प्रणाम..



महि पर छितरे मेरे शब्द,
जिनके वर्ण भी धूसरित हैं,
रहते हैं सदैव आकुल,
हो जाने को विलीन,
घुल जाने को निस्तेज.

अमिष अनुभूति से रचे,
मेरे अकार आक्रान्त वाक्य.
वाग्जालों में उलझ कर,
दिखते हैं संज्ञाशून्य,
अवसाद में धंसे हुए अतिरथ.

हठी प्रचेतस प्रदोष,
लगने लगता है तनिक,
और हठी, और विशाल.
विपुल विक्रांत गीत,
रमते हैं समूह क्रंदन.

अदम्य ललक औ अभिरुचियाँ,
निस्पृह हो जाती हैं नित्य.
अहिजित ह्रदय होने लगता है,
हर फुंफकार पर कम्पित,
पर्वत से बन गौरिल.

ऐसे में अनघ स्पर्श तुम्हारा,
रच देता है उल्लास पर्व.
तुम्हारा अमिष आशीष,
कर देता है प्रदीप्त,
प्रचंड धिपिन प्रद्योत.

दृष्टि का अरिहंत पुंज,
कर देता है भस्मीभूत,
शब्दों के सभी विकार.
अभीक ओज देता है,
उन्हें अघोष तेजस्वी आकार.

द्युतमान अनुकम्पा के वचन,
स्नेहिल मलय-परिमल सम,
लेते हैं स्वरुप परिण का.
और वाक्य पा जाते हैं मेरे,
हेमाभ उचित मृदु विन्यास.

ऐसे अतिपुण्य क्षणों के असीम,
उदीप क्षणों में डूबता-उतरता,
मेरे स्व का तुरंग,
बस इतना ही सक्षम है.
हर रोम-स्पंदन का प्रणाम,
स्वीकार करो तात!!




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महि= धरती
अमिष= छल रहित, ईमानदार
अतिरथ= योद्धा
प्रचेतस= बल
प्रदोष=अँधेरा
विक्रांत=बलवान
निस्पृह= इच्छाहीन
अहिजित= जिसने सर्पों को जीत रखा हो
गौरिल= राई/white mustard
अनघ= पुनीत
धिपिन=उत्साहजनक
प्रद्योत=चमक
अरिहंत= शत्रुओं का नाश करने वाला
अभीक= भयहीन
द्युतमान= चमकदार/तेजस्वी
परिमल= सुगंध
परिण=गणेश
हेमाभ= सोने जैसा चमकदार
उदीप= बाढ़
तुरंग= घोडा/मन

31 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मन में कितने ही तूफ़ान क्यों न हों पिता का वरद हस्त मिलते ही मन शांत हो जाता है ...बहुत खूबसूरती से व्याकुलता और पिता के स्पर्श से मिलने वाले सुख को अभिव्यक्त किया है ..

अरुण चन्द्र रॉय said...

अविनाश जी... आपकी रचना छायावादी युग की याद दिलाती है.. यह कविता भी सुन्दर है... ओजपूण है... नये शब्दओ से सजी है.. शब्दो का अर्थ दे.. आप अच्छा कार्य करते है.. पढ्ने मे आनन्द आ जाता है...

संजय भास्‍कर said...

अविनाश जी आपकी कविता पढ्ने मे आनन्द आ जाता है

रश्मि प्रभा... said...

maa dharti, pita aakash ... pranam unko

संजय @ मो सम कौन... said...

हमेशा की तरह बहुत खूबसूरत और प्रवाहमय पंक्तियाँ।
रिश्तों को बखूबी समझते हैं आप।
चित्र संयोजन बहुत अच्छा है आपका।
कठिन शब्दों का सरलार्थ नीचे देकर और भी उपयोगिता बढ़ा ली है आपने।
शुभकामनायें।

दिगम्बर नासवा said...

ओजपूण .... हमेशा की तरह खूबसूरत और प्रवाहमय .....

Anonymous said...

bahut hi behtareen rachna...
hindi ke itne kathin shabdon ke hone se thodi pareshani jaroor huyi....

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अनूठा काव्य, अद्भुत प्रवाह और आभार का अद्भुत उद्गार...अविनाश जी अब शब्द कम पड़ने लगे हैं आपकी कविता पर टिप्पणि करने के लिए!!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

हिंदी के कठिन शब्दों का इतना सुंदर प्रयोग सहज ही प्रभावित करता है। एक नेक काम यह किया आपने कि कठिन शब्दों का अर्थ लिख दिया।

प्रवीण पाण्डेय said...

ऐसी प्रेम की गाढ़ी चाशनी उतर गयी हृदय में कि जो भी पी रहा हूँ मीठा लग रहा है।

अनामिका की सदायें ...... said...

बहुत ओजपूर्ण और नए शब्दों से सजी कविता.

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!

अरुण अवध said...

सुन्दर,ओजमयी रसधार सी ,
अध् से ऊर्ध्व की और प्रवाहित रचना !
प्रसंशनीय!!

shikha varshney said...

अच्छा किया हिंदी के शब्दों का अर्थ भी बता दिया :) बहुत सुन्दर कविता .

शरद कोकास said...

कविता के आनंद के साथ श्ब्द ज्ञान मे भी वृद्धि हुई ।

Anupama Tripathi said...

अमिष -अभीक ओज से परिपूर्ण
तेजस सुकृती -
बधाई के पात्र हो ...!!

Rohit Singh said...

शब्दों का अद्भुत खजाना है आपके पास। बहुत ही खूबसूरत रचना है आपकी। पर अपने पर कोफ्त होती है कि अपनी ही भाषा के कई शब्दों को कैसे हम भूल गया हूं।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

प्रिय बंधुवर अविनाश जी
अभिवादन !

स्वय को हिंदी भाषा भाषी कहने में कुछ संशय - सा होने लगा है …

विनति है , कभी मुझ जैसे अल्पज्ञानी के भी सहज समझ में आ जाए ऐसी कविता लिख कर उपकृत कीजिएगा …
:)

अनघ स्पर्श तुम्हारा,
रच देता है उल्लास पर्व.
तुम्हारा अमिष आशीष,
कर देता है प्रदीप्त,
प्रचंड धिपिन प्रद्योत


अनुपम !

अद्वितीय !!

अलौकिक !!!

असीम शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Apanatva said...

ye abhinandan man ko choo gaya........
ek arse baad itanee badiya hindi padvane ke liye bhee dhanyvaad.

manu said...

sahi kahaa hai...

हरकीरत ' हीर' said...

पिता को समर्पित आपकी ये अनूठी रचना ...
अद्भुत शब्दावली ...बिम्बवाली लिए हुए ...
आपके शब्द ज्ञान पर चकित करती है ....
एक बार फिर आपको इस श्रेष्ठ रचना के लिए बधाई ....!!

Anonymous said...

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मेरे ब्लॉग पर इस बार थोडा सा बरगद..
इसकी छाँव में आप भी पधारें....

Avinash Chandra said...

आप सभी का ह्रदय से आभार.
@राजेंद्र जी,
मुझमे इतना ज्ञान नहीं है जितनी आपने प्रशंशा कर दी स्नेह से. यत्न करूँगा की आगे से शब्द क्लिष्ट न हों.

पूनम श्रीवास्तव said...

shabdo ke saath bhavo ka adbhut sanyojan.bahut hi gaharaai se likhi gai kavita ,bahut hi achhi lagi.
poonam

प्रतिभा सक्सेना said...

यह कविता पढ़कर ,मृत्युंजय(शिवाजी सावंत)में वर्णित सूर्यपुत्र कर्ण का मनस्ताप-ग्रस्त किन्तु प्रदीप्त व्यक्तित्व स्मृति में जाग गया .आभार १

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत सुन्दर ... कठिन शब्दों के होते हुए भी रचना प्रवाहमान और सुडौल है !

Dr Xitija Singh said...

avinaash ji ... aapke blog par aayi ... bahut achha laga ... magar jhoot nahi bolungi ... meri hindi itni achhi nahi hai ... aapki zyadatar kavitaaein mere upar se nikal gayi

..... kabhi kuch aam si bhasha mein hum jaise aam se insaanon ke liye bhi likhiye ....

Anonymous said...

bahut achha likha aapne...
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Avinash Chandra said...

धन्यवाद सभी का...

@प्रतिभा जी, मैं इतना योग्य कहाँ?
@क्षितिजा जी, मैं भी आम ही हूँ, शायद बहुत आम... फिर भी यत्न करूँगा आगे से आसान हो स्तिथियाँ

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

भाई! तत्सम शब्दों के प्रयोग के बारे में क्षमाप्रार्थी न होइए। रचना में दम होगा तो सुधी लोग शब्दकोश ढूँढ़ लेंगे। जो आलसी हैं वो मरें आलस में। मधुपर्क के लिए उद्योग तो करना ही पड़ता है।

...यह भी समझ लें कि चाहे तत्सम प्रधान लिखें, उर्दू सिक्त लिखें, अंग्रेजी शब्दों को लेते हुए लिखें, चाहे जैसे लिखें; आप की बात समझने वाले, शैली सराहने वाले मिलेंगे। दुनिया बहुत बड़ी है और हिन्दी वाले करोड़ो हैं। आप भारत की प्रथम जनभाषा में लिख रहे हैं और इस कारण नियति आप के पक्ष में है।

Avinash Chandra said...

धन्यवाद गिरिजेश जी