मौन बैठे हुए...




पिता! तुम बूढ़े नहीं हो रहे।
नहीं घट रही है तुम्हारी,
डेसिबल आंकने की क्षमता।
सिक्स बाई सिक्स देखने भर ज्योति,
अभी भी है नेत्रों में।
किंचित अधिक ही हो गई है।

तुम छोड़ सकते हो एक और रोटी,
खींच सकते हो साइकिल,
और दसेक मील।
गदरा उठती है भिनसारे,
कुछ और तुम्हारी केशराशि।
फिरा सकते हो अकेले हेंगा तुम,
निश्चय ही हल चला सकते हो।

नहीं सकुचा रही तुम्हारी छाती।
आज भी नहीं जीतता है जनेऊ।
नहीं टूटते रोयें तुम्हारे।
कलाईयों का बल नहीं थमा,
स्कंध विपन्न नहीं हो पाए हैं।

पिता! नहीं उगे गड्ढे तुम्हे।
नेत्र ज्योतित हैं पुंज-पुलकित।
दंतपंक्ति आज्ञाकारी छात्रों की भांति,
सुन्दर पुष्ट प्रयत्नशील हैं।
रुक्म ललाट नहीं भेद पाए हैं,
झुर्रियों के समवेत प्रहार।

यह मैं नहीं कहता तुमसे,
तुम मौन बोलते-पढ़ते आए हो।
ममता नेह आँचल टपकन,
हहरते लहरते मन के बीच,
मौन बैठे पिता, तुम जानते हो,
आयु नहीं होती उसकी,
आकाश कभी बूढा नहीं होता।