मनु से....




गूँजी मादल की स्वर-लहरी, मनु बाण उठा!
आगे जो आए बेल-वृक्ष-चट्टान उठा।
जो कर्मठ ना हो पुष्प भी नहीं खिलता है,
जीवन उसका जो शाख-प्रशाखें सका हटा।

प्रेमी मन आते हैं, आएँगे-जाएँगे,
प्रणय-विरह के गीत केक-पिक गायेंगे।
किन्तु उनको ऐसा सुयोग दे सकने को,
जो वसु मांगते हों तो अपना रक्त बढ़ा।

क्षिति का औरस है, तुझको स्थापित करना है।
अब गुहा नहीं, बस तुंग-तुंग पग धरना है।
औ पारद जो आदित्य नाम से चढ़ता है,
अपनी दृष्टि के तुहिन से उसका ताप घटा।

सम वेद तुक्त, अथ नीति में भी निष्णात नहीं।
कोई स्तवन, स्तुति, कोई विग्रह गीत भी ज्ञात नहीं।
तो जीवन-संगर का ही अब पारायण कर,
औ चिति की ईंटें एक के ऊपर एक जुटा।

चक्रवाक - कारण्डव से उद्यान बसें।
संयुत हों मलयज-तंडुल, नित-नित भाल सजें।
पर इसमें बाधा धरे कभी कोई अरि कहीं,
तो मखशाला में एक-एक कर होम चढ़ा।

तांडव पी ले, बच जाए जिससे लास्य कहीं।
अतिरथ को पथ पर मिलता है कब हास्य कहीं?
भीषण वीरुध, पातक गह्वर के कानन में,
अपने भास्वर आनन से रश्मि-रश्मि छलका।

आभा ललाम, पुर से प्रांतर तक छप जाए,
अंतिम विराम प्रत्यूष का नभ पर लग जाए।
जो व्योम को लीले जाते हों दुर्धर पयोद,
असि के कराल को प्रेम से उनकी भेंट चढ़ा।

आवश्यक नहीं कि पाण्डुर वसन दुकूल के हों।
मकरंद जो लाये आसव नलिन - बकुल के हों।
तू चक्रपाणि सा श्रेष्ठ नहीं, तो नहीं सही,
किन्तु महि बोले बजा, तो शंख का नाद बजा।




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केक= मोर
पिक= कोयल
क्षिति= धरा
औरस= श्रेष्ठ पुत्र
पारद= पारा
तुहिन= हिम
चक्रवाक= चकवा (एक पक्षी)
कारण्डव= एक पक्षी
तंडुल= चावल
अरि= शत्रु
लास्य= कोमल नृत्य
अतिरथ= योद्धा
वीरुध= वनस्पति
प्रत्यूष= प्रातःकाल
पाण्डुर= हल्का पीला-सफ़ेद
दुकूल= उत्तम वस्त्र
वसन= वस्त्र