अवसान से पहले...



मिहिर अस्त हो चला है,
सुस्त-सुस्त सी धरा है.
श्रान्त दिखती हैं भुजाएँ,
फिर भी मैं उत्ताल हूँ.

मंदप्रभ है भाल मेरा,
दीन-हीन हाल मेरा.
अलक-पलक झरे-झारे,
फिर भी मैं विकराल हूँ.

मुकुर में घावों के छींटे,
छाती स्वयं को ही पीटे.
शोक के इस मौन में,
मैं रोष का भूचाल हूँ.

ठोस-कुटिल श्वास हुई,
मृत्यु का आभास हुई.
हूँ नचिकेता नहीं पर,
हठी हूँ, बेताल हूँ.

मंजु मितुल हास जो था,
तप्त सा परिहास बना.
तम की है जो खाप चलो,
मैं भी महिपाल हूँ.

वात से मलय लजाया,
अघर्ण को राहु ने खाया.
कीट-कीट है धरा तो,
मैं भी महाव्याल हूँ.

मूक अभ्र रक्त भरे,
जैसे हैं चांडाल खड़े.
किन्तु मैं निर्भीक खडा,
दबीत का कपाल हूँ.

सूर्य की सौगंध मुझे,
रक्त ये झंझा करेगा.
धमनी में सोता झरेगा.
खड़ग ये दिप-दिप करेगा.
एक दिवस तम कहेगा,
मैं उसका महाकाल हूँ.




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श्रान्त= थका हुआ
उत्ताल= बहुत ऊँचा
मुकुर= आईना
मितुल= मित्र
अघर्ण= चन्द्रमा
दबीत= योद्धा
अभ्र= बादल

नज्में कलाई पर...



किसी अबाबील को,
शरद की ओस का,
सच्चा लालच दे,
मंगाती हैं रंग,
समय की दुकान से.

तरेर के आँखें,
चिढाती हैं कि,
गर्म हो सूरज.
और बरसात में से,
चुन के उड़ाए,
केवल गंगाजल.

चावलों के बाद,
रोज खाती हैं,
तुलसी के गुच्छे.
साँसें भी बस,
पावन ही निकलें.

कहती हैं नासपीटा,
बेचारे कपास को.
ताकि सहमा हुआ वो,
चुपचाप दे जाए,
सबसे अच्छा रेशा.

कात कर वक़्त,
अपने सपनों से,
गूंथती हैं रोज,
नीले-पीले-गुलाबी,
चमकीले धागे.

रात छुप के,
करती हैं इन्तजार.
और धप तोड़,
पहला हरसिंगार,
जड़ देती हैं धागों पर.
आँखों में जमाया,
गाढ़ा गोंद निकाल.

माँग कर फुर्सत,
कृष्ण-राम-दुर्गा से.
करती हैं आराधना.
शायद इस बार,
सुन लें चिट्ठीरसां.

वो धागों से ही रखती हैं,
आँख भाई पर.
जो हँसती हैं तो बजती हैं,
नज्में कलाई पर.

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बहनें भी....

बुखार हो,
और माँग बैठूँ,
पानी कभी.
ये सोच के,
कम सोती हैं.
दीदी हों, गुडिया हों,
बहनें भी,
माएँ होती हैं.

नहीं माँगता...



ना दो मुझको सौम्य सरोवर,
मुख पर स्थायी कांति का वर.
स्नेह तरु विस्थापित कर दो.
ना दो किसी विपत्ति का हल.

रेंग-रेंग के नहीं माँगता,
मैं तुमसे अमरत्व का फल.
तीसी के पिघलेपन सा है,
दृगों का मेरे हीरक जल.

सौ युग के ग्रंथों का राजा,
हर पूजा में पुष्प जो साजा.
पुण्य कोटि गोदान के जितना,
मंदाकिनी का शीतल जल.

मुक्ताफल अनुनाद तरंगी,
मिहिर व्योम छटा सतरंगी.
इनकी जगह प्राप्य हो मुझको,
प्रपात का भीषण कोलाहल.

मृदु पुष्पों के कोमल उपवन,
सुर-स्वर का मीठा एकाकीपन.
रजत-स्वर्ण सा दिप-दिप करता,
रेणु-पथ बन कर कंचन दल.

ऐसे गीत नहीं गुनने हैं,
सपने पीत नहीं बुनने हैं.
अणु-अणु से उर्वर होना है,
जेठ के ढीठ प्रभाकर जल.

घंटा औ घड़ियाल ध्वनि,
नव मधु का जो उच्चार बनी.
नव्या सी यह प्रातः बेला,
जो सुरभित से सपनो ने जनी.

इन मेहुल स्वाति बूंदों में,
नहीं है जाना मुझको घुल.
भीषण रण चिंघाड़ निहित है,
अजित भुजाओं का अतिबल.

स्मित सुख से कुसुमित जीवन,
मिलन-इंदु सा सुख-वैभव धन.
और विरह की बेकल झंझा,
मुखर कल्पना भरे अधर.

मेरी गति को नहीं चाहिए,
ऐसे सीले नैन युगल.
तम को जो कर जाए तिरोहित,
हो वो हिय में ज्वालादल.

अवसान नहीं अवनति कोई,
है प्राण-वायु की गति कोई.
लम्बे पर भंगुर जीवन से,
अच्छा है बह जाऊं कल-कल.

देवों तुम अपने तक रखो,
यज्ञजनित यह पुण्य के फल.
मेरा पौरुष निष्कूट जलेगा,
नित संघर्ष के दावानल.

रेंग-रेंग के नहीं माँगता,
मैं तुमसे अमरत्व का फल.
तीसी के पिघलेपन सा है,
दृगों का मेरे हीरक जल.

जो तुम होते...



रोष जनित यह मौन तुम्हारा,
करता है आघात प्रिय.
इससे तो किंचित अच्छा था,
रव का भौतिक उत्पात प्रिय.

उज्जवल नभ का नील वर्ण,
औ मन उपवन का हरित गात.
सब मौन की काली छाया है,
सन्नाटे का आलाप प्रिय.

कुहकनी के लब्ध स्वरों में थे,
जो स्नेहिल पुट आत्मीयता के.
वो अब तुषार के काँटें हैं,
धमनी-धमनी संताप प्रिय.

मैं दीप बना इतराता था,
नित शलभ मार गर्वाता था.
अब किस पानी में डूबा हूँ,
जो बहता है बेनाद प्रिय.

अपनेपन के अवगुंठन बिन,
स्मृतियों में है तीखा कम्पन.
अनुरंजित कलियों का वैभव,
लगता है ओछी बात प्रिय.

पराग बुना करते दुकूल,
रेणु-पथ पर था संगीत विपुल.
हर स्वर कलरव अब अस्फुट हैं,
गीतों से उड़ती भाप प्रिय.

नव अशोक के राग-राग,
यूथी के स्वर्णिम पुष्प-पात.
इनका यौवन एक भ्रम सा है,
तेरी आशी के अनुपात प्रिय.

तुहिन विन्दु सा अक्षत हास,
करता था तुममे निवास.
अब सीपी स्वाति की बातें,
हैं पावस का परिहास प्रिय.

संसृति के अगणित तारों में,
आँसू थे सदा मुदित निर्झर.
सारे अब खारे सागर हैं,
हर ठौर ही रखे घात प्रिय.

दृग-पुलिनों पर हिम सी करुणा,
पावन गंगा अति मृदु वरुणा.
यह सब कुछ काई-काई है,
तुमको भी तो है ज्ञात प्रिय.



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दुकूल= एक प्रकार का कपड़ा
यूथी= जूही
आशी= मुस्कान
तुहिन= शीत ऋतु/ तुषार
वरुणा= एक नदी
रेणु= मिटटी से उत्पन्न/बना

मुझमे तुम सा...



अतीत की काश्तकारी,
सिर्फ हाथ की लकीरों,
पेशानी के बलों,
लटों की रंगत तक रहती.
तो कौन कहता उसे,
जादुई, छलावा, बाजीगर?

वो तो चुपके से उठाता है,
पुख्ता और बेरहम हथौड़ा.
और सधे हाथों से,
छिलता-फाड़ता जाता है,
रूह की छत-ओ-दीवार.

तुम्हारी सकुचाई सी याद,
भागने की फिराक में,
हर कोने से टकराती है,
टूटती है, खोती है.
जड़ों से छूट कर खो जाना,
नियति है शायद.

पलकों के पुराने किवाड़,
भींचते-भिड़ाते भी,
निकल आता है थोड़ा लोहा.
चेहरा यूँ ही तो सख्त,
नहीं दिखता मेरा.

भोर से ठीक पहले तक,
बिना हिचकियों के,
कोशिश करता हूँ रो लूँ.
आवाज से सन्नाटा,
ना जाग जाए कहीं.

सुनो!
पाँगुर के फूल नहीं आत़े,
अब किसी भी दरख़्त.
हाँ! तालाब में वो,
तुम्हारी हमनाम मछली,
अब भी है.

सतह पर सरसराती है,
मैं दिमाग पर जोर देता हूँ.
कुछ तो याद रह जाए.

पानियों के निशान,
ज़िंदा नहीं रहते.

उस एहसास में,
छिटक जाती है,
एक और बूँद,
तुम्हारी याद की.

कुछ और अधूरा सा है,
मेरा अक्स आईने में.
और ताल का पानी,
कुछ-कुछ तुमसे मिलता है.

बिलकुल भी तो नहीं,
तुममे मेरा हिस्सा सा...



मेरा सोचना.
और सोचते ही जाना.
लगातार-निर्विकार-निर्द्वंद.
त्रुटी-क्षण-युगों-कल्पों तक.

मेरा देखना.
और देखते ही जाना.
चुपचाप-आँखें फाड़- अपलक.
खिडकियों-दीवारों-बादलों-आसमानों के पार.

मेरा चलना.
और चलते ही जाना.
सतत-अनवरत-निरंतर.
गली-शहर-देश-काल से परे.

मेरा रुकना.
और रुके ही रहना.
जैसे विन्ध्य हो प्रतीक्षारत.
अगस्त्य कभी तो लौटेंगे वापस.

मेरा रोना.
और रोते ही जाना.
की इसी से मिट जाए सूखा.
"इसकी" बजाए "इसमें" मिलना हो गँगा को.

मेरा सोना.
और सोते ही जाना.
खुली आँखों से ही.
आखिर खँडहर में कपाट क्यूँ हो?

और फिर किसी दिन,
सुबह से ठीक पहले.
तोड़ देना इस पाश,
पत्थर-पलाश के ठीकरे को.

ठीक उसी क्षण,
जब की अन्धेरा.
होता है गहरा,
अँधेरे से भी ज्यादा.

फिर सब कुछ.
बिलकुल सब कुछ.
जुलाई की किसी,
सीलनाई दोपहर,
बहा देना माट्ला* में.

कोरे पन्नों की,
कविताओं के संकलन.
बंगाल की खाड़ी में,
छपते हों शायद.

बकौल तुम...
"हर बात लिख के कहना,
जरुरी तो नहीं."






माट्ला*= बंगाल की एक नदी का नाम

साँकलों के पीछे...



कुर्सी टेबल,
कलम-दवात,
कूची-पानीरंग.
मीठी रोटियाँ,
गुड वाली.
इनके बीच,
देखता था,
चाँद जितनी ऊँची,
दरवाजे की साँकलें.
जिन्हें सिर्फ अब्बू,
खोलते थे.

माँ से बतियाते,
रोटियाँ दो,
कम ही खाते.
टाँकते टूटा बटन.
प्रेस लगाते,
साँझ धोई,
इकलौती पतलून पर.
पूछने पर भी,
"कुछ नहीं बेटा"
बोलते थे.

कोई बहत्तर,
साल पुरानी,
दिवाली के,
कबाड़ से,
निकाल फेविकोल.
हनुमानी चश्मे,
का फ्रेम जोड़ते.
पुरानी डायरी में,
जाने क्या तोलते थे.

कक्षा दो, फिर तीन,
पार करता रहा.
मैं, मेरा कद,
बढ़ता रहा.

कल अब्बू से,
नज़र बचा.
ये साँकलें,
मैंने भी खोलीं.

तो चिलचिलाता,
सूरज कहता है.
"चल भाग!
तू खुदा नहीं है,
मर जाएगा."

पलाश और करेली...


"तुम पलाश के अमर पुष्प हो,
मैं कडवी सी बेल करेली.
कैसे अपना नेह बनेगा?
करते क्यूँ कर हो अठखेली?"

"हे सत्वचन, सदगुणी, गुनिता!
अम्लहरिणी तुम श्रेष्ठ पुनीता.
मैं अरण्य का बेढब वासी,
तुम युग-युग उपवन में खेली."

"मंगलवर्ण, रुक्म तुम जीवक,
उत्सव-क्रीडा के उत्पादक.
मैं हूँ हेयदृष्टि की मारी,
कालिख से है देह भी मैली."

"रूपक कितने दिवस रहा है?
किसने कितना सूर्य सहा है?
तुमने हर क्षण प्रेम उचारा,
हंस कर कोटि उपेक्षा झेली."

"देव तुम्हारे वचन स्निग्ध हैं,
वेद-ऋचाओं से ही लब्ध हैं.
इतना नेह सहूँगी कैसे?
रही है निंदा बाल्य सहेली."

"गरलगंट के फन के आगे,
उचित नहीं बनना पनमोली.
आती तुम बन क्षार चंडिका,
वायु जब होती है विषैली."

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पनमोली= मीठा बोलने वाली स्त्री 
गरलगंट= विषैला नाग

उचित चुनाव....


सलिल सरोवर ढक कर रखते,
हे निमेषद्वय सुन लो.
श्रावण की बूंदों संग आए,
मल्हार कोई एक चुन लो.

मैं दीपक वर्ति संग जलता,
क्यूँ बन शलभ चुनो आकुलता?
बन जाओ स्नेहातुर झीरी,
कोई मदिराघट चुन लो.

राख की रेख देह है मेरी,
धूम्र चूमता निशदिन देहरी.
क्यूँ कालिख-कालिख धुनना है?
सदाबहार वन चुन लो.

ना मैं कुंदन, ना मैं चन्दन,
ना अभिनन्दन में तारागण .
हे हठिनी! मुदितमुख नव्या,
अब तो नभ की सुन लो.

धनु दर्पक का नहीं है मेरा,
प्रेम को ज्वालादल ने घेरा.
वेणी धू-धू जल जायेगी,
केश गूँथ लो, बुन लो.

जेठ का दावानल मैं हत हूँ,
शीत-शरद के तप में रत हूँ.
कर्म का क्रम टेरना कब तक?
कोई अन्य गीत अब गुन लो.

लावण्या, चम्पई, हरिणी, सुकेशिनी,
लतिका, गतिका, ह्रदयविचरिणी .
लोचन मेरे नहीं कह पायेंगे,
अब अन्य नयनद्वय चुन लो.

मैं अरण्य का ठेठ सिंह हूँ,
रण हूँ, मैं हिंसा का चिन्ह हूँ.
पिक की तुम मधुमासी बोली,
वृंत मलय का चुन लो.

आरोहण, अवरोहण, दोहन,
मेरी जिजीविषा के मित्र हैं.
प्रेम के पल्लव रुक के बढ़ाऊं,
मत सोचो, सच बुन लो.

यह सब संभवतः ना कहता,
चुप रहता हूँ, चुप ही रहता.
किन्तु एक 'त्रुटी' का स्नेह है,
सौगंध उसी की सुन लो.

ना रखो आसक्ति खडग पर,
कोई देव प्रणय का चुन लो.

दो छोटी कविताएँ...



इकलौता पतझड़...

समय के किसी पेड़,
जो कि गदराया है,
युगों-कल्पों से,
के 'उन' दिनों की,
मुलायम शाख से.

तुमसे मिलने,
तुम्हे देखने,
तुमसे बतियाने,
के चन्द लम्हात,
कहो तो तोड़ के,
दे दूँगा.

पर अगर माँगोगे,
सारी यादों के हर्फ़.
तो कैसे रहूँगा जिंदा,
बन के ठूँठ?

सुना है,
पतझड़ भी नहीं आता,
'सुंदरबन मैन्ग्रोव्स' पर.





 तुम्हारा होना..ना होना..

एक कतरा आसमान,
छः-आठ तारे.
बेइन्तेहाँ  सुफेद चाँदनी.
बादलों के कुछ,
छोटे-छोटे वरक.
जो तुम ना हो,
पोस्टर के पीछे की,
सुनसान वीरानी है.

सड़क के गड्ढे,
तारकोल से तलाकशुदा,
महीन गिट्टियाँ.
मच्छरों का आशियाना,
जमा हुआ पानी.
पतंगों को खाती,
पीली स्ट्रीट लाईट.
जो तुम हो,
किसी सिंड्रेला की,
ताज़ी कहानी है.


....................................
यादें... 
....................................

जिन्दगी की चुस्कियों में,
किवाम, केवडा,
ईलायची हैं,
तुम्हारी यादें...