय में,<br />
हैं झाँकती मेरुप्रभाएँ।<br />
सीप सम्मोहन विवर सब,<br />
तोड़ देना चाहता हूँ।<br />
<br />
चाहता हूँ क्रीक बन कर,<br />
थाम लेना यह सरिता।<br />
मैं समय पर ही समय को,<br />
रोक लेना चाहता हूँ।<br />
<br />
मैं बनैली वीथियों से,<br />
श्याम संझा टूटने तक।<br />
लोबान का एक ढेर ऊँचा,<br />
ढूँढ लेना चाहता हूँ।<br />
<br />
चाहता हूँ भींज लेना,<br />
ओस की पहली लहर में,<br />
धूम्र में आँसू सुखा के,<br />
धीर धरना चाहता हूँ।<br />
<br />
वह कुशलता जो लहर को,<br />
वायु की भांति झुलाए।<br />
नेह के पथ की विमा भी,<br />
ऐसी ही करना चाहता हूँ।<br />
<br />
चाहता हूँ भेंट तुमसे,<br />
जो कि है कब से प्रतीक्षित।<br />
ज्योति चुक सकने से पहले,<br />
नेत्र भरना चाहता हूँ।<br />
<br />
पात पुरइन के हों फूले,<br />
यूथियाँ भर शाख झूलें। <br />
मय जलज की छोड़ सरसी,<br />
मैं पुष्प किंशुक चाहता हूँ।<br />
<br />
चाहता हूँ मैं विजन पर,<br />
एक पग प्रस्थान करना।<br />
और सम पाथेय तुमसे,<br />
'मित्र' सुनना चाहता हूँ।</div><br />
<br />
<br />
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<br />
दे के अपनापन अनोखा,<br />
सीख सौ-सौ काम वाली।<br />
आज जबकि नेह बाँधा,<br />
तुम विदा दे जा रहे हो।<br />
<br />
अश्रुओं की लड़ी दे दूँ,<br />
नेह जल की झड़ी दे दूँ।<br />
थाम अंगुलियाँ निहारूँ,<br />
बात कोई बड़ी दे दूँ।<br />
<br />
बाँस के दो गोल पत्ते,<br />
मैं फुला के गीत गाऊँ।<br />
लूँ स्तवन में नाम ज्योंकि,<br />
तुम विदा दे जा रहे हो।<br />
<br />
साँझ-दिव, प्रति मास के दिन,<br />
झड़ी ठिठुरन ताप के दिन।<br />
तुमने कूची से सँवारे,<br />
कटु निठुर संताप के दिन।<br />
<br />
धनुष कितने तुमने बाँधे,<br />
मेघ भर-भर अपने काँधे। <br />
और अब जो रंग फूटे,<br />
तुम विदा दे जा रहे हो। <br />
<br />
रात बीती बात बीती,<br />
अर्गला के साथ बीती। <br />
सुभट धीरजधर बने तुम,<br />
सुन सके तुम आपबीती। <br />
<br />
और फिर संबल बना के,<br />
सँध से ज्योति दिखा के,<br />
नेत्र में जब प्राण जागा,<br />
तुम विदा दे जा रहे हो।<br />
<br />
ठीक तुमने ही तपाया,<br />
किन्तु तुमने कुछ न पाया।<br />
इस हुताशन से निकल के,<br />
मैंने ही वरदान पाया।<br />
<br />
धरणी को मंजु बीज दे के,<br />
स्वेद दल की सींच दे के।<br />
अब कुटज जो फूलते हैं, <br />
तुम विदा दे जा रहे हो।<br />
<br />
रोक लो पग दर्श ले लूँ,<br />
भाल पर एक स्पर्श ले लूँ।<br />
माँग लूँ कि हर क्षमा अब,<br />
तुमसे उर का हर्ष ले लूँ।<br />
<br />
गगन भर आशीष दे के,<br />
वरद मेरे शीश दे के।<br />
स्नेह का प्रतिरूप रख कर,<br />
तुम विदा दे जा रहे हो।<br />
<br />
दे विदा भर आँख भींजूँ,<br />
नव के लिए अइपन संवारूँ।<br />
मन्त्र जो तुमने सिखाये,<br />
गीले कंठ से उचारूँ।<br />
<br />
यह विदा विस्तार ही है,<br />
नव किरण संचार ही है।<br />
मान मुक्ति का सिखा के,<br />
तुम विदा दे जा रहे हो।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-85506183940035985482011-11-26T08:51:00.003+05:302011-11-27T10:40:06.227+05:30प्रिय ऋतु में...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-uj0By_HxLmI/TtBbRwr8StI/AAAAAAAAAe8/Jb03ExeQ1Is/s1600/wild-ducks-in-morning-fog-flying-over-post-lake-on-the-wolf-river-wisconsin.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-uj0By_HxLmI/TtBbRwr8StI/AAAAAAAAAe8/Jb03ExeQ1Is/s320/wild-ducks-in-morning-fog-flying-over-post-lake-on-the-wolf-river-wisconsin.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
<br />
नियम से नित प्रात!<br />
कौन जाता है छींट?</div>स्वर्ण भस्म भर शत घट,<br />
<div>व्योम के पूर्वी छोर सुदूर।<br />
<br />
कौन टेकता है छड़ी,<br />
ध्रुवनंदा की पीठ पर?<br />
और छिटक आती हैं बूँदें,<br />
चंचल निष्छल स्वछंद।<br />
<br />
<br />
</div>कौन देता है फूंक,<br />
किंशुक किंकिणियों में प्राण?<br />
धर देता है शुचित मेखला,<br />
बनैली धरती पर निचेष्ट।<br />
<br />
कौन बजाता है वीणा,<br />
विहंगो के कलरव की?<br />
औ खोल देता है अनायास,<br />
उनींदे गभुआरे उत्पल दल।<br />
<br />
कौन खींचता है नियम से,<br />
मारूति के नव परिपथ?<br />
वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,<br />
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।<br />
<br />
<br />
कौन पुरइन पर दधि का,<br />
<div>लेप देता है लगा नित?<br />
ओस की बूँदें छुड़ाती,<br />
जागती हैं रश्मियाँ भी।<br />
<br />
कौन गढ़ता अल्पनायें,<br />
पुष्प ला गुलदाउदी के?<br />
किलोल करती वल्लरियाँ हैं,<br />
ठठाती वृन्त-वृन्त, निकुंज भर।<br />
<br />
कौन जलाता है हिम बिनौले,<br />
छाजते है ग्राम-घर जो?<br />
कि महि को देखने भर,<br />
ढूंढता है छेद दिनकर।<br />
<br />
<br />
</div>कौन निश-दिन के यमल को,<br />
<div>प्रेम का जड़ता दिठौना?<br />
बकुचियों के फूलते तन,<br />
आरती में जागते हैं।<br />
<br />
कौन करता है विदा दे,<br />
दान-सीधा बादलों को?<br />
कि रजत दल कांपते हैं,<br />
मंदाकिनी की हर लहर पर।<br />
<br />
<br />
<br />
------------------------------------------------<br />
------------------------------------------------<br />
किंशुक= पलाश <br />
किंकिणियाँ= घुंघरू <br />
मेखला= एक प्रकार का वस्त्र <br />
गभुआरे= कोमल <br />
उत्पल= कमल <br />
पुरइन= कमल का पत्ता <br />
दधि= दही <br />
दिठौना= नज़र से बचने वाला काजल का टीका <br />
बकुचियाँ= औषधीय पौधे </div></div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-1087663922291788182011-08-31T00:48:00.002+05:302011-09-01T01:08:00.283+05:30चलो रे पथिक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-TkFzIhbsWJA/Tl03R25rKRI/AAAAAAAAAew/cffldP9MiKs/s1600/Tough__Route_Wallpaper_zasia.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="228" src="http://2.bp.blogspot.com/-TkFzIhbsWJA/Tl03R25rKRI/AAAAAAAAAew/cffldP9MiKs/s320/Tough__Route_Wallpaper_zasia.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
कौन सी वेला सुखद, विश्राम की- प्रस्थान की है?<br />
कौन सी राशि विहित, संकल्प के अभिधान की है?<br />
कौन से स्वर है सदय, जो करते हैं उद्घोषणा?<br />
कौन सी है रेख जिस तक, नाम अपना अंकना?<br />
<br />
मन विचारोगे यही तो, चल न पाओगे यहाँ। <br />
और जिसमे रुक सको, ये यात्रा ऐसी कहाँ?<br />
बाँध लो पाथेय जो भी, हाथ आए ले चलो। <br />
छोड़ दो साथी कहे तो, साथ आए ले चलो। <br />
<br />
स्नेह बंधन को स्मृति में, ईश जैसा स्थान दो। <br />
परिचयों की गाँठ खोलो, मुक्ति दे कर मान दो। <br />
और फिर बढ़ते चलो, द्विविधाओं का संपुट खुले। <br />
तुम झड़ो तो योग्य तुमसे, कोई किसलय दल खिले। <br />
<br />
तुम नहीं त्राटक, नहीं अंतिम ही कोई पीठ है। <br />
एक बस यह यात्रा है, और पथ यह ढीठ है। <br />
कछार तोड़ो, कूल छोडो, क्रीक पग से नाप लो। <br />
हाथ जोड़ो नद-नदी को, घूँट में या माप लो। <br />
<br />
हरे अइपन, घृत, हरीरे, तोरण- अगरु को भूल लो। <br />
मार्ग काटो स्वत बनैले, करतलों में शूल लो। <br />
ये झुलसते, ये हुलसते, मार्ग सच्चे मीत हैं। <br />
अन्यथा है बाकी सब कुछ, वंचना है, भीत है। <br />
<br />
है परिचय, प्रेम भी है, है कि हँसना बोलना। <br />
किन्तु नाप नेह का, प्रतिबन्ध से क्या तोलना?<br />
पग-पग झरें कुसुम जो, प्रेम के वही ललाम हैं। <br />
पग बढें, बढ़ते चलें, ये श्रेष्ठ वर्तमान है। <br />
<br />
बाँध देखो कोई भी मिस, पर तुम्हे रुकना नहीं है। <br />
मोह जितना भी लगाओ, युत किसी टिकना नहीं है। <br />
तो क्या तमिस्र और ज्योतित, रात्रि वेला एक है। <br />
पथ वही, पथ की विमा भी, यात्री अकेला एक है। <br />
<br />
किरीट-केयूर-मुद्रिका, हैं नाम और सब मोह हैं। <br />
जबकि परिभाषा तुम्हारी, जन्म से ही द्रोह है। <br />
भार उर पर मत ही लादो, ना किसी को और दो। <br />
हास-अश्रु साथ बाँधो, अनुतप्त नौका खोल दो। <br />
<br />
कर सकोगे प्राप्त प्रज्ञा, है व्यर्थ ऐसा सोचना। <br />
संजाल से निकल सको, प्रथम यही हो कामना। <br />
सकल सरट-सरीसृपों के, झुण्ड हैं किलोल में। <br />
और बस यही पथ सगा है, अंतर्मन के लोल में। <br />
<br />
हों तुमुल स्वर रंध्र से, जो रक्त पीते जा रहे हों। <br />
तप्त मन के उच्छलित क्षण, मन से उलीचे जा रहे हों। <br />
हाथ सारंगी उठा, कोई तार ऐसा तान दो। <br />
कर्ण-कुहर भी तृप्ति पाएँ, उनको ऐसा गान दो। <br />
<br />
ये कि पथ ऐसा जो अंतिम, है आदि और अबाध भी। <br />
किस गति से चल रहे, है कितना इसके बाद भी। <br />
मार्ग में हैं पातक-सालक, और गह्वर चण्ड हैं। <br />
इनसे बच गए तो स्व के, विवर महाप्रचण्ड हैं। <br />
<br />
शांति है अधिक तो, विहगों में प्रमोद-रव जगाओ। <br />
रोर उठती हो यदि तो, शांति की भेरी बजाओ। <br />
और चल दो मुदित मन कि, मृदुल लहरियाँ बहें। <br />
एक ठांव रुक गए, तो पथिक ही कहाँ रहे। <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-40542700193128435272011-08-04T18:41:00.001+05:302011-08-04T20:48:20.695+05:30आगत स्वर..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-423GdvqHAoU/TjqaVe-S-JI/AAAAAAAAAeo/AQgbX9Zp-Ks/s1600/blue_sky.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="http://3.bp.blogspot.com/-423GdvqHAoU/TjqaVe-S-JI/AAAAAAAAAeo/AQgbX9Zp-Ks/s320/blue_sky.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
कितने दिव चले मित्र?<br />
कौन-कौन सी दिशायें नाप,<br />
कौन से दुर्धर विजन पथ माप,<br />
यायावर, लौटे हो इस बार?<br />
<br />
तुम्हारे पीछे मैं सहेजता रहा,<br />
तलवों से बन आए गड्ढे।<br />
देखता रहा गूलर के फल।<br />
उनमे चोंच मारते प्रवासी पक्षी।<br />
<br />
तुम्हारी प्रतीक्षा में ऊब,<br />
तुम्हारे कौशल विमुग्ध,<br />
छानता रहा सूर्य-शशि,<br />
ताल के तलौंछ में।<br />
<br />
बुनता रहा टपकते हरे-पीले,<br />
झरे-टूटे-छूटे पत्तों से शब्द,<br />
सांगोपांग सत्वर तत्पर।<br />
<br />
कि तुम लौटोगे बन पाणिनि,<br />
और खींच दोगे उन्हें,<br />
हर खांचे में।<br />
बाँध दोगे हर यवनिका,<br />
कस दोगे मूर्त-अमूर्त हठात,<br />
प्रत्येक निकष पर।<br />
<br />
तुम्हारे स्वर नहीं थे,<br />
तो एक अकेला एकांत था,<br />
मेघों के रीते निर्घोषों के बीच,<br />
जो बजता था घनघोर, प्रचंड।<br />
<br />
मंदिरों से उठने वाला,<br />
धीमा सा मंत्रोच्चार,<br />
आर्द्र रहा करता था,<br />
ओस की बूँदों से अहर्निश।<br />
<br />
तथापि मुकुलित पुहुप धरे,<br />
अक्षरा आस लगाये निःस्व।<br />
मैं करता रहा प्रतीक्षा,<br />
तुम्हारे लौटने की।<br />
<br />
कि उत्तर दिशा से लौटोगे तुम,<br />
और होगी गुंजायमान ऋचाओं से,<br />
समस्त धरित्री, सम्पूर्ण शाद्वल वन।<br />
<br />
खुल जाएँगे बंध स्वेच्छया,<br />
तुम्हारे श्री दर्शन से।<br />
प्रत्यूष हो उठेगा चटख।<br />
हर्षित उन्मुक्त रश्मिधर!<br />
<br />
जो लौट आए हो मित्र!<br />
तो स्वरों को दो आकार।<br />
मौन को कर दो श्राप-मुक्त।<br />
ऋतुओं को करने दो हर्षनाद,<br />
प्रतीक्षा को अपना मोल दो।<br />
<br />
पवन में ठीक इसी वेला,<br />
अपने मधुप वर्ण घोल दो।<br />
सब राग स्मिता पाएँ मित्र!<br />
आज पुनः सभी छंद खोल दो।</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-6406338109281379542011-06-18T21:56:00.001+05:302012-08-01T22:35:16.099+05:30एकमात्र वर...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-1d2jGUj40RQ/TfzQZgU2mCI/AAAAAAAAAeQ/oXVhM-xgCnI/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-1d2jGUj40RQ/TfzQZgU2mCI/AAAAAAAAAeQ/oXVhM-xgCnI/s1600/images.jpg" /></a></div>
<br />
<br />
हे तात!<br />
आज के दिव ही,<br />
ऐसे ही किसी क्षण,<br />
पुण्य मन, उछाह भर,<br />
ले आए थे तुम,<br />
सैकत कण भर अंजुरी,<br />
ध्रुवनंदा के किनारे से।<br />
<br />
हे जननी!<br />
नक्षत्रों के ठीक नीचे,<br />
ऐसी ही किसी वेला,<br />
ढुलका दिया था तुमने,<br />
स्नेह-वात्सल्य से भरा,<br />
प्रथम अजस्र पीयूष घट।<br />
<br />
जीव, जीवन, अंश, दर्शन,<br />
सब कार-अकार किये,<br />
तुमसे ही प्राप्त अनुदिन।<br />
<br />
विचर सकूँ किसी भी,<br />
प्रकम्पित पथ भयहीन।<br />
न हो सकूँ ग्लानिहत,<br />
म्लान, अधीर, दम्भी।<br />
और रहूँ सदैव प्रणत,<br />
चरणों में अगाध श्रद्धा से।<br />
रचयिता आज फिर से,<br />
मुझे अजर वर यही दो।<br />
<br />
<br /></div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-35894201170624573632011-06-12T17:42:00.004+05:302011-08-30T02:36:19.609+05:30संबोधन से परे..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-Sn8SlJ0jwb0/TfSspAe6bII/AAAAAAAAAeM/iB4teqHUOM0/s1600/morning_purple_sunrise-wide.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="http://2.bp.blogspot.com/-Sn8SlJ0jwb0/TfSspAe6bII/AAAAAAAAAeM/iB4teqHUOM0/s320/morning_purple_sunrise-wide.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
अंशुमाली की प्रथम रश्मियों से,<br />
प्रात वनिता जब धो रही होती है,<br />
झूमते-सरसराते बाँस के झुरमुट।<br />
<br />
और बजा रहा होता है कोई घंटा,<br />
उस पार बलुई छोड़ हटान पर बने,<br />
अंजनिकुमार-आजानुभुज के संयुक्त मंदिर में।<br />
<br />
निथर आती है जब कठुली भर सुथराई,<br />
तुलसी के हरे-काले प्रत्येक पत्तों पर,<br />
एक समान, एक सी. स्वेच्छया, स्वतः।<br />
<br />
तोड़ रही होती हैं उचककर लड़कियाँ,<br />
जब तरोई-सेम-करेले अहाते से,<br />
मुँह पर हाथ धरे खिलखिलाते हुए।<br />
<br />
मौन कर मुक्त, उन्मुक्त रंभाती हैं जब गायें,<br />
टुहकनी गौरैया कचरती है टूटे चावल,<br />
गेंहूँ, जौ, दाल कुटुर-कुटुर कट-कट।<br />
<br />
पिताजी अगोर रहे होते हैं जब अखबार,<br />
औ' नोचने लगती हैं गिलहरियाँ अमरुद,<br />
<div style="text-align: left;">माँ को अइपन काढने में व्यस्त देख।</div><br />
फूल रही होती हैं जब रोटियाँ सुजान आँच पर,<br />
छुआए जा रहे होते हैं दही से लाचीदाने,<br />
सिल घोंट रहा होता है पुदीने में टिकोरे।<br />
<br />
कनेर गिरने लगते हैं टप-टपाक जब,<br />
लू टहकार रही होती है शमी, अढ़उल!<br />
धूप खेलती है अकेली ही भर ओसारे।<br />
<br />
या धैर्य चुका सनई के खेत जब काटते हैं सूरज,<br />
और भकुआया हुआ वो छींट जाता है,<br />
रात का सहेजा हुआ, भगौना भर जावक।<br />
<br />
जोड़े दिन भर की दिहाड़ी, समेटे स्वप्न,<br />
जब लौट रहे होते हैं खेतिहर, विहंग, मजूर।<br />
औ' रूप निहारता कोई जड़ देता है दर्पण को दिठौना।<br />
<br />
टिमटिमाते हैं मंगल-ध्रुव, बाबा-नाना,<br />
और बेतों से पीट-पीट करिया देती है,<br />
विधु की पीठ, रजत वेणी वाली बुढ़िया।<br />
<br />
जब रात चुप से टपका जाती है अमृत की असंख्य बूँदें,<br />
गभुआरे हरसिंगार गमक उठते हैं सहसा झुण्ड-झुण्ड,<br />
औ टपकन थाम लेती है धरित्री, प्रात से पहले -रवहीन।<br />
<br />
ऐसे दीप्त क्षणों के सुभीते हरित निकुंज,<br />
जो उग आता है स्व में, स्व से ही,<br />
होता है प्रस्फुटित, अतल-तल से स्वलक्षण,<br />
निर्मल मनोरम गतिमान अलभ्य,<br />
सुशान्त गरिमामय, स्मितित संस्कार।<br />
आजन्म तुमसे मेरा प्रेम वही हो।<br />
<br />
<br />
<br />
==============<br />
वनिता= स्त्री <br />
विधु= चन्द्रमा <br />
वेणी= चोटी <br />
जावक= महावर <br />
दिठौना= नज़र से बचाने वाला काजल का टीका <br />
<br />
<br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-29969558781484453872011-05-21T16:21:00.008+05:302011-05-22T14:54:00.210+05:30शब्द-शर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-m4yfXo8Mjzk/TdeXty5CZCI/AAAAAAAAAd4/-4mPrQB9LwQ/s1600/soundwave-sound-wave-3d-rendering-oscope-oscilloscope-audio-distortion.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://3.bp.blogspot.com/-m4yfXo8Mjzk/TdeXty5CZCI/AAAAAAAAAd4/-4mPrQB9LwQ/s320/soundwave-sound-wave-3d-rendering-oscope-oscilloscope-audio-distortion.jpg" width="273" /></a></div><br />
<br />
जैसे घृत लोबान पँजीरी,<br />
पुरइन संपुट में भरते हों।<br />
यज्ञ हुताशन में उसी मिस से,<br />
कृशकाय तुम्हारे शब्द झरते हों।<br />
<br />
किंशुक रस से लिखो शब्द अब,<br />
वही गीत का प्राण बनेंगे।<br />
तप-तप बड़वानल में अनुदिन,<br />
साक्षात ही अग्निधान बनेंगे।<br />
<br />
चटुल विपुल केसरी कुसुमासव,<br />
शब्दों से धरणी लब्ध रहेगी।<br />
हरित-श्वेत वानीर-कुटज के,<br />
अइपन से नित प्रात सजेगी।<br />
<br />
गभुआरे मन, लुंठित होकर,<br />
द्रुत विदीर्ण यदि गान करेंगे।<br />
त्रय-तेज धरे यह शब्द तुम्हारे,<br />
नाम मुक्ति अभिधान धरेंगे।<br />
<br />
अमा-निशा-सोम-आरुषी पर।<br />
दिनकर की दिप-दिप आभा पर।<br />
छंद कोकिला की कुहुकों पर,<br />
गीत रचेंगे कवि पुहुपों पर।<br />
<br />
छायें तुमुल के तम घन किंचित।<br />
हो अनिल सरणी से विमुख प्रकम्पित।<br />
रच का अक्षय तूणीर उठाना,<br />
शब्द-शब्द शर-बाण बनेंगे।<br />
<br />
उर्मिल उदीप, सुशांत कि उदधि।<br />
सरि तट उत्पल दल खिलते हों।<br />
जीव बनैले, अथाह खग राशि,<br />
शाद्वल वन किलोल करते हों।<br />
<br />
इनकी मुग्ध केलि रक्षा में,<br />
निशि वासर पद-ताल करेंगे।<br />
ऋतुओं का अहिवात बचाने,<br />
सुभट शब्द निष्काम लड़ेंगे।<br />
<br />
रिपु दुर्धर वैषम्य स्थितियों सम,<br />
डाकिनी सी हों रोर उठाते।<br />
वाधर्क्य से श्लथ नभ घन-दल,<br />
वातास शुष्क, गिरि झिंपे झँवाते।<br />
<br />
कहना ज्योतिर्मय शब्दों से,<br />
बन स्फुल्लिंग नभ दीप्त करेंगे।<br />
प्रश्नों से उत्तप्त प्रकृष्ट स्वर,<br />
प्रत्येक निकष पर स्वयं कसेंगे।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
================<br />
पुरइन= कमल का पत्ता <br />
संपुट= दोना <br />
हुताशन= अग्नि<br />
किंशुक= पलाश <br />
अग्निधान=अग्नि पात्र<br />
चटुल= चंचल<br />
अइपन= अल्पना <br />
गभुआरे= कोमल<br />
तुमुल= कोलाहल<br />
सरणी= मार्ग<br />
निशि वासर= रात-दिन<br />
अहिवात= सुहाग<br />
वाधर्क्य= वृद्धावस्था <br />
निकष= कसौटी <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-72099744119880243062011-05-01T14:21:00.002+05:302011-05-03T10:03:21.072+05:30धन्यवाद...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-tiL3yvJjSaY/Tb0enIINV1I/AAAAAAAAAd0/TY9WQETDfw4/s1600/images.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-tiL3yvJjSaY/Tb0enIINV1I/AAAAAAAAAd0/TY9WQETDfw4/s1600/images.jpeg" /></a></div><br />
<br />
विचरूँ कोमल कूजित उपवन,<br />
बरसे मुझ पर सौरभ शत घन,<br />
वहीँ उग आयें वेष्टित तंडुल,<br />
<div style="text-align: left;">छू जाऊँ मैं क्षिति का जो कण।</div><br />
श्री मैं ही, मैं ही श्री का मुख,<br />
पाँव पखारें अनुदिन प्रति सुख।<br />
विथकित विन्ध्य-सुमेरु-पखेरू,<br />
देख के मुझको चढ़ता हर क्षण।<br />
<br />
ऋतंभरा भूधर सी मेरी,<br />
प्रक्षालित करती हो कीर्ति।<br />
करता केलि तर से तम तक,<br />
मेरे उच्च कर्म का क्रम-क्रम।<br />
<br />
सुभट सदय दिव बन चारण गण,<br />
हरित गाछ, मलयज मधु उपवन।<br />
करती हो शोभित अयाल बन,<br />
आरव आरुषी ग्रीवा पर तन।<br />
<br />
ऐसे स्वप्न नहीं कब देखे?<br />
इच्छा के जाल नहीं कब फेंके?<br />
है स्वीकार कि तुमसे माँगा,<br />
ये सारा सुख ही रे जीवन!<br />
<br />
किन्तु उसका अर्थ यह नहीं,<br />
कि दिन दुर्निवार न लूँगा।<br />
सुख माँगा है तो जो दोगे,<br />
दुःख के दुर्धर उपहार न लूँगा।<br />
<br />
मैं तुमसे, यह दृग भी तुम्हारे,<br />
अनुरोध सभी वह्नि में डाले।<br />
विवृत नयन में जो कुछ रख दो,<br />
साथ स्थैर्य के मैं देखूँगा।<br />
<br />
विजन पथों की पवन प्रकंपित,<br />
अनुताप बिद्ध, मनः उत्स विरूपित।<br />
विश्रृंखल उर्मियों में दो आज्ञा,<br />
प्रतिक्षण मैं संतरण करूँगा।<br />
<br />
दावानल से दहका कानन,<br />
धू-धू करता मधुवन-उपवन, <br />
सुनी है जो केक-पिक बोली,<br />
गिद्ध-शृगाल सुर भी सुन लूँगा।<br />
<br />
तुम अनंत, अनंत की आभा,<br />
निश की ज्योति, प्रात की द्वाभा।<br />
मेरी अस्ति के छोरों का,<br />
तुम ही उपादान रे जीवन!<br />
<br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-37496252647606286412011-04-08T20:15:00.003+05:302011-04-10T00:02:42.365+05:30मनु से....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-D9itXyMQTBc/TZ8eycYImzI/AAAAAAAAAdM/XJNc0T_QHok/s1600/manu.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="224" src="http://4.bp.blogspot.com/-D9itXyMQTBc/TZ8eycYImzI/AAAAAAAAAdM/XJNc0T_QHok/s320/manu.JPG" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
गूँजी मादल की स्वर-लहरी, मनु बाण उठा!<br />
आगे जो आए बेल-वृक्ष-चट्टान उठा।<br />
जो कर्मठ ना हो पुष्प भी नहीं खिलता है,<br />
जीवन उसका जो शाख-प्रशाखें सका हटा।<br />
<br />
प्रेमी मन आते हैं, आएँगे-जाएँगे,<br />
प्रणय-विरह के गीत केक-पिक गायेंगे। <br />
किन्तु उनको ऐसा सुयोग दे सकने को,<br />
जो वसु मांगते हों तो अपना रक्त बढ़ा।<br />
<br />
क्षिति का औरस है, तुझको स्थापित करना है।<br />
अब गुहा नहीं, बस तुंग-तुंग पग धरना है।<br />
औ पारद जो आदित्य नाम से चढ़ता है,<br />
अपनी दृष्टि के तुहिन से उसका ताप घटा।<br />
<br />
सम वेद तुक्त, अथ नीति में भी निष्णात नहीं।<br />
कोई स्तवन, स्तुति, कोई विग्रह गीत भी ज्ञात नहीं।<br />
तो जीवन-संगर का ही अब पारायण कर,<br />
औ चिति की ईंटें एक के ऊपर एक जुटा।<br />
<br />
चक्रवाक - कारण्डव से उद्यान बसें। <br />
संयुत हों मलयज-तंडुल, नित-नित भाल सजें।<br />
पर इसमें बाधा धरे कभी कोई अरि कहीं,<br />
तो मखशाला में एक-एक कर होम चढ़ा।<br />
<br />
तांडव पी ले, बच जाए जिससे लास्य कहीं।<br />
अतिरथ को पथ पर मिलता है कब हास्य कहीं?<br />
भीषण वीरुध, पातक गह्वर के कानन में,<br />
अपने भास्वर आनन से रश्मि-रश्मि छलका।<br />
<br />
आभा ललाम, पुर से प्रांतर तक छप जाए,<br />
अंतिम विराम प्रत्यूष का नभ पर लग जाए।<br />
जो व्योम को लीले जाते हों दुर्धर पयोद,<br />
असि के कराल को प्रेम से उनकी भेंट चढ़ा।<br />
<br />
आवश्यक नहीं कि पाण्डुर वसन दुकूल के हों।<br />
मकरंद जो लाये आसव नलिन - बकुल के हों।<br />
तू चक्रपाणि सा श्रेष्ठ नहीं, तो नहीं सही,<br />
किन्तु महि बोले बजा, तो शंख का नाद बजा।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
----------------------<br />
केक= मोर <br />
पिक= कोयल<br />
क्षिति= धरा <br />
औरस= श्रेष्ठ पुत्र<br />
पारद= पारा <br />
तुहिन= हिम<br />
चक्रवाक= चकवा (एक पक्षी)<br />
कारण्डव= एक पक्षी <br />
तंडुल= चावल <br />
अरि= शत्रु <br />
लास्य= कोमल नृत्य <br />
अतिरथ= योद्धा <br />
वीरुध= वनस्पति <br />
प्रत्यूष= प्रातःकाल <br />
पाण्डुर= हल्का पीला-सफ़ेद<br />
दुकूल= उत्तम वस्त्र <br />
वसन= वस्त्र <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-37069202560693945342011-03-14T21:16:00.000+05:302011-03-14T21:16:25.159+05:30एक प्रात गँगा के किनारे...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://lh4.googleusercontent.com/-Ya8TbfQRadQ/TX44G8e2gCI/AAAAAAAAAdI/Sf868L6TJ0s/s1600/march.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://lh4.googleusercontent.com/-Ya8TbfQRadQ/TX44G8e2gCI/AAAAAAAAAdI/Sf868L6TJ0s/s1600/march.jpg" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<br />
कितने दिन बाद माँ!!<br />
कितने दिन बाद,<br />
देखा है यह प्रात। <br />
कौन सी दिशा से नभ,<br />
देता है असीस में,<br />
ऐसी अपरिसीम हर्षिल प्रभाएँ? <br />
<br />
हुलस उठता है माँ,<br />
मन का तुरंग,<br />
जैसे देख झुरमुट,<br />
सुथराई से धुले काँसों के।<br />
<br />
सौष्ठव प्रदर्शित करते हैं,<br />
हवा से जूझ सुदूर, उस पार,<br />
गेहूं के बौराए पौधे,<br />
धरे वेष्टित स्वप्न।<br />
कब देखा था पिछली बार,<br />
सरसों से अनुस्यूत,<br />
अरहर को लहकते-बहकते?<br />
<br />
माँ! बया अब भी है,<br />
बल्कि लाई है दो पड़ोसिनें भी।<br />
<span id="TRN_251">रसाल</span>-महुआ-दाड़िम पर,<br />
बसा लिए हैं नीड़ सबने,<br />
झाड़-झकोर-पछोर। <br />
<br />
मुकुलित सरसों की किंकिणियाँ माँ!!<br />
माँ अब भी उन्हें,<br />
लाड से देखो वैसे ही,<br />
हिलाती है बासंती-फागुनी।<br />
<br />
कैसा सुख है माँ,<br />
कृमियों से जोती मृदा पर,<br />
तलवे ठहराने का?<br />
कौन सा मधुरिम धवल,<br />
तोय उमड़ा आता है,<br />
धोने मन-कण-क्षण। <br />
<br />
झर रहे हैं पात माँ,<br />
स्वर्णिम भूरे गाछ से। <br />
मानों किसलयों की कोई सरि,<br />
उमड़ती हो करने गाढ़ालिंगन,<br />
दूब की वत्सल क्रीक से। <br />
<br />
कैसा अनहद है माँ,<br />
गूँजता है निसर्ग से, चंहुओर से। <br />
प्रेम की कैसी मलयज पवन,<br />
बहती रहती है हर क्षण,<br />
तुम्हारी ही ओर से। <br />
<br />
<br />
<br />
============<br />
वेष्टित= ढका हुआ, वस्त्र धारण किया हुआ<br />
अनुस्यूत= गूँथा हुआ<br />
<span id="TRN_251">रसाल= आम<br />
</span>दाड़िम= अनार<br />
किंकिणियाँ= घुंघरू <br />
मुकुलित= कलियों से युक्त<br />
तोय= पानी <br />
क्रीक= खाड़ी <br />
<br />
<br />
<span id="TRN_251"><br />
</span></div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-38983931752935918092011-03-05T16:12:00.001+05:302011-03-05T23:18:38.084+05:30शिवरात्रि के दिन...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://lh6.googleusercontent.com/-_MLBxxbNR1g/TXISDcNSJhI/AAAAAAAAAdE/-hKe_2tB-68/s1600/100_3244.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://lh6.googleusercontent.com/-_MLBxxbNR1g/TXISDcNSJhI/AAAAAAAAAdE/-hKe_2tB-68/s320/100_3244.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">कितना टेरता हूँ खटराग,</div><div style="text-align: left;">एक ही, एक सा, अनुदिन!</div><div style="text-align: left;">आलोड़ित इतिवृत्तों में,</div><div style="text-align: left;">कोंचता रहता हूँ,</div><div style="text-align: left;">प्रत्येक निःसृत विषण्णता।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">निस्पृह होने-दिखने की,</div><div style="text-align: left;">निस्सीम स्पृहा दबाये अंतस में,</div><div style="text-align: left;">कूटता रहता हूँ विवोध।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">फेंटता रहता हूँ आसव,</div><div style="text-align: left;">सुदूर प्रांतर से लाये,</div><div style="text-align: left;">स्निग्ध मृदुल पुष्पों का।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">लिख देना चाहता हूँ उनसे,</div><div style="text-align: left;">अपने गढ़े संतोषी आख्यान।</div><div style="text-align: left;">असफलता को द्युतिसूत्र बता,</div><div style="text-align: left;">यत्न करता हूँ ठठाने का।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">यह अहेतुक केलि देख,</div><div style="text-align: left;">अब तक शांति से मुस्काता,</div><div style="text-align: left;">चिर तेजस्वी बिल्व किसलय,</div><div style="text-align: left;">आज चंद्रमौलि हो जाता है।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">कभी निष्कंप मैं भी,</div><div style="text-align: left;">चुपचाप झड सकूँ तो....<br />
<br />
<br />
==================<br />
इतिवृत्त= इतिहास/वृत्तांत<br />
आलोड़ित= सोचा विचारा हुआ <br />
आसव= फूलों का रस/मधु<br />
विवोध= धीरज<br />
द्युति= चमक<br />
अहेतुक= अकारण<br />
चंद्रमौलि= शिव<br />
</div></div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-58325980726063931552011-02-23T08:53:00.002+05:302012-06-18T16:12:52.605+05:30विदा से पहले<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-IbuqkEYfXVI/TWR9TpEW1aI/AAAAAAAAAc8/R5AF3_NEOF4/s1600/morningstar.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="256" src="http://1.bp.blogspot.com/-IbuqkEYfXVI/TWR9TpEW1aI/AAAAAAAAAc8/R5AF3_NEOF4/s320/morningstar.JPG" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
क्यों मनोरम गीत सा नेपथ्य से कुछ बज रहा?<br />
रात का अंतिम प्रहर कैसी उमग में सज रहा?<br />
कैसा है उल्लास साजा यामिनी ने भाल पर?<br />
शंख का स्वर झूमता है दुंदुभि की ताल पर।<br />
<br />
वंचना के घाव अजस्र जो विपथ ने थे दिए,<br />
देख यह मुदिता चमक, सब चुक गए और चल दिए।<br />
दैन्य की सारी विमायें एक ऋत से घुल गईं,<br />
अंतः की सारी क्षुधायें सद्य पवन में धुल गईं।<br />
<br />
अब जो कीमियागर हृदय का, घोलता है हास को,<br />
पोर अंतस के सभी देते विदा संताप को।<br />
उर्मियों के बीच लिपटा जो था जीवन डूबता,<br />
आज है हर्षित-अचंभित, कूल उससे जा लगा।<br />
<br />
अहो! यह कैसा निरुपम बोध, है कैसी छटा?<br />
नाद यह कैसा सुखद, लघु सँध से झरकर अटा?<br />
कौन देहरी, कौन फाटक, और कैसी अर्गला?<br />
छोह में उमड़ा हुआ मन तोड़ सब बंधन चला।<br />
<br />
अभी तो है कुछ समय इस रात के प्रस्थान में,<br />
कौन सा पाथेय पा लूँ, आए उस पथ काम में?<br />
थे विजन को टेरते जो आर्द्र, वो सूखे नयन,<br />
और जो सूखे तो उनसे, स्निग्ध सोता बह चला।<br />
<br />
प्रगट हों दुःख सामने, रह जायें या अव्याकृता,<br />
भांप ले जिसका हृदय बोली-अबोली हर व्यथा,<br />
धिपिन उत्सव के क्षणों, यह देख कर आओ तनिक,<br />
द्वार पर मिलने पिता से, आ गई है क्या सुता?<br />
<br />
<br />
<br /></div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-14864593179812493452011-02-11T09:35:00.009+05:302012-06-18T16:23:57.458+05:30अनवरत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-MLcTRKfNZyM/TVS2UfnYb9I/AAAAAAAAAc0/pYpPJ0U6niI/s1600/bas.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="177" src="http://4.bp.blogspot.com/-MLcTRKfNZyM/TVS2UfnYb9I/AAAAAAAAAc0/pYpPJ0U6niI/s320/bas.JPG" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
माना विजन पथ पर बहुत तुम चले हो,<br />
महि के ही क्रोड़, अनिकेत तुम रहे हो।<br />
पर अभी स्थापित किया है प्रथम केतन,<br />
अभी तो पूरा भुवन ही नापना है।<br />
<br />
सायास हैं जो आँजे सारे भित्तिचित्र,<br />
स्वस्ति से पगे अरे विनम्र विप्र!<br />
स्निग्ध छोह की इयत्ता मगर,<br />
अजस्र रहे, तुम्हे ही ये भी देखना है।<br />
<br />
शोण बहता है शिराओं में तुम्हारी,<br />
द्युतमान तुमसे कम तनिक है अंशुमाली।<br />
विरूपण व्यतिक्रम से तुम परे हो,<br />
किन्तु विकर्षण को अभी भी रोकना है।<br />
<br />
कुसुम्भ कुसुम है तृण-हर्म्य में उगाये,<br />
अनुदिन धिपिन आविष्ट कलेवर बनाये।<br />
किन्तु कई विपथ अभी भी छूटते हैं,<br />
अभी उनको शस्य करने जोतना है।<br />
<br />
कौन सा दिव है, प्रतिहत ना हुए हो?<br />
सच बताना क्या चिलक में ना जिये हो?<br />
यह तो प्रघट्टक के आवर्तन का नियम है,<br />
आगे कुत्सा की शिलाओं को भेदना है।<br />
<br />
गह्वरों-विवरों से सकुशल निकल आए,<br />
उत्ताप के तुरंग, विरति वल्गा लगाये।<br />
किन्तु गेह में हैं खटरागी द्विधायें,<br />
उनकी लोल उर्मियों से खेलना है।<br />
<br />
तुमने लांघी पर्वतों की शत वनाली,<br />
रुके न, निष्कंप, एक जऋम्भा न डाली।<br />
किन्तु अभी ऐसे दिन भी देखने हैं,<br />
जिनके स्वप्न की भी सबको वर्जना है।<br />
<br />
कौन पीयूष सोता तुमने ना बहाया?<br />
कौन सा निनाद ऐसा जो न गाया?<br />
अवहित्था ही है किन्तु योषिता तुम्हारी,<br />
और न इसमें तनिक भी अतिरंजना है।<br />
<br />
ठीक तुम अमर्त्य नहीं, जंगली किरात सही,<br />
किन्तु जग प्रहसन उठाये, तुम कोई कन्दुक नहीं।<br />
साँझ की जो श्याम होती यवनिका है,<br />
उसे तुम्हारे बाणों से ही बिंधना है।<br />
<br />
भूल चलो जो किये अब तक हैं अर्जित,<br />
इतिवृत्तों को कितने दिवस पोंछना है?<br />
उदीप में अब, हे मनु निर्बंध बढ़ो,<br />
कूल तक नहीं कभी भी लौटना है।<br />
<br />
<br />
<br />
==============================<br />
<div id=":a6">
<wbr></wbr>===<br />
विजन= एकांत <br />
क्रोड़= गोद <br />
केतन= ध्वज <br />
विप्र= वेदज्ञाता <br />
इयत्ता= मात्रा/माप <br />
छोह= ममता/दया <br />
अज्रस= निरंतर प्रवाहित<br />
शोण= लाल/ रक्त<br />
अंशुमाली= सूर्य <br />
द्युतमान= तेजस्वी <br />
तृण-हर्म्य= कुटी<br />
धिपिन= उत्साहजनक <br />
कुत्सा= निंदा <br />
वल्गा= लगाम <br />
जऋम्भा= जम्हाई<br />
अवहित्था = भाव छुपाना <br />
योषिता= स्त्री <br />
कन्दुक= गेंद <br />
इतिवृत्त= इतिहास वृत्तांत <br />
उदीप= बाढ़ <br />
कूल= तट </div>
<br /></div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-35926199026011751302011-01-27T15:46:00.002+05:302011-03-17T10:54:11.057+05:30अवश्य ही...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TUFFiScALlI/AAAAAAAAAco/NC0luypEbMY/s1600/sn94d_highz.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="213" src="http://2.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TUFFiScALlI/AAAAAAAAAco/NC0luypEbMY/s320/sn94d_highz.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
कविताएँ सुनी जा सकती हैं,<br />
अर्गलाहीन पीपल के,<br />
पुराने कोटर पर,<br />
जहाँ रहा करती हैं,<br />
नन्ही त्रिरेखीय गिलहरियाँ।<br />
जेठ मास के सूरज से,<br />
झुलस चुकी बाँबियों पर,<br />
जो पिछले सप्ताहांत ही,<br />
खाली की जा चुकी हैं।<br />
<br />
कविताएँ लिखी जा सकती हैं,<br />
अनिमेष ताकते दिनकर पर,<br />
मान सुथराई हंता,<br />
या ओस का पुण्य पिता,<br />
अपनी अपनी तथा-यथावश।<br />
विहस उठाने में सक्षम है,<br />
जो कोई भी मृदु-कल्पना,<br />
शशि पर, उसकी कलाओं पर,<br />
तारकों की उद्दाम विभाओं पर।<br />
<br />
कविताएँ गुनी जा सकती हैं,<br />
गर्दन मरोड़ जुगाली करती,<br />
दूधविहिना बिलाई भैस पर।<br />
सँध से छन कर आती,<br />
पूस को भरमाती हल्की ताप पर।<br />
उस अगरू सुगंधि पर जो,<br />
करती है विश्वास बलवती,<br />
सौ युगों बाद खोद कर निकाले गए,<br />
विग्रह की स्मिता पर।<br />
<br />
कविताएँ कही जा सकती हैं,<br />
गुलमर्ग की सफ़ेद औ लाल,<br />
घाटियों के निरूपम सौंदर्य पर।<br />
देवदार पर अनी के जैसे जुड़े,<br />
तुषार के बिनौलों पर।<br />
रोहू-काट्ला चुनते गाते,<br />
हुगली के मछुआरों पर।<br />
ताम्बई कड़े पहने झुलसती,<br />
थार की तपती बरौनियों पर।<br />
<br />
कविताएँ बुनी जा सकती हैं,<br />
प्रशांत महासागर के,<br />
सबसे गहरे तलौंछ पर,<br />
जो सटकाए बैठा है,<br />
भुवन जितने ही रहस्य।<br />
आकाशगंगाओं , राहुओं, केतुओं,<br />
राशियों-नक्षत्र दलों पर।<br />
अगणित विधुर उत्कोच दबाये,<br />
काल के प्रहरों पर।<br />
<br />
किन्तु अब तक निर्वाक बैठे,<br />
अश्वत्थ विटप पर प्रच्छन्न,<br />
रण गुंजित-कलित होने वाले,<br />
स्वायत्त शब्द सभी बंध तोड़,<br />
फुनगी से बोल उठते हैं सहसा ही।<br />
यहाँ भी ठहरोगे न मित्र?<br />
वचन दो।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
==============<br />
अगरू= एक प्रकार की लकड़ी, जो अगरबत्ती बनाये के लिए प्रयुक्त होती है <br />
विग्रह= देवप्रतिमा <br />
सुथराई= ओस <br />
रोहू-काट्ला= नदी की मछलियों के प्रकार<br />
तलौंछ= द्रव-पात्र के तल में बैठा भारी अंश<br />
भुवन= ब्रह्माण्ड<br />
उत्कोच= रिश्वत <br />
अश्वत्थ= पीपल </div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-33454412309321387642011-01-18T21:36:00.001+05:302011-01-18T21:36:56.619+05:30शापित<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TTW5OFZK0nI/AAAAAAAAAcY/wE4JMmoGB4M/s1600/alone%257Ewading.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://3.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TTW5OFZK0nI/AAAAAAAAAcY/wE4JMmoGB4M/s320/alone%257Ewading.jpg" width="213" /></a></div><br />
<br />
<br />
कोई दीप जलाओ और प्रिये,<br />
एक निविड़ रचो, विश्राम करो। <br />
मुझ में जो जम कर बैठा है,<br />
उस पौरुष को रो लेने दो। <br />
<br />
मनुहार-प्रीत की बेला में,<br />
तुमसे दरवेशी वचन लिए। <br />
अंजन जो फैला जाता है,<br />
उसको विनाश बो लेने दो। <br />
<br />
सौ दुर्गम दर्रे पार किये,<br />
कितने छाती पर वार लिए। <br />
अभिप्रेत मूल्य जो चुका दिया,<br />
अब स्वयं को भी खो लेने दो। <br />
<br />
दो झिप के बीच का मधु-दर्शन,<br />
विशद स्पृहा का एकाकीपन। <br />
जागे जो आख्यान वृहद,<br />
सब स्कंध मोड़ सो लेने दो। <br />
<br />
जो अधरों में ही घुले रहे,<br />
जो मौन से निशदिन धुले रहे। <br />
औ पनस की भांति सूख गए,<br />
संताप मुझे वो लेने दो। <br />
<br />
प्रीत पगी कोरी पाती,<br />
स्फटिकों से कहीं श्रेयस थाती। <br />
जो स्नेहिल शब्द अव्यवस्थित हैं,<br />
दृग नीर से सब धो लेने दो। <br />
<br />
मैं बन्ध तोड़ आ सकता था। <br />
सब छंद छोड़ आ सकता था। <br />
किन्तु रणभेरी जो चुन ली,<br />
सब श्राप मुझ ही को लेने दो। <br />
<br />
कितना जीवन मुझ पर वारा,<br />
मैं जीता, तुमने सब हारा। <br />
अब आज बदलने दो पाले,<br />
यह भार मुझे ढो लेने दो। <br />
<br />
ऐसा भी नहीं कि ग्लानि है,<br />
रण मेरी नियति पुरानी है। <br />
पर स्नेहघात के फलस्वरूप,<br />
जो होता है, हो लेने दो। <br />
<br />
<br />
========<br />
पनस= कटहलAvinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-62147790388721123302011-01-09T17:09:00.009+05:302011-05-02T11:09:13.426+05:30श्रेयस्कर..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TSmeEC5M6aI/AAAAAAAAAcU/7GuQUdCY4O0/s1600/shrey.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="212" src="http://4.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TSmeEC5M6aI/AAAAAAAAAcU/7GuQUdCY4O0/s320/shrey.JPG" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
अब चीर के सप्त वितानों को,<br />
औ तोड़ के प्रति प्रतानों को। <br />
मधु-संकुल से बाहर निकलो,<br />
रज-विरज में प्राण बहाने को। <br />
<br />
अगणित युग से बन कर योगी,<br />
निर्बंध ध्यान से क्या होगा?<br />
यह मूठ असि की हाथ धरो,<br />
विगलित हर ऋचा बचाने को। <br />
<br />
यह लब्ध पुण्य जो अर्जित हैं,<br />
पाथेय में काम न आयेंगे।<br />
पथ में जो शूल हैं, ढेले हैं,<br />
पर्याप्त हैं विहस उठाने को।<br />
<br />
उत्ताल, मंजु जो रहती थीं,<br />
सब श्रांत दिशाएँ दिखती हैं। <br />
नवोन्मेष की आस में हैं बैठीं,<br />
तुमसे ही न्यास कराने को। <br />
<br />
सौ कुंजर सा गर्जन भर दो।<br />
प्रशमन का पथ इंगित कर दो। <br />
पूजार्ह रक्त पुलकित दे दो,<br />
गंडक का वर्ण छुडाने को। <br />
<br />
लावण्या की कवरी से छन,<br />
उच्छ्वास अनिल तो आती है।<br />
किन्तु रण की यह प्रेत पवन,<br />
क्या कम है श्वास चलाने को?<br />
<br />
जीवन की सौ वीथिकाएँ हैं,<br />
जितनी हैं, सब दुविधाएँ हैं।<br />
जो उत्स है वह कम्पित कर दो,<br />
अपनी ऋजु विमा बनाने को।<br />
<br />
मौलसिरी के सुमनों से,<br />
कितना आसव बनवाया है?<br />
उनको अब सान्द्र तनिक कर दो,<br />
घावों पर लेप लगाने को।<br />
<br />
कितने दिव तम ने पी डाले,<br />
सौ युग केलि के जी डाले।<br />
अब कुछ ऊँचे सोपान गढ़ो,<br />
जा उससे आँख मिलाने को।<br />
<br />
कब तक हा विप्लव! गाओगे?<br />
हो श्लथ, मुख तक ना उठाओगे?<br />
माना दबीत का शैशव हो।<br />
पर्याप्त हो ध्वजा उठाने को।<br />
<br />
इस सिकता सैकत भूमि में,<br />
पाटल की स्पृहा पुरानी है।<br />
अहेतुक वर में दे दो कुछ,<br />
उद्धत बीज, ऊसर लहराने को।<br />
<br />
इतिहास नहीं आख्यान पढ़े,<br />
शांति-शांति का ध्यान मढ़े।<br />
समर किन्तु आवश्यक है,<br />
इतिहास भूगोल बचाने को।</div>Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com37tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-4531518385951719212010-12-31T20:50:00.001+05:302011-01-09T16:08:54.831+05:30अपेक्षित..<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
होगे महनीय तुम, उत्तम,<br />
सामर्थ्य नहीं, नहीं झुठलाऊंगा।<br />
ऊसर थल- जीवंत कौमुदी तुमसे हैं, <br />
होंगे, प्रश्नचिन्ह नहीं लगाऊँगा।<br />
<br />
कहोगे तो पढ़ दूँगा ऋचाएँ,<br />
मंत्र संभवतः साथ में दोहराऊँगा।<br />
जो गाते हो गान, होंगे रुचिकर,<br />
तो सहर्ष मैं भी गाऊँगा।<br />
<br />
श्रद्धेय होंगे यदि विचार किसलय,<br />
मैं भी रचूँगा उन पर गीत।<br />
तुम्हारे तय मानकों पर सब,<br />
राग-ताल-झंकार बजाऊँगा।<br />
<br />
तुम्हारे अखंड नाद आलापों में,<br />
जोडूँगा उद्धत मधुकर अध्याय।<br />
लगेगा अनुकरणीय पथ तो,<br />
स्वेच्छा से तुम्हारा अनुयायी कहलाऊँगा।<br />
<br />
किन्तु मेरा रच मैं स्वयं हूँ,<br />
रचूँगा स्वायत्त स्वत से ही।<br />
केवल तुम्हारी अनुशंसा हेतु,<br />
निःसृत सृजित न पगुराऊँगा।Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-7089269289506841054.post-32327506331640461572010-12-28T18:40:00.006+05:302010-12-29T10:39:39.898+05:30मोक्ष...<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TRnhvKLaOrI/AAAAAAAAAcE/Sky4lUyLdWc/s1600/Noosa-River-sunset-19-June-2010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/_Pqh1646oXqQ/TRnhvKLaOrI/AAAAAAAAAcE/Sky4lUyLdWc/s320/Noosa-River-sunset-19-June-2010.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
<br />
स्वायत्त प्रशमन करते,<br />
मेरे उद्धत शब्द।<br />
नवोन्मेषण हेतु संघनित,<br />
आलोड़ित होते हैं।<br />
करना चाहते हैं सर्जना,<br />
वे स्वयं के गीत की।<br />
<br />
स्व-सायुज्य विचार मधुकरों से,<br />
संपृक्त वह गीत विग्रह।<br />
सान्द्र प्रशंसा केलि की,<br />
उत्फुल्ल स्पृहा लिए,<br />
झांकना चाहते हैं वातायनों से।<br />
विहस उठना चाहते हैं।<br />
<br />
किन्तु क्या मधुमास का,<br />
निरभ्र आना संभव हुआ है?<br />
स्वयं से रचे शब्द,<br />
उत्स से विगलित हो उठते हैं।<br />
स्वयं से ही विमुख,<br />
अभिप्रेत, प्रसूत, विछिन्न।<br />
<br />
उच्चारों की श्रेयस विभाएँ,<br />
गह्वरों में कांपती हैं, कुंठित।<br />
व्याकरण का केसरी सौंदर्य,<br />
नहीं सुहाता नासापुटों को।<br />
प्रांजल शब्द होते जाते हैं,<br />
परिवर्तित शृंगीभालों में।<br />
<br />
इन विचारों के झुरमुटों से,<br />
उन्नयन करता कडवापन।<br />
इस मधुप संकुल में,<br />
प्रच्छन्न विशद अवसाद।<br />
यह संदेह की दस विमायें,<br />
अंततः किसका इंगित हैं?<br />
<br />
ऐसा तो संभव नहीं कि,<br />
मेरे गीत चले गए हों,<br />
किसी अगत्यात्मक देश के,<br />
उत्पल दलों में डूबने।<br />
किसी अलसाई झिप में धंस,<br />
प्रतानों में नाहक फंसने।<br />
<br />
बेलौस झूमते रहने से,<br />
श्लथ निर्वाकपन तक।<br />
मेरी समझ से की उन्होंने,<br />
उन्मीलन की ही क्रिया।<br />
क्या मेरी अहर्निश अनिमेष दृष्टि,<br />
किंचित निमीलित हो गई थी?<br />
निश्चय ही!<br />
<br />
संभवतः अपने ऋजु आख्यान में,<br />
नहीं कर पाया गणना।<br />
तुम्हारी अहेतुक वीथिकाओं की,<br />
जो तुमने जीवन पाथेय में बांधी थीं।<br />
नहीं रख पाया मन व्रणों को,<br />
स्वच्छ, धवल, गंधहीन।<br />
<br />
नहीं सुन पाया सोपानों से,<br />
विप्लव के मादल का स्वर।<br />
तुम्हारी मृदुल मोहक संसृति,<br />
जिसमे पहले से रहना था विनत।<br />
उस पूजार्ह अस्तित्व के आगे,<br />
अब शब्दों के साथ प्रणत हूँ।<br />
इस आर्जव प्रेम सरिता में,<br />
मेरे शब्द मोक्ष पायें।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
================= <br />
निरभ्र= स्वच्छ/ बिन बादलों के<br />
विग्रह= देव प्रतिमा<br />
प्रसूत= दूसरी वस्तु से लिया<br />
संपृक्त= डूबा/घिरा<br />
नासापुट= नथुने/नसिका<br />
वातायन= खिड़की<br />
अभिप्रेत= अवांछित<br />
विमा= आयाम/dimensions<br />
सान्द्र= गाढ़ा<br />
विगलित= पिघला<br />
उत्पल= कमल<br />
पूजार्ह= पूजनीय<br />
श्लथ= थका<br />
निर्वाक= चुप<br />
अहर्निश= दिन-रात<br />
विप्लव= विनाश<br />
मादल= ढोल<br />
================Avinash Chandrahttp://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.com16